वे लटकाते, हम बनाते हैं

By: Nov 21st, 2018 12:05 am

जिस कुंडली-मानेसर-पलवल पेरिफेरल एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी ने 19 नवंबर, 2018 को किया है, दरअसल उसे 2010 के दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों से पहले ही बन जाना चाहिए था। पहला सवाल यही है कि यह परियोजना आठ-नौ सालों तक क्यों लटकी रही? अंततः मोदी सरकार ने उसे साकार किया और उद्घाटन का फीता काटा। ऐसी एक ही परियोजना नहीं है। इस संदर्भ में लामडिंग-सिलचर लाइन, नवी मुंबई एयरपोर्ट, पटना रेल-रोड ब्रिज, अहमदाबाद-बीड लाइन, किशनगंगा परियोजना आदि कुछ के उल्लेख किए जा सकते हैं। इनकी शिलान्यास तिथि और उद्घाटन की तारीख में सालों, दशकों के फासले हैं। नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर कहीं भी नहीं थे। मई, 2004 से 26 मई, 2014 तक कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार देश में रही और डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। दूसरा सवाल यह है कि यूपीए सरकार का विजन होने के बावजूद विकास कार्यों को प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार साकार क्यों कर रही है? क्या यह लोकतंत्र की खूबसूरती या स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है कि सरकारों के फैसले निरंतर रहते हैं? यदि प्रधानमंत्री मोदी ने यूपीए सरकार की लटकी, अटकी और भटकी परियोजनाओं के औसतन 28-30 फीसदी कार्य संपन्न कराए हैं और अंततः उद्घाटन भी किए हैं, तो इस पर सोनिया गांधी ने यह टिप्पणी क्यों की है कि कुछ लोग काम करते हैं और कुछ श्रेय लेने के लिए होते हैं? यह कहकर उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की गलत तुलना करने की कोशिश की है। तीसरा सवाल यह है कि यदि परियोजनाएं यथासमय पूरी कर ली जाएं, तो क्या देश के करदाताओं का बहुमूल्य पैसा नहीं बचेगा? प्रधानमंत्री ने सोमवार को जिस एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन किया है, उसकी कीमत तीन गुना बढ़ गई है। क्या यह अतिरिक्त पैसा किसी अन्य योजना में खर्च नहीं किया जा सकता था? दरअसल कांग्रेस यह कबूल करने में संकोच क्यों करती है कि 2014 तक देश में एक खास किस्म की नीतिगत अपंगता की स्थिति रही? यूपीए सरकार के दौरान करीब 12 लाख करोड़ रुपए के घोटाले सामने आए। सुप्रीम कोर्ट को ही कोयला आवंटन के ठेके रद्द करने पड़े। यहां चौथा सवाल यह किया जा सकता है कि क्या विभिन्न स्तरीय भ्रष्टाचार ने विकास की रफ्तार को अवरुद्ध किया, नतीजतन परियोजनाओं को मूर्त रूप नहीं दिया जा सका। बेशक उद्घाटन किए गए एक्सप्रेस-वे और बल्लभगढ़ (हरियाणा) तक की मेट्रो रेल परियोजनाओं की शुरुआत यूपीए सरकार ने की थी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी भी फीता न काटते, तो अंततः नुकसान किसका होता? जाहिर है कि देश का और उसके औसत नागरिक का ही…! यदि एक्सप्रेस-वे यथासमय बनकर पूरे हो गए होते, तो कमोबेश दिल्ली और आसपास के इलाकों की हवा कम प्रदूषित होती, दूरियां सिमट जातीं, बाहर से आने वाले करीब 4 लाख वाहनों को दिल्ली के बीच से गुजर कर नहीं जाना  पड़ता, नतीजतन भयंकर जाम की स्थितियां भी न होतीं। यदि प्रधानमंत्री ने परियोजनाओं के लटकने, अटकने, भटकने की बात की है, तो कहां गलत कहा है? सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करें, तो बीते तीन सालों में करीब 33,000 किमी के राष्ट्रीय राजमार्ग बनाए गए हैं, जिन पर करीब 3 लाख करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। औसतन 27 किमी हर रोज राजमार्ग बने हैं, जबकि 2014 तक यह औसत 12 किमी था। देश में बुनियादी ढांचे का बिछता हुआ जाल नंगी आंखों से ही देखा जा सकता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के चारों तरफ 270 किमी सड़कों का नेटवर्क बिछ गया है। अब लाखों ट्रक दिल्ली के बाहर से ही गुजर जाएंगे, तो अनुमान है कि 20 फीसदी प्रदूषण कम होगा। फासले इतने सिमट जाएंगे कि 135 किमी का एक्सप्रेस-वे 90 मिनट में पार किया जा सकेगा। कुंडली से पलवल जाने में पहले 3-4 घंटे लगते थे। अब ईस्टर्न और वेस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेस-वे भी आपस में जुड़ गए हैं। यह पारदर्शी नीतियों और तय लक्ष्यों पर काम करने की मानसिकता का ही फल है। अभी मोदी सरकार ने भी अपने कई संकल्प पूरे करने हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में एम्स जैसे अस्पताल बनने शेष हैं, अभी स्मार्ट सिटी भी बनने हैं, मां गंगा को भी निर्मल और अविरल किया जाना है, देश के पहाड़ी इलाकों में भी रेल का अपेक्षित विस्तार किया जाना है, लेकिन इन पर सवाल तब किए जा सकते हैं, जब काम न किया जा रहा हो। चूंकि मोदी सरकार की ‘टैग लाइन’ सबका साथ, सबका विकास में नीयत साफ है। यदि नीयत स्पष्ट है और नीतियों में ठहराव नहीं है, तो यह नारा भी एक दिन साकार दिखाई देगा। यह भरोसा किया जाना चाहिए।

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