सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक जवाबदेही कहां है ?

By: Nov 30th, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

कोर्ट के पास सभी शक्तियां हैं तथा वह यह जान सकती है कि किसने गोपनीयता के आदेशों का उल्लंघन किया और वह दंड भी दे सकती है। यह करने के बजाय कोर्ट ने झुंझलाहट का परिचय दिया तथा मुकदमेबाजों के वकील की प्रशंसा करना शुरू कर दिया। शिकायतकर्ताओं के वकील की प्रशंसा करने की क्या जरूरत थी, जबकि ऐसा करने से स्पष्ट रूप से कोर्ट का झुकाव दिखता है अथवा उस पर पक्षपाती होने के आरोप भी लग सकते हैं। इससे भी अधिक क्या यह अवसर शिकायतकर्ता के वकील की प्रशंसा का उचित अवसर था जो कि पीडि़त या कोर्ट का कोपभाजन था…

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो भ्रष्टाचार के दलदल में है तथा इसके दो बड़े अधिकारियों द्वारा एक-दूसरे पर लगाए गए व्यापक भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इस संस्था की विश्वसनीयता पर संकट खड़ा हो गया है। चूंकि सरकार ने दोनों अधिकारियों को जबरन छुट्टी पर भेज दिया था, इसलिए यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है। कोर्ट ने सीबीआई का सारा काम छीन लिया है तथा निर्देश दिए हैं कि किसे तबदील किया जाए और किसे नहीं। दो बड़े अधिकारियों की अनुपस्थिति में क्या इंतजाम किए जाने चाहिए तथा अब जिन्हें संस्था का प्रभार सौंपा गया है, उन्हें किन शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए? इस मामले में नवीनतम घटना यह है कि  सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा ने जो जवाब कोर्ट में दायर करना था, वह मीडिया में लीक हो गया, जबकि कोर्ट के निर्देश थे कि इस मामले में गोपनीयता बरती जाए। इसके कारण कोर्ट काफी नाराज हो गया तथा उसने मामले की सुनवाई से इनकार करते हुए मुकदमेबाजों को दरकिनार करते हुए केस की सुनवाई के लिए 29 नवंबर की तारीख तय कर दी। बाद में उसके रुख में थोड़ी नरमी आई तथा शाम के समय मामले की सुनवाई की। सुनवाई से पहले कोर्ट ने शिकायतकर्ता के वकील फली नरीमन की प्रशंसा की तथा उन्हें लीगल सर्कल में अत्यधिक विलक्षण व्यक्ति बताया। मैंने कभी यह नहीं सोचा कि सुप्रीम कोर्ट, जिसे मैं सर्वोच्च मानता हूं, को इस तरह की झल्लाहट का परिचय देना चाहिए। ऐसी स्थिति में आपा खो जाने से काम नहीं चलेगा तथा यह कहना भी ठीक नहीं है कि कोई भी सुनवाई का पात्र नहीं है।

कोर्ट के पास सभी शक्तियां हैं तथा वह यह जान सकती है कि किसने गोपनीयता के आदेशों का उल्लंघन किया और वह दंड भी दे सकती है। यह करने के बजाय कोर्ट ने झुंझलाहट का परिचय दिया तथा मुकदमेबाजों के वकील की प्रशंसा करना शुरू कर दिया। शिकायतकर्ताओं के वकील की प्रशंसा करने की क्या जरूरत थी, जबकि ऐसा करने से स्पष्ट रूप से कोर्ट का झुकाव दिखता है अथवा उस पर पक्षपाती होने के आरोप भी लग सकते हैं। इससे भी अधिक क्या यह अवसर शिकायतकर्ता के वकील की प्रशंसा का उचित अवसर था जो कि पीडि़त या कोर्ट का कोपभाजन था। विश्व में सर्वोच्च न्यायालय के पास इतनी शक्ति कहां है कि कोई उस पर सवाल भी न उठा सके। इससे पहले चार न्यायाधीश, जिनमें सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मीडिया में गए थे तथा बच्चों की भांति रिरियाना शुरू कर दिया था। न्यायालय कुछ भी कर सकते हैं क्योंकि उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। उनकी नियुक्तियां व तबादले बिना किसी दूसरे की स्वीकृति के उनके द्वारा ही किए जाते हैं। यह भी अजीब बात है कि न्यायिक जवाबदेही विधेयक अभी भी लटका हुआ है तथा सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों की नियुक्ति का निर्बाध अधिकार प्रयोग कर रहा है। पूरे विश्व में कहीं भी ऐसी प्रणाली नहीं है जहां न्यायालय स्वयं ही न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा तबादले करते हों। यह यूपीए के शासनकाल की बात है जब इस अतर्कसंगत प्रणाली को ठीक करने के लिए बड़े स्तर पर विचार-विमर्श हुआ था।

