प्राकृतिक खेती से आएगी खुशहाली

By: Dec 19th, 2018 12:06 am

डा. राजेश्वर सिंह चंदेल

लेखक, शिमला से हैं

आज खादों एवं अन्य रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से किसानों की साख आम उपभोक्ता बाजार में घटी है। प्राकृतिक खेती से फल, फसलों को उगाने में किसी भी प्रकार के रासायनिक खादों, कीट नाशकों, फफूंद नाशकों इत्यादि के प्रयोग किए बिना सफल खेती कर किसान जहरमुक्त खाद्यान तथा फल-सब्जियों का उत्पादन कर सकता है…

कृषि, बागबानी एवं इससे संबद्ध क्षेत्र प्रदेश की सकल घरेलू आय में 10 प्रतिशत का योगदान एवं 69 प्रतिशत जनसंख्या को रोजगार प्रदान कर रहे हैं। प्रदेश में कुल 9.61 लाख किसान परिवार 9.55 लाख हेक्टेयर भूमि  पर आज खेती कर रहे हैं, जिसमें केवल 18 प्रतिशत ही सिंचित क्षेत्र हैं। वर्तमान में प्रचलित वैज्ञानिक खेती आधारित उच्च मूल्य एवं एक फसल प्रणाली में किसान-बागबान को व्यापक स्तर पर असंतुलित रासायनिक खादों एवं अन्य कीट-फफूंद-खरपतवार नाशकों के प्रयोग के लिए न केवल प्रोत्साहित किया है, अपितु इन पर खेती निर्भरता शत प्रतिशत कर दी है। परिणामस्वरूप भूमि की उर्वरा शक्ति कम होने लगी तथा पानी का भूमि में रिसाव बंद हो गया। हर वर्ष नए कीट-पतंगों एवं बीमारियों के उद्भव ने फसल उत्पादकता में ठहराव तो ला दिया है, साथ में साल-दर-साल इसमें कमी भी आने लग गई है। किसान-बागबान पूरी तरह से फसल-फल उत्पादन के लिए बाजार पर निर्भर हो गया है। उत्पादन लागत कई गुना बढ़ गई और उत्पादन घटने लगा है। इस स्थिति में किसान खेती-बागबानी करने के  लिए बैंक ऋण की ओर आकर्षित होने लगा, जिसका भयावह परिणाम हम देशभर में पिछले दस वर्षों में लगभग तीन लाख मेहनतकश किसानों को गंवा कर देख चुके हैं। देश के अन्य भागों की तुलना में पहाड़ी प्रदेश में पशुधन की कमी आ रही है।

