औद्योगीकरण के लाभ, हानि

By: Jan 22nd, 2019 12:08 am

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

इन नियमों में कहा गया कि जितने भी पर्यावरणीय दुष्प्रभाव होते हैं, उनका आर्थिक मूल्य निकालकर जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने इंस्टीच्यूट और फोरेस्ट मैनेजमेंट के इन सुझावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस प्रकार आज देश में स्थापित होने वाली तमाम परियोजनाओं के समग्र लाभ-हानि का आकलन किया ही नहीं जा रहा है। यही कारण है कि बार-बार परियोजनाओं के विरुद्ध जन आंदोलन छिड़ते हैं, क्योंकि जनता के आकलन में परियोजनाओं से हानि ज्यादा होती है, जबकि उद्यमी के आकलन में परियोजनाओं से लाभ ज्यादा होता है। चूंकि सरकार उद्यमियों द्वारा चलाई जाती है, इसलिए सरकार भी उद्यमियों के साथ खड़ी हो जाती है…

तमिलनाडु के तूतीकोरन में स्टरलाइट कंपनी की विशाल तांबा बनाने की फैक्टरी स्थित है। इस फैक्टरी द्वारा वायु में जहरीली गैस छोड़ी जा रही है, जिससे आसपास के लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। फैक्टरी द्वारा प्रदूषित पानी छोड़ा जा रहा है, जिसके कारण भूमिगत पानी जहरीला हो रहा है और उस जहरीले पानी की सिंचाई से उपजी सब्जियां भी जहरीली होती जा रही हैं। उसी जहरीले पानी के समुद्र में पहुंचने पर समुद्र की मछलियां भी मर रही हैं। इन दुष्प्रभावों को देखते हुए तमिलनाडु के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने उस फैक्टरी को बंद करने के आदेश पारित किए थे, लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आदेशों को निरस्त कर दिया है और फैक्टरी को पुनः चालू करने का आदेश पारित कर दिया है। यहां प्रश्न उठता है कि प्रदूषण करने वाली कंपनियों को देश में उत्पादन करने की छूट होनी चाहिए या नहीं।

इस विषय पर गहन चिंतन की जरूरत है। वास्तव में किसी भी फैक्टरी के कुछ लाभ उद्यमी सीधे हासिल करता है, उसे प्रोफिट होता है और वह कंपनी लाभांश या डिविडेंड वितरित करती है, लेकिन उस फैक्टरी के तमाम लाभ समाज को भी मिलते हैं। उदहारण के लिए स्टरलाइट की फैक्टरी से देश में तांबे का भारी उत्पादन होता है, जिसके कारण हमें तांबे का आयात कम करना पड़ता है। हम आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो जाते हैं। यह फैक्टरी का बाह्य लाभ हुआ, जो उद्यमी को नहीं बल्कि शेष पूरे समाज को मिलता है। इसी प्रकार फैक्टरी की बाह्य हानि भी होती है, जैसे ऊपर बताया गया है वायु तथा जल के प्रदूषण से समाज को हानि होती है। इस प्रकार किस फैक्टरी को चलने दिया जाए अथवा न चलने दिया जाए, इसके लिए जरूरी है कि उद्यमी को होने वाले लाभ मात्र के आधार पर निर्णय न लिया जाए। यह भी देखा जाए कि फैक्टरी के बाहरी लाभ और हानि कितनी है।

