प्रेम और सहानुभूति

By: Jan 12th, 2019 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

इतना होने पर भी मैं आपसे कहता हूं कि ईश्वर है, यह ध्रुव सत्य है, हंसी की बात नहीं। वही हमारे जीवन का नियमन कर रहा है और यद्यपि मैं जानता हूं कि जातिसुलभ स्वभाव दोष के कारण ही गुलाम लोग अपनी भलाई करने वालों को ही काट खाने दौड़ते हैं, फिर भी आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिए। आप उन इने-गिने लोगों में से हैं, जिन्हें सत्कार्यों से, सदुद्देश्यों से सच्ची सहानुभूति है, जो सच्चे और उदार स्वभाव वाले और हृदय और बुद्धि से सर्वथा निष्कपट है। आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिए ‘हे कृपामयी ज्योति! चारों ओर से घिरे हुए अंधकार में पथ प्रदर्शन करो।’  मुझे चिंता नहीं कि लोग क्या कहते हैं। मैं अपने ईश्वर से, उपने धर्म से, अपने देश से और सर्वोपरि अपने आपसे एक निर्धन भिक्षुक से प्रेम करता है। जो दरिद्र हैं, अशिक्षित हैं, दलित हैं, उनसे मैं प्रेम करता हूं। उनके लिए मेरा हृदय कितना द्रवित होता है, उसे भगवान ही जानते हैं। वे ही मुझे रास्ता दिखाएंगे। मानवी सम्मान या छिद्रान्वेषण की मैं रत्ती भर भी परवाह नहीं करता। मैं उनमें से अधिकांश को नादान, शोर मचाने वाला बालक समझता हूं। सहानुभूति एवं निःस्वार्थ प्रेम का मर्म समझना इनके लिए कठिन है। मुझे श्री रामकृष्ण के आशीर्वाद से वह अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई है। मैं अपनी छोटी सी मंडली के साथ काम करने का प्रयत्न कर रहा हूं। वे भी मेरे समान निर्धन भिक्षुक हैं। आपने इसे देखा है। दैवी कार्य सदैव गरीबों एवं दीन मनुष्यों के द्वारा ही हुए हैं। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने प्रभु में, अपने गुरु में और अपने आप में अखंड विश्वास रख सकूं। प्रेम और सहानुभूति ही एकमात्र मार्ग है, प्रेम ही एकमात्र उपासना। प्रभु आपकी और आपने स्वजनों की सदा सहायता करें। कोलकाता टाउन हाल की सभा में हाल ही में जो प्रस्ताव हुआ तथा मेरे अपने नगरवासियों ने जिस मधुर शब्दों में मुझे याद किया है, उन्हें मैंने पढ़ा। महाशय, मेरी तुच्छ सी सेवा के लिए आपने जो आदर प्रकट किए हैं, उसके लिए आप मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि कोई भी मनुष्य या राष्ट्र अपने को दूसरों से अलग रखकर जी नहीं सकता और जब कभी भी ऐसा प्रयत्न किया गया है, उसका परिणाम सदैव घातक सिद्ध हुआ। मेरी समझ में भारतवर्ष के पतन और अवनति का एक प्रधान कारण जाति के चारों ओर रीति-रिवाजों की एक दीवार खड़ी कर देना था, जिसकी भित्ति दूसरों की घृणा पर स्थापित थी और जिनका यथार्थ उद्देश्य प्राचीन काल में हिंदू जाति को आसपास वाली बौद्ध जातियों के संसर्ग से अलग रखता था।


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