हिमालयी राज्यों के लिए महत्त्वपूर्ण समाचार

By: Nov 22nd, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

परिषद पांच कार्य समूहों की रपट के आधार पर कार्रवाई बिंदु तय करेगी और हिमालयी राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा हिमालय क्षेत्र में विकास के टिकाऊ मॉडल को क्रियान्वित करने और अनुश्रवण करने में सहायता करेगी। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि परिषद को अपनी भूमिका निर्वहन के लिए पर्याप्त शक्तियां भी दी जाएंगी…

नीति आयोग ने नवंबर मास में ‘हिमालयी राज्य क्षेत्रीय परिषद’ का गठन करके एक तरह से हिमालय वासियों की समस्याओं और संभावनाओं को मैदानी क्षेत्रों से अलग दृष्टिकोण से देखने की उम्मीद और मांग को मान्यता देने की पहल की है। इसका खुले दिल से स्वागत तो किया ही जाना चाहिए, क्योंकि हिमालय की प्राकृतिक स्थिति बहुत संवेदनशील है और इसकी कुछ विशेषताएं हैं, जिनका ध्यान रखे बिना किया जाने वाला हर विकास कार्य हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितिकीय व्यवस्था को हानि पहुंचाने का कारण बन जाता है और भले के नाम पर किया जाने वाला कार्य भी उल्टा पड़ जाता है, जिसकी कीमत हिमालय वासियों के साथ-साथ पूरे देश को भी हिमालय से प्राप्त होने वाली पर्यावरणीय सेवाओं में बाधा और हृस के रूप में चुकानी पड़ती है। 1992 में भी डा. एसजेड कासिम की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया गया था, जिसकी संस्तुतियां भी हिमालयी राज्यों की पारिस्थिक अवस्था के आधार पर बनी थीं, किंतु उसके बाद जो उस विकास की वैकल्पिक सोच को जमीन पर उतारने के लिए संस्थागत व्यवस्था खड़ी करने के सुझाव दिए गए थे, वे लागू नहीं हो सके और बात एक रपट तक ही सिमट कर रह गई। इस बार नीति आयोग ने 2017 में पांच कार्य समूह विभिन्न मुद्दों को लेकर बनाए थे, जिनकी रिपोर्ट अगस्त 2018 में आने के बाद यदि कुछ महीनों के भीतर ही हिमालयी क्षेत्रीय परिषद का गठन कर दिया गया है, तो माना जा सकता है कि सरकार इस दिशा में कुछ गंभीर है। वरिष्ठ वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के डा. वीके सारस्वत इस परिषद के अध्यक्ष बनाए गए हैं।

परिषद पांच कार्य समूहों की रपट के आधार पर कार्रवाई बिंदु तय करेगी और हिमालयी राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा हिमालय क्षेत्र में विकास के टिकाऊ मॉडल को क्रियान्वित करने और अनुश्रवण करने में सहायता करेगी। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि परिषद को अपनी भूमिका निर्वहन के लिए पर्याप्त शक्तियां भी दी जाएंगी, जो पांच कार्य समूह बनाए गए थे, उनको निम्न मुद्दों पर अपनी विशेषज्ञ रिपोर्ट देने को कहा गया था-1. जल स्रोत, जलागम के प्रबंधन द्वारा जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना। 2. टिकाऊ पर्यटन की व्यवस्था खड़ी करना। 3. झूम खेती के विकल्पों से पूर्वोत्तर राज्यों में कृषि की टिकाऊ व्यवस्था खड़ी करना। 4. हिमालयी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त कौशल विकास और उद्यमिता सशक्तिकरण। 5. जानकारी आधारित निर्णय प्रक्रिया के लिए आंकड़ों और सूचनाओं का संग्रह।

