मतदाता को गुस्सा क्यों आता है

By: Dec 13th, 2018 12:07 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक

सच यह है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस नहीं जीती है, बल्कि भाजपा हारी है। हवाई वादे, काम के बजाय प्रचार, दमन चक्र और झूठ की चादर आदि कारणों से मतदाताओं में नाराजगी थी और यह नाराजगी स्थानीय नेतृत्व के प्रति कम, प्रधानमंत्री के प्रति ज्यादा थी, क्योंकि मोदी की शह पर ही जनता की वास्तविक समस्याओं के बजाय मंदिर-मस्जिद पर फोकस बनाने की कोशिश की गई, एंटी-रोमियो स्क्वैड जैसे प्रपंच हुए और गोरक्षा के नाम पर हत्याएं हुईं…

डा. मनमोहन सिंह ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री हैं, ईमानदार हैं, सरल हैं, दिखावा करने में विश्वास नहीं करते। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद कांग्रेस में उनकी पूछ कुछ इसलिए बढ़ी है, क्योंकि कांग्रेस को ऐसे विश्वसनीय नेताओं की आवश्यकता है, जिन्हें लोग बड़ा नेता मान सकें। डा. मनमोहन सिंह इन दोनों कसौटियों पर खरे उतरते हैं। वे दस वर्ष तक देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनकी विश्वसनीयता आज भी कायम है, लेकिन जब वे प्रधानमंत्री थे तो उनके राज में घोटालों की झड़ी-सी लग गई थी और कांगे्रस की विश्वसनीयता रसातल में चली गई थी। सरकार को लकवा मार गया था, संवेदनशील मसलों पर भी अनिर्णय की स्थिति हावी थी। भ्रष्टाचार के मामलों पर डा. मनमोहन सिंह की चुप्पी के कारण निराशा और गुस्से का माहौल था। कांग्रेस नीत शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार का पहला नतीजा यह रहा कि सन् 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में न केवल कांग्रेस बुरी तरह से हारी, बल्कि तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी हार का मुंह देखना पड़ा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी, लेकिन 49 दिन की नौटंकी के बाद अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया।

दूसरी तरफ देश के सामने गुजरात था। नरेंद्र मोदी ने विकास, विदेशी धन निवेश के कार्यक्रमों और आक्रामक प्रचार के जरिए एक ऐसी छवि गढ़ ली कि देश उन्हें विकास पुरुष के रूप में पहचानने लगा। उनके काम करने के तरीके में दृढ़ता थी। नरेंद्र मोदी ने ‘अच्छे दिनों’ का सपना क्या दिखाया, सारा देश दीवाना हो गया। भाजपा को उन प्रदेशों से भी झोली भर-भरकर वोट मिले, जहां उसका कोई आधार नहीं था। प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने नौकरशाही को चुस्त बनाया। मोदी का जलवा ऐसा था कि पार्टी छोटी हो गई, मोदी बड़े हो गए। नरेंद्र मोदी ने विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया और विश्व भर में भारत की साख बढ़ने लगी।

