गांधी जी को कोसना तर्कसंगत नहीं

By: Oct 4th, 2018 12:07 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

शहीद भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले उनके देशद्रोही साथियों की निंदा नहीं की जाती, क्योंकि उससे राजनीतिक लाभ नहीं मिलता, जबकि गांधी जी की निंदा का राजनीतिक लाभ है। लब्बोलुआब यह कि हमारे देश में महात्मा गांधी और शहीद भगत सिंह के नाम का सिर्फ उपयोग (या दुरुपयोग) होता है, ताकि अपना-अपना वोट बैंक पक्का किया जा सके। तो फिर  आइए उसी सवाल पर वापस आते हैं कि महात्मा गांधी को किस रूप में देखा जाना चाहिए, यानी गांधी जी ने किन उद्देश्यों को लेकर जीवन भर संघर्ष किया …

गांधी जयंती पर विदेश मंत्रालय की ओर से महात्मा गांधी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ जारी किया गया, जिसे 124 देशों के लोगों के सहयोग से बनाया गया है। यह एक बहुत बड़ा आयोजन था, जो सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। निश्चय ही इससे विदेशों में भी महात्मा गांधी एक बार फिर चर्चा में आए हैं। इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने निर्णय किया है कि 22 फरवरी, 2019 को कस्तूरबा गांधी के स्वर्गवास के 75वें वर्ष को ‘गांधी 150’ और ‘बा-बापू 150’ के रूप में मनाया जाए। सन् 2019 में लोकसभा के चुनाव होंगे, इसलिए पिछले 4 साल से गांधी को गालियां देने वाली सरकार ने अपना रुख बदलने का निर्णय किया है। तय किए गए कार्यक्रमों की सूची में 150 नोबल पुरस्कार प्राप्त लोगों का जलसा, उनके 150 लेखों का संकलन, गणतंत्र दिवस पर सभी राज्यों समेत सारी झांकियों का विषय गांधी रखना, 150 नौजवानों द्वारा 150 दिनों तक देश के हर गांव में यात्रा करना, ‘महात्मा की बात’ कार्यक्रम को ‘मन की बात’ जितनी धूमधाम से चलाना, डाक टिकट, सिक्के जैसे कई सारे भव्य कार्यक्रम हैं। जो कार्यक्रम आया है उसमें फिल्म, वीडियो, नाटक, प्रदर्शनियों और गोष्ठियों-सेमिनारों की धूम मचेगी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर प्रमुख रेलों का नामकरण, मार्गों का नामकरण, सभी रेलवे स्टेशनों पर पेंटिंग, देश-विदेश के गायकों-कलाकारों को जोड़कर गांधी जी के भजनों के नए एलबम बनाना भी शामिल है। यही नहीं, इसी कड़ी में मार्शल आर्ट में ‘गांधी ब्लैक बेल्ट’ देने का कार्यक्रम भी शामिल है। महात्मा गांधी के नाम से प्रसिद्ध मोहनदास कर्मचंद गांधी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वह सभी समुदायों में आपसी भाईचारे के समर्थक थे और भारत लौटने के बाद उन्होंने आम आदमी जैसा जीवन जिया।