हिमालयी क्षेत्रीय परिषद  आपदा प्रबंधन, ऊर्जा,  ढांचागत विकास, परिवहन, वन, जैव विविधता, शहरीकरण, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि प्रमुख क्षेत्रों के विषयों में भी आकलन प्रस्तुत कर सकेगी, जिसके आधार पर हिमालय क्षेत्रों में टिकाऊ विकास के लिए दिशा-निर्देश और रूपरेखा विकसित की जाएगी। हिमालय में टिकाऊ विकास के लिए खतरे या रुकावटों को यदि चिन्हित करने का प्रयास किया जाए, तो स्पष्ट होगा कि पांच कार्य समूहों के अतिरिक्त ऊर्जा, ढांचागत विकास, सड़कें, परिवहन और पर्यावरण विनाशक उद्योग टिकाऊ विकास को दिग्भ्रमित करने वाले मुख्य कारक रहे हैं। इनको संज्ञान में तोला गया है, किंतु अच्छा होता यदि इनके लिए भी अलग-अलग विशेष कार्य समूह बनाकर विशेषज्ञ संस्तुतियां प्राप्त कर ली जातीं। हिमालय में बड़ी, चौड़ी सड़कें अपने साथ भारी तबाही ले कर आती हैं। आवागमन की सुविधा में सुधार की खुशी उसके कारण होने वाली तबाही को भुला देती है। हिमालय में यदि सड़कें कट एंड फिल विधि से बनाई जाएं, तो 30 फीसदी तक खर्चों में वृद्धि तो होगी, किंतु निर्माण कार्य के दौरान होने वाली तबाही से बड़ी हद तक बचा जा सकता है। सड़कों के विकल्प के रूप में कुछ जगहों पर रोप-वे या मोनो रेल जैसे विकल्पों पर भी सोचा जाना चाहिए। इसी तरह ऊर्जा के क्षेत्र में हिमालय में जल विद्युत का दोहन जिस स्तर और तकनीक से किया जा रहा है, उससे बनावटी झीलों के कारण होने वाले मीथेन उत्सर्जन के कारण स्थानीय स्तर पर वायुमंडल के तापमान में वृद्धि हो रही है। सुरंगों से जल स्रोत सूख रहे हैं और नदी घाटी स्तर पर पारिस्थितिकीय व जलवायु में  बदलाव आ रहे हैं। 5 मेगावाट तक माइक्रो हाइडल का दर्जा देकर छोटे-छोटे नालों पर भी भारी तोड़फोड़ की जा रही है। कई जगह छोटी खड्डों और नालों पर बनने वाले इन माइक्रो हाइडल परियोजनाओं से लोगों के पानी के अधिकारों का हनन हो रहा है और सिंचाई व पेय जल के लिए टकराव की स्थितियां बन जाती हैं। जल विद्युत दोहन के लिए 1 मेगावाट से नीचे की परियोजनाओं को ही मान्यता मिलनी चाहिए। वोरटेक्स तकनीक और हाइड्रो काइनैटिक तकनीकों को भी विकल्प के तौर पर परखा जाना चाहिए, जिनमें पनचक्की जितने प्रपात पर या उससे भी छोटे प्रपात पर बिजली बनाई जा सकती है। हाइड्रो काईनैटिक तकनीक में तो बहते हुए पानी में तैरते प्लैटफार्म से टरबाइन जोड़कर ही बिजली बनाई जा सकती है। इस तकनीक का प्रयोग समुद्र की लहरों से भी बिजली बनाने के लिए किया जा सकता है। सौर ऊर्जा पर भी विशेष काम करने की जरूरत है। हालांकि सौर ऊर्जा को काफी बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा रहा है, फिर भी हिमालय के लिए विशेष व्यवस्था की जरूरत है।

पर्वतीय प्रदेशों की सरकारें आर्थिक संसाधनों के दबाव के चलते कई बार अवांछित या पर्यावरण के विनाशक तरीकों से भी आय की आशा में फैसले कर लेती हैं, जिन पर अंकुश वैकल्पिक व्यवस्थाओं को प्रोत्साहन देकर ही लग सकता है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हिमालयी राज्य क्षेत्रीय परिषद ऐसे जरूरी मुद्दों पर विशेषज्ञ कार्य समूह बना कर मुख्य धारा की विकास अवधारणाओं से हटकर हिमालय के लिए उपयुक्त तकनीकों का प्रचालन करवाने में मुख्य भूमिका निभा सकेगी। परिषद को चाहिए कि इस क्षेत्र के अनुभवी लोगों को जोड़ कर आगे बढ़ने की संस्कृति को अपनाकर कार्य करे।

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