काले धन की जड़ कहां है ?

By: Nov 22nd, 2018 12:07 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

अब समय आ गया है कि हम राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों से ही नहीं, बल्कि चुनाव आयोग से भी पूछें कि देश में चुनाव के खर्च को लेकर यह पाखंड क्यों चल रहा है? चुनाव में काले धन का प्रयोग भ्रष्टाचार की जननी है और इस पर रोक लगाए बिना काले धन की समाप्ति की बात सोची भी नहीं जा सकती। अब समाज को यह सोचना है कि चुनाव में काले धन के प्रयोग पर रोकथाम के लिए क्या किया जाना चाहिए…

चुनाव का मौसम है और शीघ्र ही हम जान जाएंगे कि पांच राज्यों में हवा का रुख क्या रहा है। विभिन्न राज्यों के इन चुनावों को अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमिफाइनल कहा जा रहा है, क्योंकि इन चुनावों के परिणाम अंततः लोकसभा चुनाव के लिए हवा बनाने का काम करेंगे। उम्मीदवार की घोषणाएं क्या होंगी, यह बहुत कुछ स्थानीय आवश्यकताओं और उस उम्मीदवार के  दल की नीतियों पर निर्भर करता है,  लेकिन चुनाव जीतने के लिए व्यावहारिक तौर पर वे क्या हरबे अपनाएंगे, यह बिलकुल अलग मुद्दा है। कोई धर्म की बात करेगा, जाति की बात करेगा, क्षेत्र की बात करेगा, लाइसेंस, कंबल, शराब या नगदी बांटेगा। मीडिया हर बार इन मुद्दों को उठाता है, लेकिन इन पर इतनी तरह से और इतनी बार चर्चा हो चुकी है कि अब इन पर बात करना फिजूल सा लगता है। सन् 2014 के चुनाव को भारतीय राजनीति का सर्वाधिक महंगा चुनाव माना गया, जहां प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पूंजीपति शुभचिंतकों की मदद से खूब खर्च किया। चौबीसों घंटे उनके लिए दो-दो हैलिकाप्टर उपलब्ध रहते थे। उनके लिए काम कर रही एक बहुत बड़ी आईटी टीम ने सोशल मीडिया मंचों पर कब्जा सा कर लिया। प्रचार में नरेंद्र मोदी ही छाए रहें, इसके लिए उनके कहे नारों से भरी टी-शर्टों, मोदी के मुखौटों तथा अन्य मर्चेंडाइज की भरमार रही। अत्यंत उन्नत तकनीक से संचालित उनकी थ्री-डी इमेज की रैलियों ने सबका ध्यान खींचा। प्रधानमंत्री न होते हुए भी उन्होंने लाल किले की नकल बनवा कर रैली की। इन सब पर अकूत धन का खर्च हुआ। इसके बाद भी विभिन्न राज्यों के चुनावों में मोदी खुद सर्वाधिक रैलियां संबोधित करते रहे। उनका कोई शो छोटे स्तर पर नहीं होता। मोदी की हर रैली और हर काम विशालतम स्तर पर ही होता है। मोदी सबसे बड़े शो-मैन हैं और कैमरे के रसिया हैं। उनकी रणनीति ऐसी थी कि पूरे चुनाव अभियान के दौरान वे छाए रहें, लेकिन प्रचार की इस महंगी दौड़ में जो धन लगा, उसका सही-सही अनुमान उनके और उनके कुछ करीबी साथियों के अलावा किसी को नहीं है। राफेल घोटाले के कारण, सीबीआई की अंदरूनी तकरार के कारण, सर्वोच्च न्यायालय में दरपेश मुकद्दमों के कारण मोदी सरकार भारी दबाव में है। हम सब जानते हैं कि इस समय भाजपा विकास की बात नहीं कर रही है। वह राम मंदिर के अपने पुराने हथियार का प्रयोग करने की जुगत में है। इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा उससे जुड़े अन्य संगठनों का प्रयोग किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय पर भी दबाव बनाने की कोशिश जारी है, हालांकि ऐसा लगता नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय और माननीय न्यायाधीश दबाव में आ ही जाएंगे। यही कारण है कि मोदी सरकार सांसत में है। सन् 2014 के चुनाव बहुत खर्चीले थे, लेकिन उसके बाद चूंकि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए, भाजपा को विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनने का खिताब मिला और मोदी के करीबी पूंजीपतियों को लगातार उनसे लाभ मिल रहे हैं। इसलिए इसमें कोई शक नहीं है कि चुनाव में विजय के लिए मोदी न केवल धर्म और मंदिर का मुद्दा चलने देंगे, बल्कि पिछले चुनाव से भी ज्यादा बड़ा धमाका करने के लिए और प्रचार में पूरी तरह से छाए रहने के लिए पहले से भी ज्यादा धन खर्च करेंगे। भारतीय राजनीति का सत्य यह है कि हर विधानसभा क्षेत्र में अकसर तीन गंभीर उम्मीदवार होते हैं। निजी बातचीत में उम्मीदवार स्वीकार करते हैं कि हर गंभीर उम्मीदवार अपने विधानसभा क्षेत्र में दस करोड़ तो खर्च करता ही है। प्रति उम्मीदवार, यह खर्च दस से बीस करोड़ के बीच होता है। यानी, अगर तीन उम्मीदवार गंभीर हैं, तो हर चुनाव क्षेत्र में तीस करोड़ तो कम से कम लगते ही हैं। इतनी बड़ी मात्रा में धन का खर्च हो, सारी दुनिया को नजर आ रहा हो, तो यह कैसे संभव है कि चुनाव आयोग इस सच को न पहचान पाए? कैसे संभव है कि चुनाव आयोग मान ले कि विजेता उम्मीदवार ने एक करोड़ से भी कम खर्च में विजय हासिल कर ली? फिर भी क्या यह अजूबा नहीं है कि ऐसा लगातार हो रहा है कि जब उम्मीदवार अपने चुनाव के खर्च का ब्यौरा चुनाव आयोग को देते हैं, तो उसमें झूठ के सिवाय और कुछ नहीं होता। यह झूठ किसी एक राजनीतिक दल तक सीमित नहीं है, सभी दल ऐसा करते हैं। फिर ऐसा क्यों है कि चुनाव आयोग इस पर कोई कार्रवाई नहीं करता? चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है। उसकी अपनी स्वायत्तता है। वह नियमों को लागू कर सकता है, प्रत्याशियों को उन नियमों के पालन के लिए विवश कर सकता है। टीएन शेषन जब मुख्य चुनाव आयुक्त बने, तो उन्होंने राजनीतिज्ञों को नियमों का पालन करना सिखा दिया। तब शेषन के कारण चुनाव आयोग खासी चर्चा में रहा। दरअसल, राजनीतिज्ञों को चुनाव आयोग की उपस्थिति का अहसास ही पहली बार हुआ। तब शेषन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि नियम तो पहले से ही थे, कोई उन्हें लागू नहीं करता था, मैंने तो सिर्फ उन्हें ईमानदारी से लागू किया है।

