सबरीमाला : लैंगिक पक्षपात से मूल्यों तक

By: Oct 26th, 2018 12:07 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

न्याय के लिए मूलभूत मसला यह है कि क्या महिलाओं का शोषण हुआ है अथवा अनुचित तरीके से लाभ पाने के लिए कहीं कोई लैंगिक पक्षपात हुआ है? सबरीमाला की अपने मूल्यों के लिए रक्षा होनी चाहिए तथा भगवान आयप्पा के बह्मचर्य के संकल्प का सम्मान होना चाहिए। विशेषकर उन परिस्थितियों में यह और भी जरूरी है जबकि स्वयं महिला श्रद्धालु ही यहां की परिपाटी में बदलाव का विरोध कर रही हैं। यह उचित समय है कि इस फैसले में संशोधन के लिए अपील की जाए। भगवान आयप्पा की पूजा शांतिपूर्वक चलती रहे, इसके लिए ऐसा करना जरूरी है…

हिंदुत्व की जितनी न्यायिक समीक्षा आजकल हो रही है, उतनी पहले कभी नहीं हुई। हालिया सबरीमाला विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने परंपराओं को दरकिनार करते हुए लैंगिक समानता के सिद्धांत की प्रतिस्थापना करते हुए महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत दे दी। सामान्य बोध का तर्क इस वैधानिक व्याख्या के अनुकूल है कि महिलाओं के साथ संविधान में दिए गए अधिकारों व विशेषाधिकारों के अनुकूल समानता का व्यवहार किया जाना चाहिए। यह उदारवादी तर्क लैंगिक समानता की पैरवी करता है, जबकि मंदिर में परंपरा के अनुसार दस साल से 50 साल तक की महिलाओं के लिए प्रवेश पाने पर प्रतिबंध था, क्योंकि यह अवधि प्रजनन क्षमता वाली अवधि के रूप में मानी जाती है। यह एक प्राचीन परंपरा है जिसका इस मंदिर में निर्वहन किया जाता रहा है, जबकि भगवान आयप्पा के अन्य मंदिरों में ऐसा कोई नियम नहीं है। हिंदुओं के बीच यूनानियों की तरह कई तरह के मिथ प्रचलित हैं तथा इस काल्पनिक संसार में कई लोकातीत चीजों को स्वीकृति प्राप्त है। हिंदू धर्म के मामले में चरित्रों व कहानियों का निर्माण त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व महेश के इर्द-गिर्द होता रहा है। इसी त्रिमूर्ति को सृजनकर्ता, पालनकर्ता व संहारकर्ता के रूप में माना जाता है। भगवान आयप्पा शिवजी के पुत्र हैं।

शिवजी को हिंदू धर्म में एक शक्तिशाली देवता की मान्यता प्राप्त है। इसी कारण भगवान आयप्पा के विश्व भर में असंख्य अनुयायी हैं और उन्हें सार्वभौमिक स्तर प्राप्त है। इनके अनुयायियों की संख्या आम तौर पर 17 से 30 लाख तक मानी जाती है जो प्रतिवर्ष यहां तीर्थ पर आते हैं तथा अनुमान तो यहां तक है कि यह संख्या कई बार 50 लाख तक पहुंच जाती है। यहां की महिला श्रद्धालु स्वयं मंदिर में प्रवेश करने से बचती रही हैं तथा यह परिपाटी दशकों से चली आ रही है। अब जबकि कुछ गैर श्रद्धालु महिलाओं ने जन हित याचिका के जरिए प्रचार पाने का जरिया निकाला तो कोर्ट को मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला सुलझाने के लिए इस विवाद में आगे आना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों में से एक को छोड़कर अन्य सभी ने इस मामले को लैंगिक पक्षपात का मामला मानते हुए प्रवेश वर्जन को महिलाओं के समान अधिकार का सीधा उल्लंघन माना। उधर एक साहसी न्यायाधीश, जो स्वयं एक महिला हैं, ने अपने फैसले में कहा कि यह पक्षपात नहीं, बल्कि विविधता का मामला है। ऐसा कह कर उन्होंने बिल्कुल सही किया। यह एक अलग परिपाटी है जिसका लक्ष्य किसी का शोषण करने से नहीं है, बल्कि उस देवता का सम्मान करना है जो ब्रह्मचर्य का अनुपालन कर रहे हैं। संवेदनशील व सम्मान की प्रतीक परंपरा की तुलना किसी के अधिकार छीनने अथवा प्रतिबंध से कैसे की जा सकती है? सुप्रीम कोर्ट धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने से इनकार भी कर सकता था, विशेषकर उस स्थिति में जबकि हाई कोर्ट ने सही निर्णय लेते हुए पहले ही हस्तक्षेप से इनकार कर दिया था। इसका मतलब यह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक मामलों में उस स्थिति में दखल नहीं दे सकता अगर कहीं पक्षपात हो रहा हो अथवा किसी कानून का उल्लंघन हो रहा हो। उसे ऐसी स्थिति में निश्चित ही अनिवार्य रूप से दखल देना चाहिए, किंतु इस मामले में किसी श्रद्धालु ने शिकायत दर्ज नहीं कराई थी, जैसा कि असहमति प्रकट करने वाली न्यायाधीश ने भी कहा है। बाद में श्रद्धालुओं ने दो महिला एक्टिविस्ट को मंदिर में प्रविष्ट होने से रोक लिया। इन महिलाओं में एक मुस्लिम है, जबकि दूसरी ईसाई है। इन्होंने बलपूर्वक मंदिर में प्रवेश करने का प्रयास उस समय किया जब मीडिया इसकी कवरेज कर रहा था। इनमें से एक महिला बीएसएनएल की कर्मचारी होने के साथ-साथ एक माडल भी है, जिस पर मादक पदार्थों के सेवन का आरोप भी लगा है। इनमें कोई भी भगवान आयप्पा की सच्ची श्रद्धालु नहीं हैं तथा ये एक्टिविस्ट महज प्रचार पाने के लिए ऐसा प्रयास कर रही हैं। सुब्रह्मण्यम स्वामी का तर्क है कि अगर कोर्ट को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने से रोका गया, तो यह तीन तलाक तथा धार्मिक रूप से शोषण के अन्य मामलों को कमजोर करेगा। परंतु जैसी कि मैं व्याख्या कर चुका हूं कि प्रवेश से इनकार कोई शोषण नहीं है, किंतु यह ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले देवता का सम्मान है तथा जो महिलाएं भगवान आयप्पा की पूजा कर रही हैं, वे भी इसे स्वीकार करती हैं। अगर महिला से पक्षपात होता है, विशेषाधिकारों का हनन होता है अथवा उसका उत्पीड़न किया जाता है, तो कोर्ट को धार्मिक व सामाजिक, कहीं भी किसी भी मामले में हस्तक्षेप का अधिकार है। परंतु इस मामले में सभी चीजें उपहास के रूप में घटित होती चली गईं।

