जम्मू-कश्मीर विधानसभा का भंग किया जाना

By: Nov 24th, 2018 12:09 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

आखिर ये तीनों दल जो परस्पर विरोधी ही नहीं, बल्कि जिनके पास एक आसन पर बैठने का एक भी आधार नहीं है, इसके लिए क्यों तैयार हुए? इसका एक कारण पीडीपी और एनसी का स्थानीय निकाय चुनावों के बहिष्कार का आत्मघाती निर्णय था, जिसका एहसास उन्हें अब होने लगा है। इन दोनों दलों को लगता था कि आतंकवादी समूह बंदूक के बल पर ऐसी व्यवस्था कर लेंगे कि चुनावों में डर के कारण लोग मतदान करने के लिए न आएं…

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने राज्य विधानसभा को भंग कर दिया है। पीडीपी और एनसी उसे भंग करने की मांग पिछले पांच महीने से, जबसे भाजपा-पीडीपी की सरकार टूटी है, कर रहे थे। सोनिया कांग्रेस की भी यही मांग थी, लेकिन राज्यपाल ने उस समय उनकी मांग नहीं मानी। अब अचानक कश्मीर घाटी के तीनों राजनीतिक दल मसलन नेशनल कान्फें्रस, पीडीपी और सोनिया कांग्रेस राज्य में सरकार बनाने के लिए एकत्रित हो गए। राज्यपाल पर ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने इन तीनों दलों की एकता से घबराकर राज्य विधानसभा को ही भंग कर दिया। सरकार बनाने के लिए राज्यपाल को दो पत्र लिखे गए। पहला पत्र पीडीपी की अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती ने लिखा, जिसमें सोनिया कांग्रेस और एनसी के समर्थन की बात कही गई थी। सोनिया कांग्रेस या एनसी ने पीडीपी को समर्थन देने वाला कोई पत्र नहीं लिखा। दूसरा पत्र पीपुल्ज कान्फें्रस के अध्यक्ष सज्जाद लोन ने लिखा, जिसमें भाजपा के अतिरिक्त अठारह अन्य विधायकों के समर्थन की बात कही गई थी। सरकार बनने या चल पाने की कितनी संभावना थी, इसके बारे में तो कुछ कहना अब बदली स्थिति में अप्रासांगिक होगा, लेकिन इतना पक्का है कि कश्मीर घाटी में वह राजनीतिक खिचड़ी पकनी शुरू हो गई थी, जो एक बार राजीव गांधी की पार्टी ने सत्ता और डंडे के जोर से एनसी को राजनीतिक डाईनिंग टेबल पर बिठा कर कश्मीरियों को खिलाई थी। शेख अब्दुल्ला का राजनीतिक परिवार खुद मानता है कि उसने कश्मीर घाटी में आतंकवाद को बढ़ावा दिया।

उस वक्त राजीव गांधी के डंडे के डर से एनसी यह खिचड़ी पकाने को तैयार हो गई थी, लेकिन अब क्या भय से सोनिया कांग्रेस, एनसी और पीडीपी मिल कर यह खिचड़ी पकाना चाह रहे थे? भाजपा के महासचिव राम माधव का कहना है कि अब ये तीनों राजनीतिक दल पाकिस्तान के कहने पर यह नया राजनीतिक खेल खेल रहे थे। बाद में उन्होंने अपना यह आरोप वापस भी ले लिया और कहा कि उनकी टीका-टिप्पणी हास्य भाव की थी, गंभीर नहीं, लेकिन आखिर ये तीनों दल जो परस्पर विरोधी ही नहीं, बल्कि जिनके पास एक आसन पर बैठने का एक भी आधार नहीं है, इसके लिए क्यों तैयार हुए? इसका एक कारण पीडीपी और एनसी का स्थानीय निकाय चुनावों के बहिष्कार का आत्मघाती निर्णय था, जिसका एहसास उन्हें अब होने लगा है। इन दोनों दलों को लगता था कि आतंकवादी समूह बंदूक के बल पर  ऐसी व्यवस्था कर लेंगे कि चुनावों में डर के कारण लोग मतदान करने के लिए न आएं। कश्मीर घाटी के बारे में तो ये सोचते थे कि बंदूक से डर कर कोई व्यक्ति प्रत्याशी बनने के लिए तैयार नहीं होगा। यदि चुनावों के बहिष्कार की योजना मुकम्मल हो गई, तो उसका राजनीतिक श्रेय ये दोनों दल बटोर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

