आत्महत्याओं का भयावह नोट

By: Nov 19th, 2018 12:05 am

मौत अपने सायों से बेहतर नहीं हो सकती और न ही इसे कायरता से कबूल किया जा सकता, फिर भी जीवन का समाहार तो मौत ही लिखती है। जीवन के संघर्ष पथ पर एक रिटायर्ड मेजर जनरल का हारना पूरे हिमाचल को चौंकाता है। आखिर किस मजबूरी में लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष व सेवानिवृत्त मेजर जनरल सीएम शर्मा ने आत्महत्या कर ली, यह प्रश्न मौत को भी खंजर की तरह कुरेदेगा। ऐसी मनहूस घटनाओं से आजिज हिमाचल अब हारते मंजर का गवाह बनने लगा, तो आयु के किस मोड़ को  उलझने से बचाएं। हर दिन आत्महत्याओं की कालिख से लिखा जा रहा यह युग इतना कमजोर क्यों होने लगा कि जिसने दुनिया को जीता, वह मेजर जनरल भी खुद को हार गया। तीन दिन पहले एक साथ चार आत्महत्याओं के कारण टटोले गए, तो वहां नासमझी या समाज की बेडि़यां मुखातिब हुइर्ं, लेकिन शिमला के रसूख में एक फौजी दिल क्यों हार गया। बुधवार दो विवाहितों तथा दो स्कूली बच्चों ने इहलीला समाप्त करके पूरे समाज को चेताया था, तो शुक्रवार संपन्नता की चादर में सुराख करके रिटायर्ड मेजर जनरल ने आत्महत्या के नोट में समाज को डराने की इबारत लिख दी। हिमाचली समाज कहीं न कहीं बिखराव, असमंजस और टूटन का शिकार होने लगा है। कहीं तो हमारे प्रगतिशील आईने टूट कर बिखरने लगे और जीवन के दबाव में रिश्तों के अरमान खोने लगे। खुदकुशी की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भले ही इस अपराध को असाधारण विकृत्ति के करीब देखे, लेकिन इन अस्थियों को बार-बार समाज क्यों उठाने लगा। अगर बच्चों के पास जीवन का त्वरित समाधान इस दिशा में राहत खोजने लगा या आत्महत्याओं के आंकड़े में औरत की शिनाख्त होती रही, तो हिमाचली समाज का विकराल चेहरा अपने रिश्तों को ही भयभीत करेगा। क्या हम तेजी से प्रगति करते हुए यह भूल रहे हैं कि जीवन समुदाय के साथ बांटने और सफलता के साथ असफलता या संघर्ष को मापने का भी है। क्या हमारे आदर्श इतने खोटे हो गए या आदर्शों और परंपराओं से हटकर हम निजी आकाश के परिंदे बनकर हर उड़ान के बाद घर-परिवार का रास्ता भूल गए। ऐसे मामलों का बढ़ना सर्वप्रथम समाज को इंगित करता है। हम जमघट के बीच यात्रा करते हुए यह भूल रहे हैं कि हर किसी का गंतव्य एक सरीखा नहीं हो सकता। विडंबना तब पैदा होती है जब सफलता भी आत्मघाती हो जाती और विफलता को समाज पीटता है। दुख यह कि भविष्य संवारने की राह पर हमने कातिल बैठा दिया और अपनी ही रेत पर लहू के कतरे बटोरने  लगे हैं। बच्चों की पीठ पर लदे सपने और  मां-बाप के गरूर को कायम रखने की शर्तें हर दम चलने को मजबूर करती हैं, अतः जब कभी सफलता का जाम जहरीला होता है तो हमारे आंगन में खिला फूल भी टूट कर मुरझा जाता है। खुदकुशी एक शब्द भर नहीं, बल्कि प्रश्नों की चिता है, इसलिए जब कभी औरत ऐसा कदम उठाती है तो मानवता के इश्तिहार फट जाते हैं। हिमाचल इतना विकराल पहले नहीं था और न ही  हमारे पालने में कभी ऐसा ख्याल घुसा था। ऐसे में पिछले कुछ सालों से बढ़ रहे आत्महत्याओं के क्रम में समाज व सरकार को बहुत कुछ सीखना होगा। आत्महत्याओं को केवल पारिवारिक परिदृश्य के बजाय सामाजिक व सांस्कृतिक अंधेरों में भी देखना होगा। लोकसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष द्वारा उठाए गए आत्मघाती फैसले की कंदराओं में हम वक्त के प्रश्न देख सकते हैं। बीमारी, लाचारी, असंगति या असंतुष्टि तक पहुंच रही मानवीय सीढि़यों की पड़ताल चाहिए। वरिष्ठ नागरिकों की उचित देखभाल तथा युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन अगर असंवेदनशील होने लगा, तो तरक्की के हर पल की कीमत इसी तरह चुकानी पड़ेगी। शिमला जैसे शहर में एक प्रतिष्ठित, कामयाब तथा प्रदेश का गौरव रहा व्यक्ति इतना अकेला कैसे हो गया,  इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना होगा। जो शख्स  हिमाचल के उच्च पदों तथा सरकारी मशीनरी के लिए मानव संसाधन पेश करता रहा, वह अपने जीवन के संघर्ष में अकेला कैसे हो गया।

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