वक्त और भरोसे का जनादेश

By: Dec 20th, 2018 12:07 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

जिसे कांग्रेसी अपनी जीत मान रहे हैं, वह कांग्रेस की जीत नहीं है। यदि लोग कांग्रेस से खुश होते, तो वह मिजोरम में सत्ता से बाहर न कर दी जाती। यदि लोग कांग्रेस से खुश होते, तो तेलंगाना में कांग्रेस की ऐसी दुर्गति न होती। सच तो यह है कि मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट नहीं दिया है, उन्होंने भाजपा के विरोध में मत दिया है। यह कांग्रेस की नीतियों और वादों से भी ज्यादा भाजपा के विरुद्ध एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर का कमाल है। मतदाताओं के पास कांग्रेस के अतिरिक्त कोई और मजबूत विकल्प था ही नहीं, इसलिए भाजपा से नाराज मतदाताओं ने कांग्रेस को चुना या फिर नोटा का बटन दबाया। यह कांग्रेस की जीत नहीं, भाजपा की हार है…

हवा का रुख बदलता नजर आ रहा है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम अद्भुत थे। हमेशा की तरह विशेषज्ञ और विद्वजन अंदाजे लगाते रह गए, भविष्यवाणियां करते रह गए और जनता ने न राजनीतिज्ञों की बात सुनी न विशेषज्ञों की। मतदाताओं की परिपक्वता इसी से जाहिर होती है कि वे किसी सर्वे से प्रभावित नहीं हुए और उन्होंने अपनी खुद की इच्छा को सर्वोपरि रखा। तीन हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस की सरकार ने सत्ता संभाल ली है, जबकि मिजोरम में कांग्रेस का किला ढह गया है, वह तेलंगाना में भी कोई कमाल दिखाने में असफल रही है। मिजोरम में जहां मिजो नेशनल फ्रंट ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाकर सत्ता पर कब्जा किया है, वहीं तेलंगाना में सत्तासीन तेलंगाना राष्ट्र समिति ने शान से सत्ता में वापसी की है। तेलंगाना में कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी का गठबंधन था, लेकिन इस गठबंधन को सफलता नहीं मिली। भाजपा न तेलंगाना में कुछ कर पाई है न मिजोरम में। प्रधानमंत्री मोदी को अपनी वाकपटुता का अभिमान था, तो अमित शाह की चाणक्य नीति के गीत गाए जाते थे। अमित शाह का बूथ मैनेजमेंट, जातियों और उपजातियों को ध्यान में रखकर गठित की गई बूथ समितियां और शक्ति केंद्र धरे रह गए। इस वक्त भाजपा केंद्र में तो सत्ता में है ही, वह सत्ता का केंद्र भी है। भाजपा के संसाधन विशाल हैं, उसके बावजूद वह पांचों प्रदेशों में हारी है। मध्य प्रदेश में उसे अंत तक उम्मीद है कि यदि वह बहुमत में न आई, तो भी जोड़-तोड़ से सरकार बना लेगी, लेकिन उसकी कोई तिकड़म नहीं चल पाई। इन पांचों राज्यों में भाजपा ने मुंह की खाई है, तो यह भाजपा की हार तो है ही, यह मोदी और शाह के अहंकार की भी हार है। कांग्रेस में इस वक्त सब बम-बम है। कांग्रेस ने सीधी लड़ाई में भाजपा को हरा कर तीन प्रमुख प्रदेशों में भाजपा से सत्ता छीनी है। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने कामकाज शुरू कर दिया है।

अब जनता उनके कामकाज पर नजर रखेगी। इसमें कोई शक नहीं कि इन तीन प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की कारगुजारी आगामी लोकसभा चुनावों के परिणामों को कुछ हद तक प्रभावित कर सकती है, लेकिन जिसे कांग्रेसी अपनी जीत मान रहे हैं, वह कांग्रेस की जीत नहीं है। यदि लोग कांग्रेस से खुश होते, तो वह मिजोरम में सत्ता से बाहर न कर दी जाती। यदि लोग कांग्रेस से खुश होते, तो तेलंगाना में कांग्रेस की ऐसी दुर्गति न होती। सच तो यह है कि मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट नहीं दिया है, उन्होंने भाजपा के विरोध में मत दिया है। यह कांग्रेस की नीतियों और वादों से भी ज्यादा भाजपा के विरुद्ध एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर का कमाल है। मतदाताओं के पास कांग्रेस के अतिरिक्त कोई और मजबूत विकल्प था ही नहीं, इसलिए भाजपा से नाराज मतदाताओं ने कांग्रेस को चुना या फिर नोटा का बटन दबाया। यह कांग्रेस की जीत नहीं, भाजपा की हार है।