कश्मीर घाटी में खासी संख्या में लोग प्रत्याशी बने। यहां तक कि घाटी में बड़ी संख्या में मुसलमान कश्मीरी भाजपा के टिकटों पर उम्मीदवार बने। इन दोनों दलों की तो छोडि़ए, आतंकवादी भी लोगों को मतदान केंद्रों पर आने से नहीं रोक सके। घाटी के दक्षिणी हिस्सों को छोड़कर शेष हिस्सों में सम्मानजनक मतदान ही हुआ। पंचायत के चुनाव में तो मतदाताओं ने शहरी निकाय चुनावों के प्रतिशत को भी पीछे छोड़ दिया। सोनिया कांग्रेस का अनुमान था कि जम्मू संभाग के लोग भाजपा से इस कारण नाराज हैं, क्योंकि भाजपा ने पीडीपी के साथ मिल कर सरकार बनाई थी। इस कारण कांग्रेस को एक बार फिर जम्मू संभाग में पैर पसारने का मौका मिल जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शहरी निकाय चुनावों में भाजपा ने फिर परचम लहरा दिया और कांग्रेस फिसड्डी रही। कश्मीर घाटी में नेशनल कान्फें्रस को कश्मीरियों की और पीडीपी को सैयदों की पार्टी माना जाता है। सैयद भारतीय मूल के नहीं हैं, लेकिन पीडीपी और एनसी द्वारा चुनावों का बहिष्कार कर दिए जाने के कारण सज्जाद लोन की पार्टी पीपुल्ज कान्फें्रस को कश्मीर घाटी में पैर पसारने का मौका मिल गया। पीपुल्ज कान्फें्रस को भी कश्मीरियों की पार्टी ही माना जाता है। इसलिए उसके घाटी में पैर पसारने से शेख अब्दुल्ला का कुनबा खतरे में पड़जाता है। पीपुल्ज कान्फें्रस ने अपना प्रत्याशी श्रीनगर नगर निगम में महापौर बना लिया, जबकि उसको हराने के लिए पीडीपी, नेशनल कान्फें्रस और सोनिया कांग्रेस तीनों ही एकजुट हो गए थे। स्थानीय निकायों के चुनावों में कश्मीर घाटी में भाजपा की एंट्री और पीपुल्ज कान्फें्रस के प्रसार ने फारुख अब्दुल्ला के पारिवारिक कश्मीरी कुनबे और महबूबा मुफ्ती के सैयद कुनबे को संकट में डाल दिया था। इसलिए ये दोनों एकत्रित हो गए थे। जहां तक सोनिया कांग्रेस का सवाल है, उसकी राज्य में ऐसी स्थिति हो गई है कि जहां चूल्हा जलता दिखाई देता है, वह वहीं पंख फैला लेती है, क्योंकि राज्य में यदि उसको सत्ता का टुकड़ा न मिला, तो वह भूख का शिकार होकर समाप्त हो सकती है।

मान लो यह प्रयोग होने दिया जाता, तो यह राज्य की जनता से धोखा होता, क्योंकि पिछला जनादेश इस दिशा में नहीं था। पीडीपी और भाजपा के गठबंधन की सरकार को कम से कम जम्मू संभाग और कश्मीर संभाग की प्रतिनिधि सरकार तो कहा जा सकता था, लेकिन इस नए गठबंधन में तो एक भी हिंदू विधायक नहीं था। उसका क्या मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव हो सकता था, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।  इसलिए नए जनादेश के रास्ते का स्वागत ही किया जाना चाहिए।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com

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