सीबीआई की अंदरूनी घातक लड़ाई

By: Nov 2nd, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

जैसी कि आशा थी, कोर्ट इस केस को अपने हाथ में लेकर बहुत खुश हुई और उसने तुरंत सुनवाई की इजाजत दी। उसने आदेश दिया कि सीबीआई निदेशक के खिलाफ जांच का काम एक पखवाड़े में पूरा कर लिया जाना चाहिए तथा इस काम के लिए उसने सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के पर्यवेक्षण की पेशकश की। अब वास्तविक रूप से यह सारा मामला सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में है। यह केस एक ऐतिहासिक मामला बनने जा रहा है…

पिंजरे में बंद तोते पिंजरे के भीतर दिखावटी रूप से नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे हैं। अब लोग भली-भांति यह जानते हैं कि पिंजरे में बंद तोते कौन हैं। पहली बात, यह सुप्रीम कोर्ट का विचार था कि सीबीआई पिंजरे में बंद एक तोता है। इसमें कोर्ट का इरादा यही दिखाना था कि सरकार इस संस्था को आजादी या स्वायत्तता देने के लिए तैयार नहीं है। यह सच बात है कि सभी सरकारें इस जांच एजेंसी को नियंत्रित करती रही हैं तथा उसके पास कोई स्वायत्तता नहीं है। इस प्रक्रिया में करण-कार्य संबंध सत्य है। जांच एजेंसियां अपने कार्य संचालन में राजनीतिक हैं तथा उनमें भ्रष्टाचार भी है जिसके कारण वे सत्ताधीशों के इशारे पर नाचती हैं, जबकि निष्पक्ष न्याय के लिए काम करने की भावना कहीं पीछे छूट जाती है। सीबीआई के निदेशक को अपना काम स्वतंत्रतापूर्वक निपटाने तथा दबाव से रहित होने के लिए उनकी सेवाओं को दो साल की सुरक्षा मिली हुई है। इसके बावजूद निदेशक ने विशेष निदेशक, जो कि पद क्रम में उनके बाद आते हैं, पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए पांच करोड़ रुपए लेकर केस को प्रभावित करने का आरोप लगाया। उन्होंने अपने जूनियर विशेष निदेशक पर यह काम करने के लिए तीन से पांच करोड़ रुपए वसूल करने का आरोप लगाया।

यह किंग सुलेमान की कहावती असमंजस वाली स्थिति है जिसे दो परस्पर विरोधी दावों के बीच सत्य का पता लगाने का जिम्मा सौंपा गया था। दुर्भाग्य से मोदी ऐसे राजा नहीं हैं जिनके पास तलवार की सुविधा हो ताकि उस बच्चे को काटा जा सके जिस पर दो महिलाओं ने दावा कर रखा हो। इसलिए उन्होंने वही किया जो एक शुचिता वाले नेता को करना चाहिए था अर्थात दोनों अफसरों को हटा दिया तथा केस का निपटारा करने का जिम्मा तीसरे अधिकारी को सौंप दिया। केंद्रीय सतर्कता आयोग प्राकृतिक विकल्प है क्योंकि यह सीबीआई की कार्यप्रणाली का पर्यवेक्षण करता है। इसी बीच सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा सुप्रीम कोर्ट में चले गए हैं ताकि उन्हें हटाने के गैर-कानूनी आदेशों से उन्हें राहत मिल सके। जैसी कि आशा थी, कोर्ट इस केस को अपने हाथ में लेकर बहुत खुश हुई और उसने तुरंत सुनवाई की इजाजत दी। उसने आदेश दिया कि सीबीआई निदेशक के खिलाफ जांच का काम एक पखवाड़े में पूरा कर लिया जाना चाहिए तथा इस काम के लिए उसने सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के पर्यवेक्षण की पेशकश की। अब वास्तविक रूप से यह सारा मामला सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में है। यह केस एक ऐतिहासिक मामला बनने जा रहा है क्योंकि सीबीआई में इस तरह की अंदरूनी लड़ाई पहले कभी नहीं देखी गई। इससे पहले कभी कोर्ट को भी इस तरह के युग निर्माता फैसले लेने का अवसर नहीं मिला था।