औसतन परिवार से पशु कम हो गए या दुधारू पशु टीकाकरण की समस्या या बांझपन के कारण तथा बैलों की खेती में अनुपयोगिता के कारण उन्हें सड़कों पर आवारा छोड़ दिया गया है। कृषि क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं में यह आज एक गंभीर मुद्दा है। इस कारण गोबर एवं अन्य कूड़ा खादों की अनुप्लब्धता भी एक अन्य कारण बनता जा रहा है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का 2022 तक किसान-बागबान की आय को दोगुना करने का आह्वान, कृषि नीति निर्धारकों, कृषि वैज्ञानिकों एवं प्रसार अधिकारियों के लिए एक गंभीर चुनौती है। अतः अब आवश्यकता है एक ऐसे खेती मॉडल की, जिसमें कम से कम स्थानीय खेती संसाधनों के प्रयोग से अधिकतम फसल उत्पादन हो। ऐसा खेती प्रारूप जो किसान को बाजार आधारित फसल उत्पादन आदानों से मुक्त करे तथा रसायन रहित उत्पाद पैदा कर वह अपनी आय बढ़ाए। किसान की अल्प एवं दीर्घावधि की खुशहाली एवं आय वृद्धि के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार ने ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान’ नामक एक महत्त्वाकांक्षी योजना का 25 करोड़ बजट के साथ क्रियान्वयन ‘प्राकृतिक खेती’ की संकल्पना द्वारा किया है। इस संकल्पना के शिल्पी महाराष्ट्र के कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री सुभाष पालेकर हैं। देशभर के लगभग 45 लाख किसान इस ‘सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती’ से जुड़ चुके हैं। इस खेती विधि से फल, फसलों को उगाने में किसी भी प्रकार के रासायनिक खादों, कीट नाशकों, फफूंद नाशकों इत्यादि के प्रयोग किए बिना सफल खेती कर किसान जहरमुक्त खाद्यान्न तथा फल-सब्जियों का उत्पादन करता है। आज खादों एवं अन्य रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से किसानों की साख आम उपभोक्ता बाजार में घटी है। स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील उपभोक्ताओं में यद्यपि सामान्य खाद्यान्न के अतिरिक्त फल-सब्जियों की मांग बढ़ी है, लेकिन इनके रसायन दूषित होने के संदेह के कारण वह भयभीत हैं। ‘पीजीआई’ चंडीगढ़ एवं ‘ब्लूमबर्ग जन स्वास्थ्य स्कूल’ अमरीका के एक संयुक्त अनुसंधान में पंजाब के कपास बहुल खेती वाले ग्रामीण इलाकों के 23 प्रतिशत किसानों के खून एवं पेशाब में विभिन्न कीटनाशकों के अंश मिले हैं। इस परिस्थिति में आम उपभोक्ता अब रसायन मुक्त फल-सब्जी बाजार की राह जोत रहा है। जैविक कृषि उत्पाद से एक आशा जगी थी, लेकिन हाल ही में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन तथा तथ्य इसे नकार रहे हैं। यह खेती गोबर के अधिकतम प्रयोग एवं वर्मी कंपोस्ट पर आधारित है। खेती में जब गोबर का हम अधिक प्रयोग करते हैं, तो सूर्य की रोशनी एवं सामान्य तापमान जब ज्यादा होता है, तो यह पर्यावरण में विभिन्न जहरीली गैसों का उत्सर्जन कर मौसम बदलाव में सक्रिय भूमिका निभाती है। वर्तमान परिस्थिति में ‘जैविक खेती’ की लागत ‘रासायनिक खेती’ से भी बढ़ गई है।

सुभाष पालेकर के अनुसार वर्मी कंपोस्ट बनाने वाला केंचुआ, जैव निगरानी के लिए चुना गया जीव था, जो भूमि में पाई जाने वाली भारी धातुओं का निस्सारण करता है, न कि भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है। इसलिए हमारी मिट्टी को देशी केंचुए की गतिविधि को पुनःसंचालित करने की आवश्यकता है, न कि विदेश से आयातित आयसिना फाईटिड्डा नामक जीव की, जो गोबर इत्यादि खाकर वर्मी कंपोस्ट बनाता है।  हिमाचल प्रदेश, फल-सब्जी राज्य के रूप में प्रतिवर्ष लगभग 7500 करोड़ का राजस्व संग्रहित कर रहा है, लेकिन इस उत्पादन के पीछे भी सैकड़ों टन रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग सम्माहित है। यह रासायनिक खादें एवं कीटनाशक मात्र अनुमोदित ही नहीं हैं, अनुमोदित से अधिक संख्या तथा मात्रा में यह प्रदेश के हर कोने में प्रयोग हो रहे हैं, जो केवल पहाड़ के स्वास्थ्य ही नहीं, अपितु पूरे देश के उपभोक्ताओं के लिए प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं। यह स्थिति देशभर में भोज्य उत्पादक किसान एवं उपभोक्ता के बीच एक गंभीर अविश्वास को पैदा कर रही है।

पद्मश्री सुभाष पालेकर द्वारा रचित तकनीक ‘सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती’ स्वस्थ भारत की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी। प्रदेश में अभी तक लगभग 2465 किसानों ने इसकी सफलतापूर्वक शुरुआत कर इस दिशा में नींव का पत्थर रख दिया है। हिमाचल प्रदेश सरकार का इस दिशा में विशेष लगाव इस पुण्य कार्य को तीव्र गति से आगे बढ़ाने में और मददगार साबित हो रहा है।


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