धर्म के आभामंडल को नुकसान पहुंचाती अदालतें

By: Oct 5th, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

यह तर्कसंगत है कि बाबर कोई भगवान नहीं था तथा न ही वह ऐसी कोई भावना पैदा करता है। वह इस देश से बाहर मरा और वहां उसकी कब्र है। श्री राम को लेकर विश्वास व उनकी पूजा हिंदुओं के लिए अनिवार्य है तथा इसे जमीन छीनने का मामला नहीं माना जाना चाहिए। पुरातात्त्विक सबूत पहले ही सामने हैं जो वहां मंदिर होने की पुष्टि करते हैं तथा इसका अस्तित्व मस्जिद से भी पहले का है। सारांश स्पष्ट है कि इस स्थान से मंदिर को हटाया गया था…

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐतिहासिक फैसले दिए हैं जिनमें से कुछ स्वतंत्रता तथा समानता के मूल्यों को संवर्धित करने में एक युग निर्माण की तरह हैं। आधुनिक युग के इन फैसलों को देने का श्रेय उच्च स्तर के सभी अधिकारियों को जाता है, किंतु प्राथमिक रूप से यह श्रेय न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की योग्यता तथा नजरिए को दिया जाना चाहिए। उन्होंने इस तरह के कई अच्छे फैसलों पर आलोचना को सहन करने के लिए पांडित्य और साहस का भी प्रदर्शन किया है। मैं इस तरह के दबंग फैसलों के लिए उच्चतम न्यायालय की सराहना करूंगा, जिससे ताजा तथा नई सोच की हवा बहने लगी है। कुछ मामलों में न्यायपालिका दाव पर लगे मसलों पर न्याय देने में विफल रही है। इस क्षेत्र में सबरीमाला मंदिर मामले की विवाद की दृष्टि से ज्यादा चर्चा हो रही है। यह दुख का विषय है कि समानता तथा उदारवाद के नाम पर हम आध्यात्मिक मूल्यों के मर्म को क्षति पहुंचा रहे हैं तथा धर्म की परिपाटियों को गिराया जा रहा है। न्यायालयों को तब तक धार्मिक परिपाटियों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक मंदिरों में चल रही आपराधिक गतिविधियों तथा कानून के उल्लंघन की बात पूरी तरह स्पष्ट न हो। इस तरह के मामलों में धन की चोरी, महिलाओं व बच्चों से दुर्व्यवहार तथा कानून का उल्लंघन करने वाले जैसे मामलों को ही कवर किया जाना चाहिए। बाबरी मस्जिद एक भूमि विवाद है, जबकि चर्चों में बलात्कार एक आपराधिक मामला है।

किंतु धार्मिक विश्वास के आधार पर समाज के कुछ सदस्यों को भवन में प्रवेश करने की साधारण अनुमति देना या न देना हिंदू या अन्य किसी धर्म के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए। न्यायालय को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कुछ ऐसी परिपाटियों में महत्त्वपूर्ण चिंताएं हैं जिन्हें ऐसी भावना कायम रखने के लिए संरक्षित किया जाना चाहिए। सबसे बुरा उदाहरण हालिया फैसला है जिसमें महिलाओं को सबरीमाला आयप्पा मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी गई है, जबकि अब तक इस पर प्रतिबंध लगा हुआ था। महिलाओं को समानता का अधिकार देने की प्रवृत्ति के तहत कोर्ट ने उन्हें मंदिर में प्रवेश की इजाजत दी और माना कि उन्हें प्रवेश की इजाजत न देना उनके अधिकारों का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों ने इस नजरिए से सहमति जताई, जबकि एक अन्य साहसी जज इंदु मल्होत्रा ने अपनी सहमति नहीं दी। इस मामले में असहमति जताने वाले न्यायाधीश का मत है कि न्यायालय को धार्मिक मामलों में जन हित याचिका दायर करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए क्योंकि इससे कोर्ट में मुकदमों की कतार लग जाएगी तथा जनहित के अन्य मामलों की उपेक्षा होती रहेगी।   इस मामले में याचिकाकर्ता मामले से जुड़े हुए नहीं थे। ऐसी स्थिति में याचिका को निरस्त किया जाना चाहिए था। वास्तव में पंथनिरपेक्ष जनहित याचिकाओं को धार्मिक मामलों की बाढ़ लाने का हक नहीं दिया जाना चाहिए। इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 14 का उद्वरण दिया गया।