वह सच्चरित्र और शत-प्रतिशत ईमानदारी के हिमायती थे। उनके लोकतंत्र की परिकल्पना में राज्य की शक्ति सरकारों या राजनीतिज्ञों में नहीं, बल्कि आम आदमी में निहित थी। वह दलितों और वंचितों के हितचिंतक थे और सन् 1921 में कांग्रेस का नेतृत्व संभालने के बाद से उन्होंने आगे रहकर स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगाई। सन् 1930 में 400 किलोमीटर लंबी डांडी यात्रा से लेकर अंग्रेजों के खिलाफ चलाए भारत छोड़ो आंदोलन तक उन्होंने सदैव देश की स्वतंत्रता के लिए जनजागरण का कार्य किया। गांधी जी चाहते थे कि देश कि जनता शोषण से मुक्ति पाए। वे परम आस्तिक थे, लेकिन धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली नफरत के विरोधी थे। यह सही है कि सन् 1931 में वायसराय इरविन के साथ समझौता करते समय उन्होंने भगत सिंह की फांसी माफ करने का मुद्दा नहीं उठाया और जब उठाया, तब तक देर हो चुकी थी। गांधी जी ने सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष बनने से रोकने की पूरी कोशिश की और बहुत बार अतर्कसंगत ढंग से नेहरू का साथ दिया। उन्होंने भारत सरकार की ओर से पाकिस्तान सरकार को मुआवजा दिलवाया। ऐसे बहुत से काम हो सकते हैं, जिनसे कोई व्यक्ति उनसे असहमत हो सकता है, लेकिन मामला कुछ भी रहा हो, गांधी जी की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर शक की कोई गुंजाइश नहीं है। आम आदमी के लिए बापू, राष्ट्रपिता ही रहेंगे, क्योंकि उनकी निगाह में महात्मा गांधी का मतलब है सच्चाई, ईमानदारी, संकल्प, चरित्र, आपसी भाईचारा, सभी धर्मों के प्रति सम्मान और लोकतंत्र में शक्ति संपन्न नागरिक। यह खेद का विषय है कि एक वर्ग विशेष द्वारा शहीद भगत सिंह की फांसी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस तथा पाकिस्तान को मुआवजा दिलवाने के मामले को लेकर आज भी अकसर उनका विरोध किया जाता है। सोशल मीडिया पर इस तरह के संदेश वायरल होते हैं कि शहीद भगत सिंह को फांसी हो गई, लाला लाजपत राय ने लाठियां खाकर जान दे दी, लेकिन गांधी जी को एक खंरोच तक नहीं आई और यह कि गांधी जी ने भगत सिंह की फांसी का समर्थन किया तथा भारतीय हितों की उपेक्षा करते हुए पाकिस्तान का समर्थन किया। गांधी जी अंग्रेजों के पिट्ठू थे तथा उनकी हत्या करने वाला नाथू राम गोडसे सच्चा देशभक्त था। यहां यह समझना आवश्यक है कि शहीद भगत सिंह के नाम पर गांधी जी की आलोचना करने वाला वर्ग इसलिए गांधी जी की आलोचना नहीं करता कि इस वर्ग को शहीद भगत सिंह से बहुत प्यार है, बल्कि इसलिए आलोचना करता है क्योंकि शहीद भगत सिंह के नाम पर गांधी जी की आलोचना करना आसान है। गांधी जी का आलोचक यह वर्ग तो यह भी नहीं जानता कि शहीद भगत सिंह वामपंथी, नास्तिक, बौद्धिक और सांप्रदायिकता विरोधी थे। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली सभा में बम फेंकने के बाद भाग निकलने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वे अंग्रेज सरकार को संदेश देना चाहते थे। जब वे गिरफ्तार हुए तो उनके पास से उनकी पिस्तौल भी बरामद हुई और यह सिद्ध हो सका कि उसी पिस्तौल से सांडर्स की हत्या हुई है। सच तो यह है कि फांसी की सजा उन्हें असेंबली में बम फेंकने के कारण नहीं, बल्कि सांडर्स की हत्या का दोषी पाए जाने के कारण हुई और उसमें भी बड़ी भूमिका सरकारी गवाह बने उनके क्रांतिकारी साथियों की थी। शहीद भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले उनके देशद्रोही साथियों की निंदा नहीं की जाती, क्योंकि उससे राजनीतिक लाभ नहीं मिलता, जबकि गांधी जी की निंदा का राजनीतिक लाभ है। लब्बोलुआब यह कि हमारे देश में महात्मा गांधी और शहीद भगत सिंह के नाम का सिर्फ उपयोग (या दुरुपयोग) होता है, ताकि अपना-अपना वोट बैंक पक्का किया जा सके। तो फिर  आइए उसी सवाल पर वापस आते हैं कि महात्मा गांधी को किस रूप में देखा जाना चाहिए, यानी गांधी जी ने किन उद्देश्यों को लेकर जीवन भर संघर्ष किया और अंततः अपनी जान गंवाई?

गांधी जी की जो व्याख्या संभव है, वह है गांधी यानी सच्चाई, गांधी यानी ईमानदारी, गांधी यानी चरित्र की दृढ़ता, गांधी यानी दीन-दुखियों और वंचितों के प्रति दयालुता, गांधी यानी सर्वधर्म समभाव, गांधी यानी स्वस्थ न्यायप्रिय समाज, गांधी यानी देशभक्ति, गांधी यानी शक्तियों का विकेंद्रीकरण, गांधी यानी जनसंवेदी प्रशासन, गांधी यानी नागरिक सहभागिता का लोकतंत्र। इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो सरकारी आयोजनों के सभी प्रयास प्रशंसनीय होते हुए भी सिर्फ तभी सार्थक हैं यदि वे गांधी जी के जीवन के संदेशों के अनुरूप हों, समाज और सरकारी तंत्र में गांधीगिरी दिखे, समाज में भाईचारा हो तथा जनसंवेदी लोकतंत्र में नागरिक सहभागिता सुनिश्चित हो। काश ऐसा हो। काश, ऐसा ही हो!

ईमेलः indiatotal.features@gmail.


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