स्मृति ईरानी के साहस को सलाम

By: Oct 27th, 2018 12:08 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

स्मृति ईरानी के कथन की समीक्षा करनी होगी। स्मृति ईरानी ने कहा कोई अकलमंद व्यक्ति किसी मित्र के घर में ‘खून आलुदा’ कपड़े लेकर नहीं जाता। यह किसी भी सभ्य समाज में मर्यादा के विपरीत माना जाएगा। स्मृति ईरानी इतना तो जानती ही होंगी कि उनका यह कथन विवाद खड़ा कर देगा और यंग एक्टिविस्ट उनके पीछे भी पड़ जाएंगे, लेकिन विपरीत परिस्थिति में भी जो सत्य कहने से पीछे नहीं हटता, वही साहसी कहला सकता है…

मंदिर की मर्यादा को लेकर उठे इस विवाद पर स्मृति ईरानी की टिप्पणी बहुत ही सार्थक कही जाएगी। मंदिर की मर्यादा पर सबसे पहली टिप्पणी तो उच्चतम न्यायालय की उस पीठ का हिस्सा रहीं न्यायमूर्ति मल्होत्रा की है, जिसने बहुमत के निर्णय से अलग हटकर अपना अल्पमत का निर्णय लिखवाया। मंदिर में जो विवाद खड़ा किया गया, वह महिलाओं से भेदभाव को लेकर ही खड़ा किया गया था। विवाद को जन्म देने वाले ‘यंग एक्टिविस्ट’ थे न कि भगवान अयप्पा के भक्त। मंदिर एक्टिविज्म की जगह नहीं है, बल्कि भक्ति की जगह है। इस अनधिकार चेष्टा को पहचाना जाना चाहिए था, लेकिन पहचाना नहीं गया। सभी के ध्यान में होगा कि एक बार उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संविधान के आंतरिक आपात स्थिति के चलते यदि राज्य किसी नागरिक को गोली से मार भी दे, तब भी वह मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद के रहते हुए भी अपने जीवन की रक्षा की गुहार नहीं लगा सकता। बहुमत के उस निर्णय में न्यायमूर्ति के अल्पमत का निर्णय भी था। आज रोल मॉडल अल्पमत का निर्णय देने वाले उस न्यायाधीश का ही स्मरण लोगों को है। यही स्थिति सबरीमाला मंदिर को लेकर है।

