कद्दावर नेता के हाथ हो शक्ति

By: Dec 19th, 2018 12:07 am

डा. वरिंदर भाटिया

पूर्व कालेज प्रिंसीपल

देश के सामने व्यक्तिवाद के मुकाबले ज्वलंत आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का प्रभावशाली समाधान करने वाला लोकतंत्र 2019 में सामने आना प्राथमिकता होगी। राहुल गांधी या कोई और लोग देश को संभाल सकेंगे या नहीं, यह बहस अभी बेमानी है और एक अच्छा विचार है कि हर काबिल नेता को देश को आगे ले जाने का मौका मिलना चाहिए, परंतु जन समर्थन तो उस लोकतांत्रिक शक्ति के पास ही जाए, जिसके पास देश की समस्याओं के कुचक्र से लड़ने की क्षमता हो…

देश के तीन राज्यों में हाल ही में हुए चुनावों के बाद काग्रेस पार्टी ने सत्ता संभाल ली है। चुनावों के परिणामों ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए एक तरह से संजीवनी का कार्य किया है, वहीं अब यह चर्चा भी जोरों पर है कि क्या राहुल गांधी 2019 में प्रधानमंत्री मोदी का विकल्प साबित हो सकते हैं या नहीं, इसी कड़ी में डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का नाम 2019 के चुनावों में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया है। चेन्नई में विपक्ष के कार्यक्रम में स्टालिन ने कहा ‘राहुल के अंदर फासीवादी मोदी सरकार को हराने की क्षमता है, हम सभी को राहुल गांधी का साथ देना चाहिए और देश को बचाने में उनकी मदद करनी चाहिए’। गौरतलब है कि राहुल गांधी और उनकी मां व यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद पहली बार डीएमके के संस्थापक एम करुणानिधि की प्रतिमा के अनावरण समारोह में शामिल हुए।

