धर्म व शिक्षा स्थलों में अमानवीय जातिभेद

By: Jan 24th, 2019 12:06 am

कंचन शर्मा

लेखिका शिमला से हैं

हिमाचल में कुल्लू की बंजार घाटी के थाटीबीड़ में एक मेले में देव कारिंदों ने लोक परंपरा के नाम पर अनुसूचित जाति के युवक के साथ मारपीट व जुर्माना लगाकर देव परंपरा को शर्मसार किया है। युवक के अनुसार उसे जातिसूचक शब्दों से भी देव कारिंदो द्वारा अपमानित किया गया जो कि इस विज्ञान व तकनीकी के युग में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इसी के साथ महिलाओं से धार्मिक भेदभाव भी सदियों से चला आ रहा है। ग्रामीण अंचलों की बात तो छोड़ो, शहर भी इससे अछूते नहीं…

भारतीय संस्कृति के बारे में हम जब भी सोचते हैं हमारा मन मस्तिष्क सहसा ही इसकी शास्त्रीय, आध्यात्मिक, धार्मिक व शैक्षणिक पद्धति की ओर आकृष्ट हो जाता है। भारतीय संस्कृति मैं समझती हूं, विश्रृंखलित हो जाती अगर वह लोक संस्कृति, देव परंपराओं की स्वतंत्र छवि को नष्ट करने का दुराग्रह करती। मेरे विचार में हर एक तरह की परंपराओं का सह-अस्तित्व भारतीय समाज को विश्रृंखलन से बचाने में सहायक सिद्ध हुआ है।

भारत में देवभूमि से विख्यात हिमाचल प्रदेश की देव परंपरा में सदैव भक्ति भावना की प्रधानता रहती है, लेकिन उसके स्वरूप में समय के साथ समाजोन्मुखी  परिवर्तन, संशोधन व विकास होता रहा है। जिस तरह से लोक परंपराओं का ऐतिहासिक दृष्टि से संरक्षण आवश्यक है, उसी तरह समय के साथ दकियानूसी, अमानवीय व्यवहार व आचरण में भी समय-समय पर संशोधन आवश्यक है ताकि विश्व पटल पर जब हमारी संस्कृति पढ़ी जा रही हो तो उससे हमारी समृद्धशाली होने का दावा हो न कि वर्षों से चली आ रही अमीर-गरीब, जातिभेद, छुआछूत पर हमारे पिछड़ेपन की अमिट छाप। आने वाली 26 जनवरी, को हम 70वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं,  दूसरी ओर हम भारत को विश्व शक्ति के रूप में देख रहे हैं, ऐसे में हिमाचल में कुल्लू की बंजार घाटी के थाटीबीड़ में एक मेले में लोक परंपरा के नाम पर अनुसूचित जाति के युवक के साथ मारपीट व जुर्माना लगाकर देव परंपरा को शर्मसार किया है। युवक के अनुसार उसे जातिसूचक शब्दों का भी देव कारिंदों द्वारा अपमानित किया गया जो कि इस विज्ञान व तकनीकी के युग में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। वासुकीनाथ देवता का मंदिर बंजार की पल्ली घाटी के लोगों की आस्था का केंद्र है। यहां हर वर्ष फागली उत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव के अंतिम दिन मुखौटा पहने देवता के गूर नर्गिस के फूल को टोकरी में रखते हुए नाचते हैं और वह  नाचते हुए यह फूल फेंकता है  और जो इस फूल को पकड़ता है उसको देवता का वरदान  और उसकी खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। यूं तो फागली उत्सव में दूर-दूर से लोग भाग लेने आते हैं, लेकिन इस फूल को पकड़ने में स्थानीय लोगों के विशेष वर्ग को ही महत्त्व दिया जाता है, लेकिन इस वर्ष देवता का वरदान स्वरूपी नर्गिस का फूल किसी दूसरे वर्ग के युवा के हाथों में आ गया जिसका निपटारा उसे मारपीट खाकर, 5100 रुपए दंड में देकर करना पड़ा जो वर्तमान संदर्भ में दुखद है। देवता कभी भी इनसानों में भेद नहीं करते। ऐसा न होता तो श्रीराम कभी सबरी के जूठे बैर न खाते, वाल्मीकि कभी रामायण न लिख पाते, तुलसीदास कभी हनुमान के दर्शन न कर पाते। तुच्छ इनसानी सोच ने पहले कर्म के आधार पर वर्गीकरण किया, फिर अमीरी-गरीबी के नाम पर दोहन व शोषण। हैरानी की बात है कि हमारे देवताओं के मोहरे जो लोग बनाते हैं वही लोग देव स्थापना के समय अछूत कह कर दूर रखे जाते हैं। देवी-देवताओं की मूर्तियां, मोहरें, वाद्ययंत्र और वे सभी काम जो एक विशेष वर्ग करने में असमर्थ है, वही वर्ग देवी-देवताओं के इन जरूरी कार्यों की पूर्ति करवाकर इस समुदाय के साथ धार्मिक व सामाजिक भेदभाव तो करता ही है, साथ में अमानवीय कृत्य कर देवी-देवताओं को भी बदनाम कर युवाओं को देव आस्थाओं से मोहभंग करवाकर उन्हें हमारी देव संस्कृति से दूर धकेलता है। यही एक खास वजह है कि हमारी देव परंपरा, लोक संस्कृति, वाद्ययंत्र आज विलोपन की ओर अग्रसर हो रहे हैं, क्योंकि यह सब कार्य पारिवारिक विरासत के रूप में आने वाली पीढ़ी अपनाती थी, मगर गरीबी, तंगहाली, छुआछूत व समाज में दयनीय स्थिति को देख युवावर्ग अपने पारंपरिक देव कार्यों जैसे मंदिर निर्माण, देवताओं के मोहरे व मूर्तियां बनाना, लोक वाद्ययंत्रों को बनाने जैसे पारंपरिक पारिवारिक कार्यों को छोड़ नौकरी के पीछे भाग रहे हैं जो देव संस्कृति के विकास व संरक्षण के लिए ठीक नहीं है। सरकार को चाहिए कि देव संस्कृति के संवाहक  इस विशेष समुदाय को न केवल आर्थिक सहयोग दे बल्कि देव स्थलों पर ऐसे पुख्ता कानून हों कि किसी भी व्यक्ति विशेष को जाति व छुआछूत के नाम पर प्रताडि़त, दंडित या शर्मसार न किया जाए।

