संन्यासी नेताओं की भूमिका

By: Oct 30th, 2018 12:08 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

एक परिस्थिति यह है कि वह संन्यासी नेता समाज के लिए सही दिशा में कार्य करे। ऐसे में समाज को दोहरा लाभ होगा। संन्यासी होने के कारण वह निर्लिप्त भाव से कार्य करेगा और सही दिशा में होने के कारण वह सही कार्य करेगा, लेकिन यदि वह गलत दिशा में कार्य करने लगे, तो समाज को दोहरा नुकसान होगा। संन्यासी नेता के ऊपर दूसरे ब्राह्मणों द्वारा अंकुश लगाना कठिन है। संन्यासी नेता एक प्रकार से निरंकुश नेता हो जाता है। यदि वह समाज को गलत दिशा में ले गया, तो उसके द्वारा अपनाई गई गलत दिशा निर्बाध चलती रहेगी…

आगामी चुनाव में संन्यासी नेताओं की भारी मांग उत्पन्न हो रही है। यह एक सुखद संदेश है। संन्यासी मूल रूप से संसार से विरक्त हो चुका होता है और वह निष्पक्ष रूप से समाज की समस्याओं पर विचार कर सकता है। इसलिए हम मान सकते हैं कि संन्यासी नेता द्वारा देश के हित में सही कार्य किया जाएगा। संन्यास का मूल विचार आंतरिक संन्यास का है। कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत में आंतरिक संन्यास का उपदेश दिया था, कहा था कि अंदर से ईश्वर को समर्पण करते हुए और अपनी इच्छाओं का क्षय करते हुए समाज में सक्रिय रहो, अधर्म का सामना करो। अर्जुन ने गेरुआ वस्त्र नहीं पहने, अर्जुन ने संन्यास भी नहीं लिया, लेकिन अर्जुन श्रेष्ठ श्रेणी के संन्यासी थे। उन्होंने आंतरिक संन्यास लिया और बाहरी कार्यों में लिप्त रहे। वर्तमान काल में उनके समकक्ष महात्मा गांधी दिखते हैं। उन्होंने भी आंतरिक संन्यास लेकर बाहरी राजनीतिक कार्य किया और देश को सुखद परिणाम भी मिले। अर्जुन और गांधी दोनों ने ही गेरुआ वस्त्र नहीं धारण किया। वर्तमान समझ के अनुसार दोनों ही संन्यासी की श्रेणी में भी नहीं आते हैं, यद्यपि इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि दोनों ही श्रेष्ठ श्रेणी के संन्यासी थे, लेकिन अर्जुन और गांधी की स्थिति को पहुंचना कठिन कार्य है।

इस स्थिति को पहुंचने के लिए व्यक्ति को अपनी आंतरिक लालसाओं का क्षय करते हुए बाहरी कार्य में लिप्त होना होता है। बाहरी कार्यों को संपन्न करते समय अपनी आंतरिक लालसाओं पर नियंत्रण रखना होता है। ऐसा न कर पाने वाले लोगों के लिए हमारी परंपरा ने एक द्वितीय श्रेणी का हल निकाला, जो लोग अर्जुन और गांधी की तरह आंतरिक लालसाओं से मुक्त नहीं हुए हैं, लेकिन उस तरफ पहुंचना चाहते हैं, उनके लिए व्यवस्था बनाई गई कि वे बाहरी संन्यास ले लें। वे गेरुआ वस्त्र धारण कर लें, अपने परिवार से संबंध तोड़ लें और अंतर्मुखी होकर अपनी आंतरिक लालसाओं का क्षय करना शुरू करें। परिवार और समाज में सक्रिय न होने से उनकी आंतरिक लालसाएं नहीं बढ़ेंगी, बल्कि उनका क्षय होगा। समयक्रम में वे अर्जुन और गांधी जैसी स्थिति को प्राप्त होंगे, जिसमें आंतरिक लालसाएं समाप्त हो चुकी होंगी। इसी संन्यास परंपरा का एक सामाजिक पक्ष भी है। विचार हुआ कि नेता को नियंत्रित करना है। नेता अथवा राजा द्वारा अकसर आततायी व्यवहार किया जाता है। उन पर अंकुश रखने के लिए ब्राह्मणों की व्यवस्था बनाई गई। मनु स्मृति में कहा गया है कि क्षत्रिय पर ब्राह्मण ही अंकुश कर सकता है। संन्यासी भी ब्राह्मण वर्ण में ही आएंगे। इस प्रकार जिन लोगों ने गेरुआ धारण कर लिया और संन्यास ग्रहण कर लिया, वे निर्लिप्त भाव से नेता को नियंत्रित कर सकते हैं। वे नेता को कह सकते हैं कि आप जो नीति अपना रहे हो वह गलत है और उसमें सुधार की कोशिश कर सकते हैं। इस प्रकार संन्यास के दो पक्ष हुए। एक पक्ष व्यक्तिगत हुआ, जिसमें व्यक्ति बाहरी सामाजिक सरोकारों से अपने को अलग करके अपनी आंतरिक लालसाओं का क्षय करता है। सामाजिक पक्ष यह हुआ कि वह नेताओं पर नियंत्रण का कार्य कर सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में हम विचार कर सकते हैं कि संन्यासी नेताओं की क्या भूमिका होगी? यहां मानकर चलना चाहिए कि जो व्यक्ति संन्यास लेता है अथवा गेरुआ धारण करता है, उसमें निश्चित रूप से कुछ लालसाएं बाकी हैं। यदि उसकी सब लालसाओं का क्षय हो गया होता, तो उसको अर्जुन और गांधी की तरह समाज में लिप्त होने में कोई समस्या नहीं थी। इन व्यक्तियों द्वारा गेरुआ धारण करने का कारण यही है कि उनकी लालसाएं समाप्त नहीं हुई हैं और उन लालसाओं को समाप्त करने के लिए वह गेरुआ धारण कर रहे हैं। ऐसे में यदि गेरुआ वस्त्र धारण करने वाला संन्यासी बनता है, तो स्पष्ट होगा कि उसकी लालसाएं बाकी हैं और वह इस स्थिति में समाज में सक्रिय भी होगा। लालसाओं के अनुसार वह समाज में कार्य करेगा। इसलिए संन्यास धर्म का व्यक्तिगत लालसाओं को क्षय करने का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। आंतरिक लालसाओं को क्षय करने के लिए जरूरी है कि समाज से संपर्क न्यून रखा जाए। संन्यासी नेता का जो सामाजिक पक्ष है वह ज्यादा पेचीदा है। यहां प्रश्न है कि जब संन्यासी नेता बनता है, तो वह ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों की भूमिका का एक साथ निर्वाह करता है।