असहमति प्रकट करने वाली न्यायाधीश ने भी इस बात को स्वीकार किया है। इस फैसले ने ऐसे उदारवाद की प्रतिछाया में लैंगिक समानता के सवाल को भी उठाया है कि कोर्ट ने एक उन्मुक्त फैसला दे दिया, किंतु यह एक काल्पनिक फैसला है। वास्तव में इस पूरे प्रकरण के दो पहलू हैं। पहला है उदारवाद के मूल्यों का प्रश्न तथा प्राचीन धर्मों के रीति-रिवाजों को अराजकतावादी और चलन से बाहर का मानना। कई लोग महसूस करते हैं कि हिंदुओं को गतिशील होते हुए ऐसी परिपाटियों में बदलाव करना चाहिए,  लेकिन सवाल यह है कि हिंदुओं को क्योंकर बदलाव करना चाहिए जबकि धर्म का सार ही यह है कि परंपरा से चले आ रहे मूल्यों व सद्गुणों का संरक्षण करना है। यह एक वसीयत तथा धरोहर है।

अगर मुसलमान महिलाओं को मस्जिदों में प्रवेश करने की इजाजत नहीं देते हैं तथा विशेष अंदाज के कपड़े पहनने से इनकार करते हैं, तो क्या यह हानिकारक नहीं है? लेकिन तीन तलाक की परिपाटी का अनुपालन करना तथा महिलाओं को क्षति पहुंचाने वाले अन्य ऐसे तलाक देने का मामला हो, तो इन परिपाटियों में बदलाव का एक वाजिब तर्क बनता है। अगर हिंदू सती की परिपाटी का अनुपालन करते हैं, तो समय में बदलाव के साथ-साथ इसे उत्पीड़न माना गया, जबकि इसकी शुरुआत इसलिए हुई थी ताकि आक्रांताओं से सम्मान की रक्षा की जा सके तथा उनके उत्पीड़न से बचा जा सके। यह प्रथा वर्षों तक प्रचलन में रही, किंतु आज इसे न तो लोगों का समर्थन हासिल है और न ही कोई देवता इस तरह की प्रथाओं की पुष्टि करता है। तथाकथित उदारवादियों के दिमाग को परेशान कर रहा एक अन्य प्रश्न लैंगिक समानता का है। चूंकि महिला तथा पुरुष प्राकृतिक रूप से ही शरीर तथा दिमाग से असमान हैं, अतः दोनों की समानता जैसी कोई चीज है ही नहीं। वैज्ञानिक रूप से शरीर की शक्ति या बौद्धिकता के जो मापक हैं, वे पुरुष तथा महिला में व्यापक विविधता दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में लैंगिक समानता कैसे संभव हो सकती है? हिंदू भी कई मामलों में महिलाओं को पुरुषों के असमान मानते हैं, जबकि कई मामलों में महिलाओं को पुरुषों से ज्यादा उत्कृष्ट माना जाता है। उनकी पूजा लक्ष्मी की तरह होती है। न्याय के लिए मूलभूत मसला यह है कि क्या महिलाओं का शोषण हुआ है अथवा अनुचित तरीके से लाभ पाने के लिए कहीं कोई लैंगिक पक्षपात हुआ है? सबरीमाला की अपने मूल्यों के लिए रक्षा होनी चाहिए तथा भगवान आयप्पा के बह्मचर्य के संकल्प का सम्मान होना चाहिए। विशेषकर उन परिस्थितियों में यह और भी जरूरी है, जबकि स्वयं महिला श्रद्धालु ही यहां की परिपाटी में बदलाव का विरोध कर रही हैं। यह उचित समय है कि इस फैसले में संशोधन के लिए अपील की जाए। भगवान आयप्पा की पूजा शांतिपूर्वक चलती रहे, इसके लिए ऐसा करना जरूरी है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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