कश्मीर में महागठबंधन नहीं

By: Nov 24th, 2018 12:05 am

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव 2019 में आम चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस संभावना को खारिज नहीं किया है। फिलहाल नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस ने राज्यपाल सत्यपाल मलिक के निर्णय को अदालत में चुनौती देने से साफ इनकार कर दिया है। नेशनल कान्फ्रेंस ने तो समर्थन का कोई औपचारिक पत्र तक राज्यपाल को नहीं सौंपा था। सरकार में भी शामिल होने का उसका कोई इरादा नहीं था। अभी पीडीपी के साथ बातचीत की पुख्ता शुरुआत भी नहीं हुई थी और अब एनसी के प्रवक्ता अली मुहम्मद सागर ने कहा है-‘पीडीपी के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा।’ लगभग ऐसा ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद का कहना था कि पीडीपी के साथ कुछ भी तय नहीं हुआ था, तो गठबंधन की बात कहां से आई? अलबत्ता पीडीपी के प्रवक्ता ठाकुर अभिजीत सिंह का यह दावा जरूर था कि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती की बात हुई थी। कांग्रेस बड़ी और नेशनल पार्टी है। आखिर जुबान की भी कोई कीमत होती है, लिहाजा उस पर यकीन किया जाना चाहिए था। एक सूत्र का दावा था कि राज्यपाल को सरकार बनाने का प्रस्ताव भेजने से पहले पीडीपी, कांग्रेस और एनसी के नेताओं की दुबई और लंदन में भी मुलाकातें हुई थीं। कौन-कौन नेता मिले थे, इसका खुलासा किसी ने भी नहीं किया है, लेकिन यह भी हकीकत का हिस्सा है कि पीडीपी में बगावत जारी थी। उसके 29 में से 18 विधायक भाजपा के संपर्क में थे। यह भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टी पीपल्स कान्फ्रेंस का दावा था। हकीकत की पुष्टि यहीं से होती है कि पीडीपी के बागी नेता इमरान अंसारी पीपल्स कान्फ्रेंस में शामिल होने का ऐलान कर चुके हैं। राज्यपाल मलिक ने भी कहा था कि परदे के पीछे सौदेबाजी चल रही थी। व्यापक खरीद-फरोख्त हो रही थी। ऐसे में विपरीत राजनीतिक विचारधाराओं वाली पार्टियों के लिए स्थिर सरकार बना पाना असंभव होता। बहरहाल जो भी सियासी समीकरण हों, लेकिन राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा विधानसभा एकदम भंग करने का निर्णय सवालिया जरूर है। बेशक जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार के पतन के 5 महीने बाद चुनाव यथाशीघ्र जरूरी हो रहे थे। पीडीपी, कांग्रेस, एनसी भी चुनाव कराने की लगातार मांग कर रही थीं। सबसे बढ़कर लोकतंत्र में चुनाव ही  अंतिम, निर्णायक कसौटी होते हैं। अब विधानसभा भंग करने के बाद 6 महीने की अवधि में ही चुनाव कराए जाने अनिवार्य हैं, लिहाजा आसार हैं कि मई, 2019 में आम चुनाव के साथ कश्मीर में विधानसभा चुनाव भी कराए जा सकते हैं। बेशक विधानसभा भंग करना भी राज्यपाल के संवैधानिक विशेषाधिकारों में शामिल है, लेकिन राज्यपाल की हड़बड़ी सवालिया हो सकती है। यह सवाल है या इसे खेल कहेंगे कि राज्यपाल आवास और दफ्तर की फैक्स मशीन खराब थी! एक संवैधानिक कार्यालय में ऐसी स्थिति कैसे हो सकती है? सवाल हो सकता है कि क्या राज्यपाल ने प्रधानमंत्री मोदी के इशारे पर यह खेल रचा था? राज्यपाल ने जो किया, क्या वह संवैधानिक तौर पर सही था? क्या कश्मीर में विपक्ष का महागठबंधन तैयार करने वाली तीनों पार्टियों ने यह रणनीति खेली थी और सरकार बनाने का प्रस्ताव पेश किया और उनकी यह घुड़की कारगर साबित हुई? बहरहाल अब जो होना था, हो चुका है। कश्मीर एक संवेदनशील, बेहद नाजुक राज्य है। पाकिस्तान पड़ोस में है और सीमापार से आतंकवाद निर्यात करता रहा है, लिहाजा जो भी निर्णय लेना है, राष्ट्रहित में सोचना जरूरी है। पीडीपी और नेशनल कान्फ्रेंस कभी न कभी भाजपा के साथ गठबंधन में रही हैं। पीडीपी-कांग्रेस और एनसी-कांग्रेस की साझा सरकारें भी जम्मू-कश्मीर में बनी हैं। राज्य पर तीन सियासी कुनबों ने हुकूमत की है-अब्दुल्ला, मुफ्ती और कांग्रेस परिवार। भाजपा पिछले चुनाव में 25 विधायकों के साथ उभरी थी, लिहाजा 2019 के आम और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर इन तीनों परिवारों में ही ‘महागठबंधन’ की गुंजाइश है। क्या कांग्रेस, पीडीपी और एनसी के बीच महागठबंधन आकार लेगा? यही आने वाले दिनों का चुनावी प्रश्न है।

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