इस कार्यक्रम में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भाजपा सरकार पर प्रहार करते हुए कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट और आरबीआई जैसी संस्थाओं को ‘नष्ट’ नहीं होने देंगे, सरकार समझती है कि ‘केवल एक विचारधारा से देश को चलना चाहिए’। कार्यक्रम में तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) सुप्रीमो और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू सहित विपक्ष के कई नेता शामिल हुए। राहुल गांधी के देश को नेतृत्व देने के विचार का खुद ही पार्टी के शीर्ष नेता गुलाम नवी ने भी खंडन किया है, परंतु यह राजनीतिक बहस 2019 के चुनाव में सब वोटरों के लिए मायने रखती है। इसी संदर्भ में कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अमरीकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की विवेचना कर मुख्य कारणों की एक फेहरिस्त तैयार की है कि आखिर मोदी खेमे को इन चुनावों में हार का सामना क्यों करना पड़ा। न्यूयार्क टाइम्स ने भारतीय वोटर्स के पैटर्न को समझने की कोशिश की है और बताया है कि मौजूदा मोदी सरकार को इन नतीजों से क्या सबक लेने चाहिएं। कुछ लोगों ने इस विवादित लेख का लब्बोलुआब लिखा है कि ‘भारतीय वोटर बेहद संकीर्ण मानसिकता के हैं, जो हमेशा शिकायत करते रहते हैं, साथ ही उन्हें अपनी समस्याओं के हल तुरंत चाहिए, वे लंबी योजनाओं में विश्वास नहीं करते। भारतीयों की नजर में हर कार्य सरकार का है और उन्हें अपनी समस्याओं के ‘लांग टर्म हल’ नहीं चाहिए। भारतीयों की याद्दाश्त कमजोर है और उनका दृष्टिकोण बहुत ही संकीर्ण, वे पुरानी बातें भूल जाते हैं और नेताओं की पिछली गलतियों को माफ कर देते हैं। भारतीय ढीठ होकर जातिवाद पर वोट करते हैं, जातिवाद एक मुख्य शत्रु है, जो युवाओं का उत्थान नहीं होने देता और उन्हें बांटता है। चीन और पाकिस्तान में जातिवाद फैलाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि दोनों ही जीडीपी के  लिए भारतीय बाजार पर निर्भर हैं। लोगों को सस्ता डीजल चाहिए, कर्ज माफी चाहिए, लेकिन ‘सबका साथ, सबका विकास’ वह नहीं जानते। वे सिर्फ अपनी पॉकेट में आए धन को जानते हैं। इस लेख के अंत में लिखा है कि नरेंद्र मोदी ने बतौर पीएम बहुत काम किया है, लेकिन भारत के लोग उनके काम की प्रशंसा नहीं कर रहे हैं। कुछ लोगों ने इस लेख की सत्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं, लेकिन बात यह भी है कि आदर्शवाद के चश्मे लगा कर हम में से बहुत इसमें लिखी बातों का समर्थन नहीं कर पाएंगे, न ही इसमें छिपे हुए यथार्थवाद को हम पूरी तरह झुठला पाएंगे। आम आदमी 2019 के चुनाव में नामवाद को लेकर ज्यादा उत्साहित प्रतीत नहीं हो रहा है। उसके लिए देश का नेतृत्व कोई भी अपने हाथ में ले, प्राथमिकता तो वहीं मिलेगी जहां इसकी रोजगार, गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी भयावह समस्यायों का हल नजर आएगा। एशिया प्रशांत क्षेत्र के अन्य देशों के मुकाबले काम की तलाश में देश से बाहर जाने वालों की तादाद भारत में सबसे अधिक है। इन चीजों के हल निकालने होंगे। विश्व स्तर के सूचित मानव संसाधन इंडेक्स में भारत की स्थिति आज भी असंतोषजनक ही नहीं, अपितु लज्जाजनक दृष्टिगत होती है। आजादी के 71 साल बाद भी देश के समक्ष अनेक भयावह समस्याएं विकास के सोपानों को मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। हिंदुस्तान के गरीब खेतिहर किसान, मजदूर, आम आदमी को जिस प्रकार बुनियादी सुविधाओं का टोटा विद्यमान है, वह हमारे मौजूदा विकास के ढांचे को कदाचित मुंह चिढ़ाता हुआ नजर आता है। एक ओर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक जनरल्स और ग्रेडिंग संस्थानों की रिपोर्ट्स में भारत में करोड़पतियों और अरबपतियों की बढ़ती संख्या का गौरवगान प्रकाशित होता है, वहीं दूसरी ओर सैकड़ों किसानों की अप्रत्याशित आत्महत्याओं की खबरों से देश शर्मसार होता है। छोटे-छोटे कर्जों की भरपाई न कर पाने या फसल बर्बाद हो जाने के कारण आज भी सीमांत और छोटा किसान लाचार नजर आता है। देश में लाखों की संख्या में असंगठित मजदूरों की हालत का कोई पुरसाहाल नहीं है। आतंकवाद का खतरा, बढ़ती आर्थिक असमानता, भीषण बेरोजगारी, गंभीर भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद, जातीय उन्माद, धर्मांधता, सामाजिक असुरक्षा, महिला उत्पीड़न, बालश्रम, सांस्कृतिक व जीवन मूल्यों का गंभीर क्षरण, बढ़ती नशाखोरी, अपसंस्कृति का घुलता जहर, पाश्चात्य विसंगतियों का अंधानुकरण,  सरकारी बुनियादी शिक्षा, सिस्टम की दुर्दशा, विधायिका से जुड़े कर्णधारों का अपराध में लिप्त होना, मौजूदा चुनाव प्रणाली की कमियों और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय दशा के साथ ही पीने के पानी की अनुपलब्धता, लैंगिक विभेद, बलात्कार की भयावह घटनाओं की बाढ़ जैसी अनगिनत समस्याओं के बीच दिशाहीन भविष्य के कुहासे के बीच आम आदमी लोकतंत्र के चक्रव्यूह में जैसे घिर कर रह गया है। भारतीय लोकतंत्र के चारों प्रमुख स्तंभों यथा विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस में भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है। सरकारों के कार्यालयों में भ्रष्टाचार एक कार्य संस्कृति बन चुका है।

शिक्षण संस्थाओं, सरकारी चिकित्सालयों,  बुनियादी सुविधाओं से जुड़े सभी महकमों में आम आदमी भ्रष्टाचार के चलते त्राहि-त्राहि करता नजर आता है। देश के सामने व्यक्तिवाद के मुकाबले ज्वलंत आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का प्रभावशाली समाधान करने वाला लोकतंत्र 2019 में सामने आना प्राथमिकता होगी। राहुल गांधी या कोई और लोग देश को संभाल सकेंगे या नहीं, यह बहस अभी बेमानी है और एक अच्छा विचार है कि हर काबिल नेता को देश को आगे ले जाने का मौका मिलना चाहिए, इससे किसी को इनकार न होगा, परंतु असल में, जन समर्थन तो उस लोकतांत्रिक शक्ति के पास ही जाए, जिसके पास देश की समस्याओं के कुचक्र के बुरे प्रभावों से लड़ने की कारगर क्षमता हो।


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