उन्होंने कई नई योजनाओं का सूत्रपात किया। जनता में आशा की लहरें हिलोरे लेने लगीं। चवालीस सीटों पर सिमटी कांग्रेस आधारहीन तो थी ही, सोनिया गांधी की बीमारी के कारण लगभग नेतृत्वहीन भी हो गई। विपक्ष में मोदी की टक्कर का कोई नेता नहीं था। इससे मोदी-शाह की जोड़ी अहंकार का प्रतिरूप बन गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा तीन सीटों पर सिमट कर रह गई। अगली चोट उन्हें बिहार में लगी, जहां नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ नाता तोड़ कर लालू यादव से हाथ मिला लिए थे। इसके बाद कई प्रदेशों में भाजपा ने जीत का परचम लहराया और अमित शाह को राजनीति का चाणक्य माना जाने लगा। मोदी ने बड़ी चतुरता से कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी को अपने मुकाबले में दिखाना शुरू कर दिया और राहुल गांधी को एक नौसिखिया ‘पप्पू’ बताया जाने लगा। कांग्रेस सहित विपक्ष के अन्य नेताओं की एक बड़ी भूल यह रही कि वे पूरी तरह से मुस्लिम तुष्टिकरण में व्यस्त हो गए। इससे हिंदुओं में नाराजगी फैली और मोदी ने इसका लाभ उठाया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय हिंदू संगठित हुए, ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का जादू चला और नोटबंदी की तकलीफों को भूलकर भी जनता ने भाजपा को जिताया। इसी तरह नोटबंदी और जीएसटी के बावजूद गुजरात में मिली जीत से मोदी और शाह की जोड़ी एक बार फिर अहंकार से भर उठी। यह जीत बड़ी मशक्कत से मिली थी, तो भी मोदी-शाह की जोड़ी को यह लगने लगा कि वे जनता को बरगलाने में माहिर हैं। कांग्रेस और शेष दल जहां मुस्लिम तुष्टिकरण की गलती करते थे, वहीं भाजपा ने हिंदू तुष्टिकरण के नाम पर समाज को बांटना आरंभ कर दिया। भाजपा के आईटी सेल द्वारा जारी झूठी अफवाहों का दौर चल निकला और बात-बात पर धार्मिक ध्रुवीकरण तथा हिंदुस्तान-पाकिस्तान के नारे उछलने लगे। विकास के नाम पर खोखली योजनाएं परोसी जाने लगीं। मतदाता इस उम्मीद में थे कि मोदी अपनी कार्यशैली बदलेंगे, लेकिन मोदी को अपने मायाजाल पर इतना भरोसा था कि उन्होंने बेरोजगारों, छोटे व्यापारियों और किसानों की परवाह छोड़ दी। लाखों किसानों के बार-बार के प्रदर्शन को राजनीति से प्रेरित बताकर मोदी खुद ही संतुष्ट होने लग गए। मोदी राज में जनता की सुनवाई तो बंद हुई ही, पत्रकारों, कलाकारों, कार्टूनिस्टों, ब्लागरों, एक्टिविस्टों और विरोधी नेताओं के विरुद्ध चले दमनचक्र से जनता में दशहत फैली। मीडिया में विरोध के इक्का-दुक्का विरोधी स्वरों को जनता की आवाज मानने के बजाय विपक्ष का शोर कहना शुरू कर दिया। दहशत के माहौल में न जनता कुछ बोलती थी, न मीडिया को बोलने दिया जाता था, परिणाम यह हुआ कि सरकार को फीडबैक का कोई साधन ही न रहा। इस बीच राहुल गांधी थोड़ा संभले, रणनीति में परिवर्तन किया और उन्होंने अकेले ही मोदी से टक्कर लेने का माद्दा दिखाया। मिजोरम कांग्रेस के हाथ से निकल गया है और तेलंगाना में भी कांग्रेस-टीडीपी गठबंधन कुछ नहीं कर पाया है, तो भी हालिया चुनाव परिणामों ने राहुल गांधी को विपक्ष का कद्दावर नेता बना दिया है। इसके बावजूद सच यह है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस नहीं जीती है, बल्कि भाजपा हारी है। हवाई वादे, काम के बजाय प्रचार, दमन चक्र और झूठ की चादर आदि कारणों से मतदाताओं में नाराजगी थी और यह नाराजगी स्थानीय नेतृत्व के प्रति कम, प्रधानमंत्री के प्रति ज्यादा थी, क्योंकि मोदी की शह पर ही जनता की वास्तविक समस्याओं के बजाय मंदिर-मस्जिद पर फोकस बनाने की कोशिश की गई, एंटी-रोमियो स्क्वैड जैसे प्रपंच हुए और गोरक्षा के नाम पर हत्याएं हुईं। राजस्थान के हालिया विधानसभा चुनाव ने देश को एक अनूठा संदेश भी दिया है। राजस्थान में पहली बार एक गाय मंत्रालय बना और सिरोही विधानसभा क्षेत्र के विधायक ओटाराम देवासी देश के पहले गाय मंत्री बने। उनकी शह पर हिंदू-मुस्लिम भाईचारा चरमराने लगा, तो दोनों समुदायों की पंचायतों में ओटाराम को हराने की कसम खाई। खबर यह है कि ओटाराम देवासी को संयम लोढा नाम के एक निर्दलीय प्रत्याशी ने दस हजार से भी ज्यादा वोटों से हरा दिया है। यह उल्लेखनीय है कि पांचों प्रदेशों में हार के बावजूद भाजपा मध्यप्रदेश और राजस्थान में मजबूत विपक्ष के रूप में उभरी है।

यह कहना जल्दबाजी होगी कि आगामी लोकसभा चुनाव पर इसका क्या असर होगा, प्रधानमंत्री के प्रति मतदाता का गुस्सा कायम रहेगा या तब तक वे कोई नई तिकड़म भिड़ा लेंगे। इन चुनावों का सबक है कि सत्ताधारी दल अगर जनता की भावनाओं से अनजान रहकर मनमानी करेंगे, तो मतदाता को गुस्सा आएगा और वह सिंहासन पर जमे बैठे नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा देगा।


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