आत्म पुराण

By: Jan 19th, 2019 12:05 am

शंका- हे भगवन! ऋग्वेद आदि उस ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं यह बात तो संभव है, पर चांद्रायण आदि व्रतों (तप) से उसका ज्ञान हो सकता है, यह संभव नहीं जान पड़ता? समाधान-हे नचिकेता! अशुद्ध अंतःकरण में परब्रह्म का साक्षात नहीं होता। पर चंद्रायण व्रत करते-करते अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, तब उसमें भी परब्रह्म को अधिकारी पुरुष ब्रह्मचर्य आदि साधनों द्वारा जान सकते हैं, वह परब्रह्म ‘प्रणव’ रूप वाला है। इसलिए तुम उसका प्रणव से अभिन्न मानकर ध्यान करो। जिस किसी वस्तु में अन्य वस्तु का आरोपण करके ध्यान किया जाता है, उसे ‘प्रतीक’ कहते हैं। जैसे पाषाण रूप शालग्राम में विष्णु का आरोपण करके ध्यान किया जाता है, इससे शालग्राम विष्णु का प्रतीक है। हे नचिकेता! अधिकारी पुरुषों का यह प्रणव रूप अक्षर (ॐ) ही हिरण्यगर्भ और परब्रह्म का ध्यान करने का प्रतीक है। हे नचिकेता! इस लोक में जो पदार्थ सत्यरूप होता है, उसका कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा भी सत्य है। इससे न्यायदर्शन देह आदि की तरह यह नष्ट नहीं हो सकती। कई न्याय दर्शन वाले तो पृथ्वी, जल, तेज वायु-इस चारों तत्त्वों के परमाणुओं और मन का भी नाश होना नहीं मानते। फिर यह आत्मा तो पंचभूतों और मन के परमाणुओं से भी अत्यंत सूक्ष्म है, इसका नाश कैसे हो सकता है? इसी प्रकार नैयायिकों ने आकाश, काल, दिशा का भी नाश नहीं माना है, पर आत्मा इन सबसे भी अधिक सूक्ष्म है, इसलिए इसका नाश किसी प्रकार नहीं हो सकता। अब इस शुद्ध आत्मा को जानने के उपाय पर विचार करते हैं। जैसे पीपल आदि के पेड़ पर पक्षी रहते हैं, वैसे ही इस शरीर रूपी वृक्ष पर दो पक्षी निवास करते हैं। एक तो तत्पद रूप ईश्वर पक्षी और दूसरा त्वपद का अर्थ रूप जीव पक्षी। अब यह जीव रूप पक्षी तो शरीर में रहकर सुख-दुःख रूप फलों को ग्रहण करता है और दूसरा ईश्वर रूप पक्षी उन फलों को नहीं भोगता, वरन उस जीव रूप पक्षी को भोगता है। वे जीव और ईश्वर रूप पक्षी बुद्धि रूप उत्कृष्ट स्थान में इकट्ठे बैठे रहते हैं, पर वे भोक्ता और अभोक्ता अथवा अल्पज्ञ और सर्वज्ञ रूप में विरुद्ध स्वभाव वाले हैं। हे नचिकेता! जिस कर्म मार्ग के उपासकों ने दक्षिणाग्नि आदि पांचों अग्नियों की उपासना की है और नचिकेता अग्नि का भी तीन बार चयन किया है, वे शुद्धि अंतःकरण वाले जीवन ईश्वर दोनों के रूप को कथन करते हैं। शंका-हे भगवन! पांच अग्नियों के कर्म मार्गी उपासकों की तो अद्वितीय ब्रह्म का ज्ञान ही नहीं होता, वरन् वे तो जीव और ब्रह्म के भेद को ही महत्त्व देते हैं। तब जीव और ईश्वर के रूप को कैसे समझेंगे?

समाधान- हे नचिकेता! वे पंच अग्नियों के उपासक कर्मकांडी पुरुष विशेष रूप से तो ब्रह्मज्ञान से रहित ही होते हैं और जीव-ईश्वर को भेद को मानते रहते हैं। पर जब उनको कोई ब्रह्मवेत्ता गुरु मिल जाता है, तभी वे नचिकेता अग्नि की उपासना और प्रणव का अनुष्ठान करके अभय ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।  हे नचिकेता! ब्रह्म की प्राप्ति के मार्ग में श्रोतादिक इंद्रियों के शब्दादिक विषय ही मुख्य बाधा स्वरूप हैं। इसलिए जब इस प्रवृत्ति का नाश हो जाता है, तब अधिकारी पुरुष को किंचित मात्र दुःख की प्राप्ति नहीं होती। उसके पश्चात ही यह पुरुष मन और वाणी के अविषय आनंदरूप स्वयं ज्योति अद्वितीय आत्मा को जान लेता है। उस अद्वितीय आत्मा की प्राप्ति होने वाले साधक को शास्त्रवेता विद्वान अथवा कुशल कहते हैं।

 


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