कांग्रेस के नए बने मुख्यमंत्रियों ने आनन-फानन कर्जे माफ करने शुरू कर दिए हैं और हमें लग रहा है कि नई सरकारें काम कर रही हैं। राहुल गांधी ने सत्ता में आने के दस दिन के अंदर किसानों के कर्जे माफ करने का वादा किया था और कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने इस वादे को पूरा करने में दस घंटे भी नहीं लगाए। यह कांग्रेस का चुनावी वादा था, जिसे उसने पूरा कर दिया। देश का अन्नदाता किसान इस समय बुरी हालत में है। विभिन्न सरकारों की गलत नीतियों के कारण वह आत्महत्या करने को मजबूर है। किसानों की बदहाली वह एक बड़ा कारण रहा है, जिसने भाजपा सरकारों से किसानों का मोह भंग किया। गुजरात, कर्नाटक और अब इन पांचों प्रदेशों में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण किसानों में भाजपा सरकारों के प्रति गुस्सा रहा है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि कर्जमाफी एक फौरी उपाय जरूर है, समस्या का समाधान नहीं है। समस्या कर्ज नहीं है, समस्या यह है कि कर्ज कर्ज लेने के बाद किसान उसे चुका क्यों नहीं पाते। देखना यह है कि क्या नई प्रदेश सरकारें और केंद्र सरकार इस समस्या की जड़ तक जाकर समस्या दूर करेंगी या फिर सिर्फ फौरी इलाज करके वाहवाही लूटेंगी। तीन प्रदेशों में हार से सबक लेकर अब मोदी भी फिर से नई-नई योजनाओं का ऐलान करने लग गए हैं।

सुविधाओं के नाम पर मतदाताओं के विभिन्न वर्गों को रिश्वत देने का काम जोर-शोर से शुरू हो गया है। मतदाताओं को सुविधाएं देना सरकारों का काम है। सरकारें इसीलिए बनाई जाती हैं, लेकिन जब सुविधाएं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए रिश्वत की नीयत से लागू हों, तो उसकी आलोचना की जानी चाहिए। आखिरकार यह धन किसी राजनीतिक दल का नहीं है, सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का भी नहीं है। यह करदाताओं का धन है, जिसे गैरजिम्मेदारी से खर्च किया जा रहा है। चुनावों में हार-जीत से सभी राजनीतिक दल सबक सीख सकते हैं। वे कितना सीखेंगे, कितना मंथन करेंगे, यह कहना इसलिए मुश्किल है क्योंकि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और बड़े नेताओं के सामने कोई मुंह खोलने की हिम्मत नहीं करता। राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र न होने के कारण न तो हार-जीत की समीक्षा हो पाती है और न ही समस्या की जड़ तक पहुंचने का कोई प्रयास। प्रधानमंत्री मोदी जब सत्ता में आए थे, तो उनके पास जनादेश था क्योंकि उन्होंने अच्छे दिनों का वादा किया था, भ्रष्टाचार दूर करने की बात कही थी, मिनिमम गवर्नमेंट यानी आम नागरिक के जीवन में सरकार के न्यूनतम दखल का वादा किया था, लेकिन किया सब कुछ उलटा।

उन्हें अपने वादे पूरे करने और अपनी नीतियां लागू करने के लिए पांच साल का पूरा वक्त भी मिला, लेकिन वे अपनी हर असफलता पर कांग्रेस के 70 साल के राज को कोसते रहे। जनादेश और वक्त का फायदा न उठाने का ही परिणाम यह रहा कि जनता का भरोसा धीरे-धीरे उनसे उठता चला गया। जागरूक मतदाता के रूप में हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम देखें कि केंद्र सरकार या राज्यों में बनी नई कांग्रेस सरकारें करदाताओं का धन रिश्वत में न लुटाएं, बल्कि समस्याओं की जड़ तक जाएं, समस्याओं का पक्का समाधान करें और न केवल भ्रष्टाचारमुक्त सुशासन दें, बल्कि शासन-प्रशासन में जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित करें। इसी में हम सबका भला है।


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