स्वच्छता कर्मियों की स्वच्छता का भी हो समाधान

By: Sep 26th, 2018 12:08 am

कंचन शर्मा

लेखिका, शिमला से हैं

स्वच्छता प्रणाली की शुरुआत हम स्वच्छता कर्मियों से करें, तो उनकी दयनीय स्थिति देखकर दुख होता है। गटर साफ करने वाले कर्मचारियों से बिना मास्क व आक्सीजन सिलेंडर के सफाई करवाना भी अमानवीय कृत्य है…

यूं तो स्वच्छता प्रत्येक मानव के जीवन का अभिन्न अंग है और मनुष्य को इसका पल-पल वहन करना चाहिए, परंतु क्योंकि स्वच्छता को एक मिशन की तरह आगे बढ़ाने के लिए आजकल स्वच्छता पखवाड़ा मनाया जा रहा है, इसलिए इस पर चिंतन-मनन करना भी आवश्यक हो जाता है। क्या हाथ में झाड़ू लिए हुए फोटो सोशल मीडिया में डालना या फिर खुद को दो-चार लोगों के साथ झाड़ू लगाते हुए दिखाना ही स्वच्छता है? जी नहीं, ‘स्वच्छता’ मनुष्य के कार्यों का वह अभिन्न अंग है, जो हमारे शरीर से लेकर घर, आंगन, गली, सड़क, पाठशाला, मिट्टी, पानी, नदी, सागर व कण-कण की स्वच्छता को सम्माहित करे। अफसोस! हम अभी तक भारत को शौचमुक्त करने में ही प्रयासरत हैं, जबकि विदेशों की स्वच्छता स्वर्गिक अनुभूति का एहसास दिलाती है। पिछले कुछ वर्षों में अनेक देशों में भ्रमण करते हुए मैंने वहां की स्वच्छता का पैमाना देखा, तो भारत की अस्वच्छता को सोचकर मन ही मन शर्मिंदा हो गई। एक ओर तो हम अपनी समृद्ध संस्कृति, सभ्यता व परंपराओं का गुणगान करते नहीं थकते हैं, तो दूसरी ओर स्वच्छता के मामले में पूरे विश्व में हम घृणा का पात्र बनते हैं और इस तथ्य पर तनिक विचार नहीं करते हैं।

स्वच्छता प्रणाली की शुरुआत सबसे पहले हम स्वच्छता कर्मियों से करें, तो उनकी दयनीय स्थिति देखकर दुख होता है। हमारे स्वच्छता कर्मी बिना ग्लव्स और मास्क के कूड़ा उठाते हैं। उनका कूड़ा उठाने वाला बैग / बोरी देखकर हैरानी होती है कि वे इतने गंदे बैग से हाथ भी कैसे लगा पाते हैं। यही नहीं वर्षाकाल में उनके पास रेन कोट की व्यवस्था भी नहीं होती है। गटर साफ करने वाले सफाई कमचारियों से बिना मास्क व आक्सीजन सिलेंडर के सफाई करवाना भी अमानवीय कृत्य है। मेरे ख्याल से जब हम स्वच्छ भारत की परिकल्पना करते हैं, तो सर्वप्रथम तन की स्वच्छता से शुरुआत करें, तो बेहतर होगा। कूड़ा व स्वच्छता कर्मियों को सब सुरक्षित साधन मुहैया करवाए जाएं व गांव-गांव, बस्ती और स्लम एरिया के बच्चों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाया जाना अति आवश्यक है। हमारे देश में लाखों बच्चे 5 वर्ष की आयु से पहले डायरिया जैसी संक्रमण बीमारियों से मर जाते हैं, क्योंकि वे अस्वच्छ वातावरण व गंदगी के माहौल में रहकर, हाथ धोकर खाना खाने वाली छोटी सी आदत के भी अभ्यस्त नहीं होते। विदेशों में मैंने देखा कि एक-दो वर्ष का बच्चा भी टाफी या चाकलेट खाने के बाद उसका रैपर डस्टबिन में डालता है। यहां ध्यान देने योग्य यह भी है कि वहां हर दस मीटर के अंतराल में साफ-सुथरे डस्टबिन हर जगह मिलेंगे, तो यह वहां की सरकारों की योग्यता है।

जब हमें हर जगह डस्टबिन आसानी से मिल जाएंगे, तो हर व्यक्ति डस्टबिन में कचरा डालने का अभ्यस्त हो जाएगा। यही नहीं, हम लोग कचरा-वर्गीकरण की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं। मसलन जूठन, फल व सब्जियों के छिलके, टूटे कांच, कागज, कचरा, इलेक्ट्रानिक टूट-फूट आदि को हम बिना वर्गीकृत किए डस्टबिन में डाल देते हैं। भोजन की गंध से   लावारिस पशु अनजाने में जूठन के साथ पिन, प्लास्टिक व कांच भी खा जाते हैं और असहनीय पीड़ा से तड़प-तड़पकर मर जाते हैं। यही नहीं, प्लास्टिक का कचरा बारिश में नालियों में फंसकर उन्हें ब्लॉक करता है। महिलाएं सैनेटरी नैपकिन यहां-वहां या फिर शौचालयों में बेतरतीब ढंग से फेंककर अस्वच्छता का गंदा स्वरूप सामने लाती हैं। यही नहीं, विदेशी जहां अपने पालतू कुत्तों की पॉटी सड़क से उठाकर स्वयं डस्टबिन में डालते हैं, वहीं भारतीय महिलाएं अपने बच्चों को सड़क या गली किनारे कहीं भी पॉटी कराकर चली जाती हैं।

ये सब चीजें भूमि में मिलकर, रिसकर हमारे जल स्रोतों को गंदा करती हैं, जिसके कारण डायरिया, जोंडिस जैसी जानलेवा बीमारियों से दो-चार होना पड़ता है। नदियों में कचरा फेंकने की आदत पर भी लगाम लगाने की आवश्यकता है। हिमाचल में एक ओर जहां हर वार्ड में शौचालयों का निर्माण कर दिया गया है, वहीं  जगह-जगह से डस्टबिन हटाने से लोगों की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। कूड़ा कर्मियों की कमी की वजह से मजबूरन लोग कूड़ा नालों, गलियों के कोनों या नदियों में फेंक देते हैं, जहां पर बंदरों की फौज कोहराम मचाए रखती है व आने-जाने वालों को दिक्कत का सामना करना पड़ता है। हम स्वच्छ वातावरण तभी बना पाएंगे, जब हमारे आसपास स्वच्छता के लिए समुचित सुविधाएं भी हों। जरूरी है हम स्वयं व अपने घर से लेकर मातृभूमि को भी अपना घर समझेंगे, तभी हम स्वच्छता के मापदंड पर खरे उतरेंगे।


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