संभव है कि स्टरलाइट कंपनी के मालिक को तांबे की फैक्टरी से लाभ हो, लेकिन समाज को उसी फैक्टरी से इससे अधिक हानि हो, उद्यमी और समाज का समग्र आकलन किया जाए, तो फैक्टरी देश के लिए नुकसानदेह हो सकती है, क्योंकि समाज को होने वाली हानि ज्यादा हो सकती है और उद्यमी को होने वाला लाभ तुलना में कम हो सकता है। ऐसे में फैक्टरी को नहीं चलाना चाहिए। इस निर्णय तक पहुंचने के लिए जरूरी है कि किसी भी फैक्टरी के बाहरी प्रभावों का आकलन किया जाए, जैसे उद्यमी के प्रोफिट के साथ हमारे आयातों में कमी के लाभ को जोड़ा जाए और प्रदूषण के नुकसान को जोड़ना चाहिए। तब समग्र आकलन करके निर्णय लिया जाए कि ऐसी फैक्टरी चलाना देश के लिए लाभप्रद है या नहीं। ऐसा समग्र आकलन करने में सरकार और हमारे न्यायालयों की रुचि कम ही दिखती है। स्टरलाइट कंपनी द्वारा भारतीय जनता पार्टी और अन्नाद्रमुक दोनों को ही भारी मात्रा में अनुदान दिए जाते हैं। इससे इन पार्टियों की फैक्टरी के समाज पर दुष्प्रभावों का सही आकलन कराने में रुचि नहीं बनती है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल तथा सुप्रीम कोर्ट का भी झुकाव विकास की तरफ अधिक दिखता है। इस कारण यह बाहरी प्रभावों के आकलन को कराने में रुचि नहीं रखते। लगभग आठ वर्ष पूर्व नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में उत्तराखंड में गंगा पर बनने वाली विष्णुगाड पीपलकोटी योजना की वन स्वीकृति पर वाद दायर किया था। इस वाद में ट्रिब्यूनल ने माना कि परियोजना के लाभ और हानि का सही आकलन नहीं किया गया है। देश में जंगल संरक्षण कानून में व्यवस्था है कि जंगल काटने की स्वीकृति देने के पहले पर्यावरण मंत्रालय को देखना होता है कि परियोजना से समाज को लाभ अधिक हो और तुलना में हानि कम हो, तब ही जंगल काटने की अनुमति दी जाती है। बावजूद इसके परियोजनाओं से लाभ-हानि के आकलन में जो बाह्य प्रभाव होते हैं, उनकी गणित नहीं की जाती है। जैसे यदि स्टरलाइट के कारखाने से समुद्र में मछली मरती है, तो उस हानि का आकलन नहीं किया जाता है अथवा भूमिगत जल के जहरीले हो जाने से और जहरीली सब्जियों के सेवन से जन स्वास्थ्य बिगड़ता है, उसका आकलन नहीं होता है। उस वाद में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने निर्णय दिया था कि पर्यावरण मंत्रालय लाभ-हानि के आकलन के नियम बनाए। पर्यावरण मंत्रालय ने यह कार्य भोपाल स्थित इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ फोरेस्ट मैनेजमेंट को दिया। इंस्टीच्यूट ने लाभ-हानि का समग्र आकलन करने के लिए नियम सुझाए। इन नियमों में कहा गया कि जितने भी पर्यावरणीय दुष्प्रभाव होते हैं, उनका आर्थिक मूल्य निकालकर जोड़ा जाना चाहिए। जैसे जहरीली सब्जी खाने से जो जन स्वास्थ्य बिगड़ता है, उसमें जो उपचार का खर्च आता है, उसको भी परियोजना की हानि में जोड़ना चाहिए, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने इंस्टीच्यूट और फोरेस्ट मैनेजमेंट के इन सुझावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस प्रकार आज देश में स्थापित होने वाली तमाम परियोजनाओं के समग्र लाभ-हानि का आकलन किया ही नहीं जा रहा है।

यही कारण है कि बार-बार परियोजनाओं के विरुद्ध जन आंदोलन छिड़ते हैं, क्योंकि जनता के आकलन में परियोजनाओं से हानि ज्यादा होती है, जबकि उद्यमी के आकलन में परियोजनाओं से लाभ ज्यादा होता है। चूंकि सरकार उद्यमियों द्वारा चलाई जाती है, इसलिए सरकार भी उद्यमियों के साथ खड़ी हो जाती है। तब जनता को फैक्टरियों और परियोजनाओं के विरोध में आंदोलन में उतरना पड़ता है। समस्या है कि यदि हम परियोजनाओं के बाह्य प्रभावों का सही आकलन करते हैं, तो तमाम परियोजनाएं निरस्त हो जाएंगी, लेकिन दूसरे देशों में प्रदूषण करने की तुलना में छूट ज्यादा है। इसलिए प्रदूषण करने वाले कारखाने भारत में बंद हो जाएंगे और वे चीन को स्थानांतरित हो जाएंगे, जिससे भारत में औद्योगीकरण नहीं हो सकेगा। इस समस्या का उपाय यह है कि हम प्रदूषण करने वाले उद्योगों को प्रोत्साहन देने के स्थान पर सेवा क्षेत्र को प्रोत्साहन दें। दूसरे देशों की तुलना में अपने देश में भूमि कम है और जनसंख्या ज्यादा है, ऐसे में हमें सेवा क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि हम अपने देश का आर्थिक विकास सॉफ्टवेयर, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन, सिनेमा, संगीत, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद, पर्यटन आदि सेवाओं के माध्यम से हासिल करें, तो हमें स्टरलाइट के तांबे की फैक्टरी जैसी परियोजनाओं से होने वाले प्रदूषण को भी नहीं झेलना पड़ेगा और हम अपनी जनता को भारी मात्रा में रोजगार भी दे सकेंगे।

सरकार को सेवा क्षेत्र में रुचि कम होती है, क्योंकि सेवा क्षेत्र में लाइसेंस, ठेके और घूस खाने के अवसर कम होते हैं। इसलिए देश की सरकार न तो फैक्टरियों की समग्र लाभ-हानि का आकलन कराना चाहती है और न ही सेवा क्षेत्र को बढ़ाना चाहती है। देश का पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है और युवा बेरोजगार होते जा रहे हैं, क्योंकि सरकार उद्यमों का सही आकलन करने में रुचि नहीं रखती है।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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