यह अनुच्छेद कानून के समक्ष समानता से संबंधित है, किंतु यह धार्मिक मामलों को कवर नहीं करता है। न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा ने ठीक ही कहा है कि पक्षपात व विविधता में अंतर है। सबरीमाला द्वारा अपनाई गई परिपाटी अन्यों से अलग है क्योंकि ऐसे करीब 100 मंदिर हैं जहां महिलाओं पर कोई पाबंदी नहीं है। इस मामले में देवता स्व-नियंत्रण व ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान है। यह रीति-रिवाजों पर आधारित है। ब्रह्मचर्य की यौगिक परिपाटी कुछ अंकुश लगाती है तथा इसकी दूसरों से तुलना नहीं की जानी चाहिए। यह वही है जिसे एक जज विविधता कह रहा है। इसे एकरूपता के संदूक में डालने की जरूरत नहीं है तथा सभी के लिए दरवाजे खुले रहने चाहिए, लेकिन इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए कि कई आधार हैं जो प्रवेश को प्रतिबंधित कर रहे हैं। यह पक्षपात नहीं है। जस्टिस मल्होत्रा संविधान के अनुच्छेद 25 का उद्वरण भी देते हैं। यह अनुच्छेद सभी को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसमें अपने धर्म की परिपाटी तय करने का अधिकार भी है। इसलिए जब तक स्पष्ट रूप से देश के किसी कानून का उल्लंघन नहीं होता है तब तक इस तरह की परिपाटियों पर आधुनिकीकरण के नाम पर किसी तरह की न तो पाबंदी लगाई जा सकती है और न ही उसमें बदलाव किया जा सकता है। धार्मिक आजादी के मामलों में हाल में एक नई प्रवृत्ति पैदा हुई है कि कोर्ट निरंतर दखल दे रहे हैं जिस पर सुप्रीम कोर्ट को अंकुश लगाना चाहिए। हम जल्द ही बाबरी मस्जिद की तरह के अन्य मामले का सामना करेंगे, किंतु चूंकि बाबरी मस्जिद एक धार्मिक मामला नहीं बल्कि जमीन से जुड़ा मामला है, इसलिए इस पर कोर्ट को कोई सटीक फैसला देकर न्याय करना है। वास्तव में दोनों समुदायों के धार्मिक नेताओं को कोर्ट की परिधि से बाहर आपसी सहमति से इस मामले को निपटाना चाहिए। शिया समुदाय पहले ही पेशकश कर चुका है कि इस मामले को निपटाया जाए तथा लखनऊ में मस्जिद के लिए वैकल्पिक जमीन देने का प्रस्ताव है। यह तर्कसंगत है कि बाबर कोई भगवान नहीं था तथा न ही वह ऐसी कोई भावना पैदा करता है। वह इस देश से बाहर मरा और वहां उसकी कब्र है।

श्री राम को लेकर विश्वास व उनकी पूजा हिंदुओं के लिए अनिवार्य है तथा इसे जमीन छीनने का मामला नहीं माना जाना चाहिए। पुरातात्त्विक सबूत पहले ही सामने हैं जो वहां मंदिर होने की पुष्टि करते हैं तथा इसका अस्तित्व मस्जिद से भी पहले का है। सारांश स्पष्ट है कि इस स्थान से मंदिर को हटाया गया था। आज का मसला यह नहीं है कि इसे हटाया गया या नष्ट किया गया था। वास्तविक मसला बहुसंख्यक समुदाय द्वारा पूजित देवता को सम्मान देने का है। यह सभी की साझी चिंता होनी चाहिए क्योंकि आने वाले समय में दोनों धर्मों का सह-अस्तित्व रहेगा तथा दोनों को साथ-साथ सद्भावना से रहना है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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