सड़कों पर भाग्य तराशता किसान व गोवंश

By: Dec 15th, 2018 12:05 am

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, बिलासपुर से हैं

लिहाजा यह स्पष्ट है कि जब तक बेसहारा गोवंश से जुड़ी समस्याओं  के स्थायी समाधान के लिए दीर्घकालीन नीति नहीं बनती, तब तक कृषि क्षेत्र के उत्पादन में वृद्धि नहीं होगी। इसका सीधे तौर पर नुकसान किसान तथ ग्रामीण क्षेत्र की आर्थिकी के साथ राज्य व देश की अर्थव्यवस्था तक महसूस होगा। गोवंश आश्रय बिना किसानों के लिए चलाई जा रही योजनाएं भी धरातल पर दम तोड़ती नजर आएंगी। इसी कारण न ही किसान आत्मनिर्भर बनेगा न ही उसकी आर्थिकी सुदृढ़ होगी…

भारत में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने का जिम्मा किसानों के ऊपर है। वर्तमान परिदृश्य यह है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ व इसे सुदृढ़ करने वाले किसान खुद की आर्थिक दुर्दशा की परेशानी के कारण अन्नदाता से कर्जदाता की ओर अग्रसर होकर अपने पुश्तैनी कृषि पेशे से हताश होकर शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। वहीं देश की अर्थव्यवस्था व कृषि क्षेत्र का मूलाधार गोवंश साथ ही भारतीय संस्कृति में पूज्य व आस्था का केंद्र जिसे सर्वश्रेष्ठ पशु आंका गया हो, यहां तक कि 1857 के सैन्य विद्रोह की चिंगारी, जिसने अंग्रेजी साम्राज्य के ताबूत में कील ठोंक दिया था यही गोवंश था, आज दयनीय स्थिति में सड़कों पर भटक रहा है। भारतीय देशी गाय व ओंगोल प्रजाति के बैलों को आज भी ब्राजील जैसे देशों में उत्तम नस्ल माना जाता है, मगर यहां उसी गोधन की बेकद्री  हो रही है। हालात ऐसे हैं कि देशी गाय के पालन के लिए लोगों को जागरूक करना पड़ रहा है। देश में गोवंश व किसानों पर सियासत जरूर गर्माती है, लेकिन धरातल पर आश्वासन के सिवाय नतीजा कुछ नहीं निकलता।

आजादी के 71 वर्षों बाद भी रहनुमाई व्यवस्था द्वारा किसानों की तरफ अपेक्षित ध्यान की दरकार के चलते स्थिति यह है कि दोनों कृषि क्षेत्र से रुखसत होकर मजबूरन सड़क से संसद तक अपना भाग्य तराश रहे हैं। खेती का पेशा ‘मुनाफा बनाम घाटा’ के बीच उलझ कर रह गया है। जिस गोवंश के दम पर खेतीबाड़ी खुशहाल हुआ करती थी, आज उसी गोवंश के प्रकोप से कृषि क्षेत्र के बड़े हिस्से पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। असंतोषजनक यह है कि जब गोवंश उपयोगी नहीं रहता, अपने स्वार्थ की पूर्ति करके इन बेजुबानों को सड़कों पर धकेल दिया जाता है और इनके संरक्षण व संवर्धन की गुहार सरकारों के समक्ष लगाई जाती है या तलख तेवर दिखाकर प्रशासन से इनकी समस्या से निपटने को कड़े कदम उठाने के लिए ज्ञापन सौंपे जाते हैं।