जो राजनीतिज्ञ दस-बीस करोड़ खर्च करके चुनाव जीतेगा, वह न केवल अपने खर्च किए हुए पैसे वसूल करेगा, बल्कि अगले चुनाव में खर्च करने के लिए भी धन इकट्ठा करता रहेगा। जब चुनाव में खर्च होने वाला पैसा छुपाकर खर्च करना हो, तो सिर्फ काला धन ही काम आ सकता है। काले धन के प्रयोग से चुनाव जीतने वाला कोई राजनीतिज्ञ काले धन पर लगाम की बात कैसे सोच सकता है? यही कारण है कि मोदी ने कारपोरेट कंपनियों को बांड के रूप में मनचाहा दान देने का कानून बनवा लिया, विदेशी फंड की जांच और जवाबदेही पर रोक लगा दी, राजनीतिक दलों को फंड का हिसाब देने से छूट दिलवा दी। अब समय आ गया है कि हम राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों से ही नहीं, बल्कि चुनाव आयोग से भी पूछें कि देश में चुनाव के खर्च को लेकर यह पाखंड क्यों चल रहा है? चुनाव में काले धन का प्रयोग भ्रष्टाचार की जननी है और इस पर रोक लगाए बिना काले धन की समाप्ति की बात सोची भी नहीं जा सकती। समाज के जागरूक नागरिकों, नीति-निर्देशकों और सभी संबंधित संस्थाओं को मिलकर यह सोचना है कि चुनाव में काले धन के प्रयोग पर रोकथाम के लिए क्या किया जाना चाहिए, ताकि काले धन और भ्रष्टाचार की जड़ पर चोट हो, नोटबंदी जैसे आधे-अधूरे तरीकों से गरीब आदमी के धन पर नहीं।

ईमेलः indiatotal.features@gmail.

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