इस मामले में चाहे कोई भी फैसला आए, यह समझने की सख्त जरूरत है कि ऐसा क्या हुआ तथा इस तरह की पेचीदा परिस्थितियां क्यों पैदा हुईं। रहस्यात्मक यह है कि यह स्थितियां हैदराबाद के एक मछली व्यापारी से संबंधित मामले को लेकर उत्पन्न हुईं जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। इस मामले के केंद्र में यही मसला है। यह व्यापारी आयकर के एक मामले का सामना कर रहा है। आयकर की राशि करीब 200 करोड़ बताई जा रही है तथा उस पर कई दफा आयकर विभाग ने छापेमारी भी की। मोईन कुरैशी नाम का यह व्यापारी अपने कारनामों के लिए कुख्यात है तथा दिल्ली स्थित सत्ता के गलियारों में उसकी बड़े-बड़ों तक पहुंच बताई जाती है। यह मेरी बदकिस्मती है कि एक बार मुझे उसे सिक्योरिटी जोन से बाहर निकालना पड़ा था क्योंकि वह एक कैबिनेट सचिव के साथ अनधिकृत ढंग से इसका प्रयोग कर रहा था। किसी ने भी यह अपेक्षा नहीं की थी कि इतना शक्तिशाली होते हुए भी उसे बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाएगा। लेकिन मैं जानता हूं कि वह काफी शक्तिशाली है। खाड़ी के देशों में उसके कई संसाधन हैं तथा मनी लांडरिंग गतिविधियों में भी उसकी भूमिका रही है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न गौण है कि वर्मा भ्रष्ट हैं या अस्थाना। पूरी प्रणाली ही भ्रष्ट लगती है जो ईमानदार अधिकारी को निकाल बाहर फेंकती है तथा यह प्रणाली विकृत ढंग से काम कर रही है। उन दिनों इतने बुरे हाल नहीं थे तथा मैं सीबीआई के अधिकतर प्रमुखों को जानता हूं। अन्य एजेंसियों को भी मैं जानता हूं क्योंकि मैंने भी दिल्ली में सरकार के साथ काम किया है। हम जानते थे कि कौन भ्रष्ट था तथा यह बिरला ही मौका होता था कि ऐसा व्यक्ति ज्यादा दिनों तक टिकता था। भ्रष्टाचार केवल निचले स्तर पर था तथा हमारे पास कई ईमानदार अधिकारी थे। प्रणाली धन के लालच से प्रभावित होनी इंदिरा गांधी के बाद शुरू हुई। सत्ता में जो लोग थे, उनका ध्येय केवल पैसा बनाना रह गया। इसने भ्रष्टाचार व मनी लांडरिंग को बहुत आकर्षक बना दिया। जिन एजेंसियों को भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का जिम्मा था, उनमें ईमानदारी खत्म होने लगी। सुप्रीम कोर्ट पहले भी कह चुकी है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी के गठन के लिए कानून लाया जाना चाहिए, परंतु किसी भी पार्टी की सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। जब वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार कानून पारित किया गया, तो सीबीआई को इस दायरे से बाहर रखा गया।

जब सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि सीबीआई बंद पिंजरे में कैद एक तोता है, तो उसे खूब लोकप्रियता मिली, किंतु अपने क्रांतिकारी रुख के बावजूद उसने भी इस एजेंसी के स्वतंत्र कार्य संचालन की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। अब वास्तविक रूप से सीबीआई का मामला सुप्रीम कोर्ट के हाथों में है, उसी तरह जिस तरह उसने धार्मिक मामलों में भी हस्तक्षेप किया है। तब तक कुछ भी संभव नहीं होगा जब तक कार्यपालिका एक स्वतंत्र तथा उत्तरदायी निकाय का प्रस्ताव नहीं करती है। भारत में भी अमरीका की तरह शक्तियों के पृथक्कीकरण के लिए संविधान में व्यापक बदलाव किया जाना चाहिए ताकि किसी एक ही संस्था के पास शक्तियों का केंद्रीयकरण न हो जाए। कोर्ट में नियुक्तियों के लिए जिस कालेजियम सिस्टम का भारत अनुशीलन कर रहा है, वह भी दोषपूर्ण है। उत्तरदायित्व के नए प्रस्तावित विधान, जिसे कोर्ट ने अवरुद्ध कर दिया है, में इसका उपचार भी है। पारदर्शिता व न्याय कौन चाहता है?

 ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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