हिमाचल की शान हैं यहां के लोकनृत्य

By: Oct 14th, 2018 12:05 am

हिमाचल प्रदेश के किसी अखंडित नृत्य का जिक्र असंभव है। इसकी अपेक्षा हिमाचल प्रदेश के विभिन्न जनपदों में विभिन्न स्तरों पर लोक-नृत्यों की विभिन्न परंपराएं उपलब्ध हैं…

गतांक से आगे …

भाषा: प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान डा. जीए ग्रयर्सन ने भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण करते समय पहाड़ी को पूर्वी, मध्य और पश्चिमी पहाड़ी में बांटा था। पूर्वी ने नेपाली भाषा का रूप ले लिया, मध्य पहाड़ी गढ़वाली बन गई और पश्चिमी पहाड़ी जो हिमाचलीय क्षेत्रों में बोली जाती है, अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता पान के लिए लालायित है। नेपाली भाषा को भारतीय संविधान के अनुसार आठवीं अनुसूची मंे जोड़ दिया गया है। पहाड़ी भाषा का स्रोत भी ब्रज, हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी एवं गुजराती की भांति शौरसैनी अपभ्रंश है। जहां-जहां शौरसैनी अपभ्रंश पहुंचती गई, वहां की भौगोलिक परिस्थितियों ने इस पर अपनी छाप छोड़ी। पहाड़ों में पहुंचने पर पुरातन कोल, किरात और किन्नर आदि बोलियों से संपर्क होने से उनकी छाप भी इस पड़ी और मूलतः एक होने पर भी इसकी क्षेत्रानुसार अलग-अलग बोलियां बनीं। सिरमौर में सिरमौरी, क्योंथल मंे क्योंथली, बघाट में बघाटी, बाघल में बाघली, कहलूर में कहलूरी, कुल्लू में कुलवी, मंडी में मंडयाली, कांगड़ा में कांगड़ी और चंबा में चंबयाली, परंतु इन बोलियोंे का मूल एक ही है और पहाड़ी से इनका संबंध वैसा ही है, जैसा कि नदी से नालों का। नालों से ही नदी के आकार का विकास होता है। अतः इन स्थानीय बोलियों से ही पहाड़ी का विकास हुआ है। पहाड़ी की लिपि टांकरी रही है। कई राज्यों के अभिलेख टांकरी लिपि में थे और बनियां लोग अभी तक भी अपने हिसाब की बहियां लिखने में टांकरी का प्रयोग करते हैं, परंतु अब टांकरी का स्थान नागरी लिपि ने ले लिया है और पहाड़ी साहित्य का सृजन इसी लिपि में हो रहा है। पहाड़ी में देवनागरी के स्वरों की अपेक्षा कुछ अधिक स्वर है जैसे कि अ और आ के बीच का आ, ओ, औ के बीच का और, ए और एै के बीच का ऐं। इसी प्रकार व्यंजनों में भी ध्वनि भेद है जैसे कि त्स, त्श, द्स, च्य, च्श, द्ध, न्ह, च्च, च्छ आदि शब्दों का अधिकतर प्रयोग होता है।

हिमाचल में लोकनृत्य व लोक वाद्य

हिमाचल प्रदेश के किसी अखंडित नृत्य का जिक्र असंभव है। इसकी अपेक्षा हिमाचल प्रदेश के विभिन्न जनपदों में विभिन्न स्तरों पर लोक-नृत्यों की विभिन्न परंपराएं उपलब्ध हैं। प्रत्येक जनपद की लोक-नृत्य परंपरा को कला के रूप और शैली के विकास को काल और समय-समय की सामाजिक सांस्कृतिक  प्रतिमान की विशेषताओं की परतें उपलब्ध हैं, जिनके कारण यह जीवित रहे और फैलते-फूलते रहे। हिमाचल प्रदेश के लोक नृत्यों  के विभिन्न रूप समाष्टि के ही भाग हैं।


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