इसके साथ शिक्षा के केंद्र भी जातिगत भेदभाव से अछूते नहीं हैं जिसका एक ताजा तरीन उदाहरण अभी कुल्लू के ही एक शिक्षण संस्थान में  सुनने व पढ़ने को मिला जहां प्रधानमंत्री के मन की बात कार्यक्रम के दौरान विद्यार्थियों से जातिगत भेदभाव किया गया। यही नहीं, मिड-डे मील कार्यक्रम के तहत बहुत बार इस तरह का जातिगत भेदभाव सुनने-देखने को मिलता है। क्या सीखेगा इस तरह अपरिपक्व बाल मन? जातिगत भेदभाव न केवल बच्चों बल्कि युवाओं के मन में कुंठित मानसिकता को पैदा करेगा जो न केवल नागरिकों बल्कि देश के भविष्य के लिए भी शुभ संकेत नहीं है।

यही नहीं, महिलाओं से धार्मिक भेदभाव सदियों से चला आ रहा है। ग्रामीण अंचलों की तो बात छोड़ो, शहर भी इससे अछूते नहीं। कुछ मंदिरों में तो महिलाओं का प्रवेश सर्वदा निषेध है और मासिक धर्म के दौरान हर मंदिर व घर के पूजा-स्थल भी। सैकड़ों वर्षों से चली आ रही ये परंपराएं महिलाओं के मन मस्तिष्क में एक अनजान भय के रूप में रोपित हो चुकी हैं कि गलती से वह किन्हीं अपरिहार्य स्थिति में मासिक धर्म के अनुसार अपने घर-आंगन के पूजास्थल पहुंचती होगी तो वह स्वयं को अपराधी मान लेती है। जबकि जाति, लिंग भेद से दूर पूजा-पाठ में मनुष्य की शारीरिक व मानसिक स्वच्छता सर्वोपरि है। हम इस बात को मानने को तैयार नहीं और स्वयं का ईश्वर व देवी-देवताओं पर एकाधिकार मानने की विकृत मानसिकता दिखाकर मानवता को शर्मसार करते हैं जबकि ईश्वर सदैव मन में है और मन हमेशा तन में रहता है, वह तन फिर चाहे किसी भी जाति या लिंग का हो। इस तरह की घटनाएं आगे न हों, सरकार को इसका कड़ाई से संज्ञान लेना चाहिए।


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