उसके अंदर जाकर अयप्पा की पूजा करने के अधिकार को लेकर है। उस पर स्मृति ईरानी के कथन की समीक्षा करनी होगी। स्मृति ईरानी ने कहा कोई अकलमंद व्यक्ति किसी मित्र के घर में ‘खून आलुदा’ कपड़े लेकर नहीं जाता। यह किसी भी सभ्य समाज में मर्यादा के विपरीत माना जाएगा। स्मृति ईरानी इतना तो जानती ही होंगी कि उनका यह कथन विवाद खड़ा कर देगा और यंग एक्टिविस्ट उनके पीछे भी पड़ जाएंगे, लेकिन विपरीत परिस्थिति में भी जो सत्य कहने से पीछे नहीं हटता, वही साहसी कहला सकता है। सींग कटाकर भेड़ों में शामिल हो जाना और उन्हीं की भाषा में मिमियाते रहना नेतृत्व का लक्षण नहीं हो सकता। ईरानी ने तथाकथित एक्टिविज्म को चुनौती दी है। उनका कहना है कि मैं अपने बच्चों को लेकर अग्निमंदिर जाती हूं, क्योंकि मेरे दोनों बच्चे अग्निमंदिर की पूजा करने वाले संप्रदाय के पुजारी हैं, लेकिन मुझे उस मंदिर के भीतर जाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि मंदिर की यही मर्यादा है और मंदिर के भक्त भी चाहते हैं कि मंदिर की उस मर्यादा की रक्षा की जाए। स्मृति ईरानी स्वेच्छा से उनकी इस मर्यादा का पालन करती हैं। यह किसी भी सभ्य समाज का लक्षण है, लेकिन इससे जुड़ा एक बड़ा प्रश्न भी है। स्मृति ईरानी तो अपने संस्कारों के कारण उस मंदिर की मर्यादा का पालन करती हैं, लेकिन कल यदि कोई यंग एक्टिविस्ट इसे समानता विरोधी बताकर उस मंदिर में घुसने का प्रयास करे, उसका उत्तर भारत के संविधान में है। संविधान इस मंदिर को, जिसकी चर्चा स्मृति ईरानी कर रही हैं, अल्पसंख्यक समुदाय का मंदिर मानता है, इसलिए उसकी मर्यादा की रक्षा का दायित्व लेता है। इतना ही नहीं, वह यह भी ध्यान रखता है कि राज्य या सरकार उसमें दखलअंदाजी ही न कर सके। इस बात की निश्चय ही प्रशंसा की जानी चाहिए कि संविधान इस मंदिर की मर्यादा की सुरक्षा देता है,  लेकिन फिर सबरीमाला मंदिर के मामले में यह सब क्यों हो रहा है? उसकी मर्यादा की रक्षा का प्रश्न तो बाद में आएगा, सबसे पहले तो यही प्रश्न है कि उस जरदोशनी मंदिर में जिसकी चर्चा स्मृति ईरानी कर रही हैं, सरकार दखलअंदाजी नहीं दे सकती, लेकिन सबरीमाला मंदिर पर तो सरकार ने कब्जा ही किया हुआ है, यह कैसे संभव हुआ? इसका उत्तर बहुत स्पष्ट है कि यह मंदिर भारत के बहुसंख्यक समुदाय का है, इसलिए सरकार इसे अपने नियंत्रण में ले सकती है। यह व्यवस्था भारत पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने तुरंत शुरू कर दी थी, क्योंकि वे यहां आने के बाद कुछ वर्षों में ही समझ गए थे कि आस्था प्रधान भारतीयों की संस्कृति की रीढ़-रज्जु ये मंदिर ही हैं। यदि इन पर कब्जा कर लिया जाए, तो भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से लकवा मारते देर नहीं लगेगी और चर्च के लिए भारत में पैर जमाना सुविधाजनक हो जाएगा। इसलिए हिंदोस्तान में सबसे पहले मंदिरों पर कब्जा मद्रास प्रेजिडेंसी में ही शुरू हुआ था, जिसमें उस समय आज का केरल भी आता था, लेकिन दक्षिण में जो भारतीय रियासतें थीं, जिनमें शासन भारतीयों का ही था, गोरे महाप्रभुओं का नहीं, इसलिए उन पर गोरे कब्जा नहीं कर सके। परंतु दुर्भाग्य से उन पर कब्जा सरकार ने तब किया, जब अंग्रेज यहां से चले गए। जाते वक्त जिनको वे सत्ता सौंप कर गए थे, उनकी आस्था भगवान अयप्पा में इतनी नहीं थी, जितनी ब्रिटिशों की रीति-नीति में। उनकी सेक्युलरवादी नीति और गोरों की चर्च नीति में कोई मौलिक अंतर नहीं था। यह उसी नीति की निरंतरता का परिणाम है कि आज अयप्पा के घर के भीतर घुस कर उससे छेड़छाड़ का साहस हो रहा है। अति शातिराना तरीके से कुछ शातिर इसे बाबा साहिब अंबेडकर द्वारा शुरू किए गए मंदिर प्रवेश आंदोलन से जोड़ने का षड्यंत्रनुमा प्रयास कर रहे हैं। दक्षिण की कुछ अंग्रेजी भाषा की अखबारों में ऐसा अभियान छेड़े हुए हैं। अंबेडकर मंदिरों की मर्यादा से छेड़छाड़ नहीं कर रहे थे, बल्कि मंदिर में जाकर पूजा के अधिकार की मांग इस आधार पर कर रहे थे, जिसे केवल जाति के आधार पर रोके रखा गया था। वह परंपरा नहीं थी, बल्कि कुछ सवर्णों की जिद थी, लेकिन अयप्पा के मंदिर में किसी को जाति के आधार पर नहीं रोका जा रहा।

वहां किसी भी जाति का व्यक्ति जा सकता है, न ही किसी को महिला होने के कारण मंदिर में जाने से रोका जा रहा है, मंदिर में महिलाएं जाती हैं, वहां प्रतिबंध आयु विशेष के कारण हैं, जिसे लोगों ने स्वेच्छा से स्वीकार किया हुआ है। जिन्हें भगवान अयप्पा में विश्वास है, उनमें आस्था है, वे इस प्रतिबंध को समाप्त करने की बात नहीं कर रहे, बल्कि वे लोग कर रहे हैं, जो अयप्पा के भक्त नहीं, बल्कि एक्टिविस्ट हैं। मंदिर पर भक्तों का अधिकार है या एक्टिविस्ट का और ये सारे एक्टिविस्ट बहुसंख्यक समुदाय के मंदिरों की ओर ही तोपें क्यों ताने रहते हैं? क्या इस देश में बहुसंख्यकों को भी अपनी आस्था के अनुसार आचरण करने का अधिकार है? परोक्ष रूप से स्मृति ईरानी ने यह प्रश्न बहुत ही साहस से उठाया है, उनके साहस को सलाम।

ई-मेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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