उस समय एक विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था जिसे सभी पक्षों की स्वीकृति मिल गई थी। इस विधेयक को लोकसभा व राज्यसभा ने पारित कर दिया था। चूंकि यह एक संवैधानिक संशोधन विधेयक था, इसलिए इसे सभी राज्यों के विचारार्थ तथा उनकी स्वीकृति के लिए भेजा गया था। 19 राज्यों ने इसे अपनी स्वीकृति दी थी तथा राष्ट्रपति ने भी इस पर सहमति दे दी थी। एक प्रधानमंत्री चुन कर आता है तथा वह निर्वाचकों के प्रति जवाबदेह होता है। निर्वाचक उसे दोबारा चुनने से इनकार कर सकते हैं तथा उससे सवाल भी कर सकते हैं। वह विधानपालिका के अलावा दर्जनों एजेंसियों के प्रति जवाबदेह होता है जिनमें सतर्कता विभाग तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाएं शामिल हैं। इसी तर्ज पर न्यायालयों को भी जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। अमरीका की तरह का शक्तियों का पृथक्कीकरण नियंत्रण व संतुलन का बेहतर उपाय उपलब्ध करवाता है। अमरीका में लोकतंत्र के तीनों अंग, नामतः विधानपालिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका एक-दूसरे पर कुछ हद तक अंकुश रखते हैं, वे जवाबदेह होकर काम करते हैं तथा उनके पास हद से ज्यादा शक्तियां भी नहीं होती।

प्रसिद्ध लेखक व विचारक भानु धमीजा ने अपनी किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्स प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ में भारत के लिए इस प्रणाली की जोरदार वकालत की है। यहां तक कि कैनेडा की संवैधानिक व्यवस्था में भी न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सिफारिश पर गवर्नर जनरल द्वारा की जाती है। वह नामों का पैनल कानून मंत्री से प्राप्त करता है। यह अब समीचीन समय है जब न्यायिक जवाबदेही कानून को पारित किया जाना चाहिए अथवा राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर पूरा संविधान ही बदल दिया जाना चाहिए। लेकिन दुख का विषय यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अतर्कसंगत तरीके से अपनी स्वेच्छाचारी शक्तियों को संरक्षित कर लिया है। वह स्वयं न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है तथा इसके बाद इस पर कोई अपील नहीं रह जाती है। क्या न्यायिक जवाबदेही की दिशा में कानून निर्माण पर अवरोध पैदा करके स्वेच्छाचारी शक्तियों का अपने ही तरीके से प्रयोग कोई तर्कसंगत बात है? प्रस्तावित कानून में यह जरूरी किया गया है कि न्यायाधीशों को भी अपनी आय व संपदा की घोषणा करना अनिवार्य बनाया गया है। इस विधान को संसद के दोनों सदन पास कर चुके हैं तथा सभी दलों ने इसके पक्ष में मतदान भी किया था। चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए देश के 19 राज्य भी इसे अपनी स्वीकृति दे चुके हैं।

इसके बावजूद कोर्ट ने इसे ‘अल्ट्रावाइर्स’ माना है तथा इस पर रोक लगा दी है। आज इस बात की सख्त जरूरत है कि नियंत्रण व संतुलन के सिद्धांत को प्रभावी बनाया जाए तथा इस संबंध में विधान पास किया जाए। अगर जरूरत पड़े तो इसी विधेयक को संशोधित किया जा सकता है, किंतु आश्चर्यजनक बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों में से एक, नामतः न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने इसके पक्ष में मतदान किया है। निष्पक्षता व न्याय की भावना से उन्होंने इसके पक्ष में मतदान किया है।

 ई-मेल : singhnk7@gmail.com

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