अब शहरों, कस्बों व राष्ट्रीय राजमार्गों पर झुंडों में डेरा जमाए पशुओं के कारण राहगीर तथा वाहन चालकों को भी परेशानी झेलनी पड़ रही है, जिसमें हिंसक पशु होने के कारण दुर्घटनाएं हो रही हैं। राज्य में करोड़ों रुपए खर्च करके कई गोसदनों का निर्माण किया गया है, जिनमें सात या आठ हजार गोवंश हैं। कई हजार गोवंश को अभी भी आश्रय नसीब नहीं है, जबकि कई संगठन व संस्थाएं भी गोवंश को आश्रय देने में कार्यरत हैं। गोसदनों के निर्माण के साथ आवश्यकता यह भी है कि उन लोगों के खिलाफ कड़ा कानूनी मसौदा भी तैयार हो, जो गोवंश को लावारिस करके सड़कों पर छोड़ देते हैं। पशु क्रूरता अधिनियम के बावजूद इनकी तस्करी भी की जाती है, जिस कारण गोवंश को बचाने की कोशिश में कई बार हिंसा की खबरें भी सामने आती हैं। इसलिए बचाव के साथ इनके पालन के प्रयास भी होने चाहिएं, जैसे गोरक्षा की मिसाल सुनील शर्मा ने पेश की है। इस शख्सियत ने बिलासपुर से कुछ दूरी पर भगेड़ के पास निजी स्तर पर गोसदन चलाकर आजीवन गोरक्षा का संकल्प ले रखा है। इस पुनीत कार्य के लिए इन्हें गैर सरकारी संस्थाओं को लेकर प्रशासन तथा राज्य सरकार ने सम्मानित किया है। मंदिर में नंदी की प्रतिमा की पूजा करने के साथ अच्छा होगा, यदि सड़कों की धूल फांक रहे ‘शिव’ के नंदी व कामधेनु को आश्रय देने का साहस भी किया जाए या सुशील जैसे गोवंश के मसीहा की मदद के लिए हाथ बढ़ाए जाएं। हिमाचल प्रदेश देश के उन अग्रणी राज्यों में शुमार है, जिसकी 90 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है। इसलिए अधिकांश कृषकों का दुग्ध उत्पादन भी आजीविका का एक साधन है। पशुपालकों को पेश आ रही दिक्कतों पर सरकारों को गंभीर होना होगा। दुधारू पशुओं की भारी कीमतों के अनुरूप कृषकों को दूध के उचित दाम नहीं मिलते, ऊपर से दुकानों से खरीदे जाने वाले पशुचारे (फीड) की कीमतें आसमान छू रही हैं।

कई जगह पशु चिकित्सकों की कमी है। वर्तमान विकास की अंधी जद्दोजहद ने पशुओं की चरागाहों को समेट कर रख दिया है। बंजर हो रही कृषि भूमि पर खरपतवार के आधिपत्य से पशुओं के लिए घास की कमी जैसी समस्याओं के चलते पशुपालक भी विमुख हुए हैं, जो गोवंश का सड़कों पर आने का एक कारण है। लिहाजा यह स्पष्ट है कि जब तक बेसहारा गोवंश से जुड़ी समस्याओं  के स्थायी समाधान के लिए दीर्घकालीन नीति नहीं बनती, तब तक कृषि क्षेत्र के उत्पादन में वृद्धि नहीं होगी। इसका सीधे तौर पर नुकसान किसान तथ ग्रामीण क्षेत्र की आर्थिकी के साथ राज्य व देश की अर्थव्यवस्था तक महसूस होगा।

गोवंश आश्रय बिना किसानों के लिए चलाई जा रही योजनाएं भी धरातल पर दम तोड़ती नजर आएंगी। इसी कारण न ही किसान आत्मनिर्भर बनेगा न ही उसकी आर्थिकी सुदृढ़ होगी। यदि वास्तव में प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देना है, तो पशुधन सड़कों की बजाय किसानों के खूंटों पर चाहिए। इसलिए आमजन को गोवंश को लावारिस छोड़ने के बजाय इनके प्रति अपनी जिम्मेदारी सुनिश्चित करके सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ मानसिकता बदलनी होगी। उपरोक्त समस्याओं के भंवर में फंसे कृषकों व गोवंश पर विकल्प तलाशना होगा। गौरतलब है कि वही मुल्क महाशक्ति है, जिनका जवान व किसान मजबूत है, न कि मजबूर।


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