हिंदू परंपरा में ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच घर्षण को वर्ण व्यवस्था के रूप में बनाया गया। कहा गया कि क्षत्रिय के दुराचार के ऊपर ब्राह्मण अंकुश रखता है। दोनों में अंतर से ही राजा के कार्यों पर नियंत्रण होता है। संन्यासी द्वारा नेता का कार्य किए जाने से वह एक साथ ब्राह्मण और क्षत्रीय की भूमिका में आ जाता है, इन दोनों में घर्षण की व्यवस्था समाप्त हो जाती है। ऐसे में दो परिस्थितियां हैं। एक परिस्थिति यह है कि वह संन्यासी नेता समाज के लिए सही दिशा में कार्य करे। ऐसे में समाज को दोहरा लाभ होगा। संन्यासी होने के कारण वह निर्लिप्त भाव से कार्य करेगा और सही दिशा में होने के कारण वह सही कार्य करेगा। समाज को दोहरा लाभ होगा, लेकिन यदि वह गलत दिशा में कार्य करने लगे, तो समाज को दोहरा नुकसान होगा। संन्यासी नेता के ऊपर दूसरे ब्राह्मणों द्वारा अंकुश लगाना कठिन है। संन्यासी नेता एक प्रकार से निरंकुश नेता हो जाता है। यदि वह समाज को गलत दिशा में ले गया, तो ब्राह्मणों के साथ घर्षण नहीं होगा और उसके द्वारा अपनाई गई गलत दिशा निर्बाध चलती रहेगी।

इस प्रकार यदि संन्यासी नेता सही दिशा में चले, तो समाज को दोहरा लाभ है और यदि गलत दिशा में चले, तो समाज को दोहरा नुकसान है। चुनौती है कि संन्यासी नेताओं द्वारा लागू की गई नीतियां सही हों। यह कार्य कठिन है, हमें व्यवस्था बनानी होगी, जिसमें निर्लिप्त भाव से कार्य करने वाले लोग यानी ब्राह्मण क्षत्रिय के दुराचार पर अंकुश रखें। वे संन्यासी नेता द्वारा लागू की गई नीतियों का निष्पक्ष आकलन करके समाज के सामने प्रस्तुत करें, जैसा कि मनुस्मृति में बताया गया है कि क्षत्रिय के ऊपर ब्राह्मण अंकुश कर सकता है। उस मूल सिद्धांत को अपनाते हुए संन्यासी नेता पर भी अंकुश करने की दूसरी व्यवस्था बनाने की हमारे सामने चुनौती है। यदि हम दूसरी व्यवस्था बना करके संन्यासी नेताओं की नीतियों को सही दिशा में ला सकें, तो समाज को दोहरा लाभ होगा और यदि इनके द्वारा गलत नीतियां अपनाई गईं, तो यह व्यवस्था समाज को दोहरा नुकसान देगी।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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