महापुरुषों के शब्द

By: Jan 12th, 2019 12:05 am

बाबा हरदेव

गगन मंडल यानी शून्य आकश में गाय ने जन्म लिया और कागज (शास्त्रों) में इस बियाई हुई गाय के दही को जमाया गया। मानो इसी से वेद, इसी से कुरान, इसी से शास्त्र और ग्रंथ बनते हैं, लेकिन ये घटना घटी है, शून्य में और ये जो तथाकथित धार्मिक व्यक्ति है, वो इस दही को भी छाछ बना रहा है। अपने मतलब निकाल रहा है। अपने अनुकूल अर्थ बनाता है, सिर्फ सिद्धपुरुष ही पहचान पाते हैं शास्त्रों और ग्रंथों के मक्खन को यानी असल अर्थों को। ये बात तो करता है, ब्रह्मज्ञान की जो शाश्वत है, परंतु इसके पास न तो ये संपदा होती है और न ये इस ब्रह्मज्ञान रूपी संपदा को आगे प्रदान कर सकता है ऐसे ज्ञानी की दिशा कुछ इस प्रकार होती हैः

वाईज न तुम पियो न किसी को पिला सको

क्या बात है तुम्हारी शराबे तहूर को

अब इस बात में कोई शक नहीं कि सभी पवित्र वाणियां और वेद शास्त्र केवल शब्द रूपी फूल हैं और कोई पूर्ण साधु ही इन फूलों में आध्यात्मिक और शाश्वत महक भर सकता है, जैसे खुराक से संबंधित पुस्तक केवल सूचना दे रही है और खाना पकाने की केवल विधि ही बता रही है, परंतु खुराक पैदा नहीं कर रही, इसलिए शारीरिक भूख कैसे निवृत्त होगी, ये भूख तो विधिपूर्वक तैयार किए गए पकवान से ही मिट सकती है। इसी प्रकार पवित्र धर्म ग्रंथों को पढ़ने के लिए और उनका विचार करने के लिए ऋषि-मुनियों की चेतना चाहिए, जिस चेतना से उन्होंने प्रेरित होकर ये पावन ग्रंथ रचे। अतः इनके लिए साक्षी का अनुभव चाहिए, ताकि आत्मा से आत्मा की वार्ता हो सके और ये काम केवल पूर्ण साधु की संगति और इसके मुख से उच्चारण की गई वाणी से ही संभव है, क्योंकि पूर्ण साधु की वाणी ही वेद-शास्त्रों का पुनः स्मरण करा सकती है, केवल पूर्ण साधु ही शास्त्रों को सही अर्थ देकर इनकी महिमा बढ़ाता है। अब तत्त्वज्ञानी महापुरुषों के शब्द इनके अपने नहीं होते, बल्कि इनके अलौकिक शब्द परमात्मा के होते हैं। मानो ये (महापुरुष) तो एक वीणा या बांसुरी की भांति होते हैं और ये अदृश्य और सूक्ष्म गीत, स्वर, संगीत, होंठ और अंगुलियां सब परमात्मा के ही होते हैं, क्योंकि अगर परमात्मा की उपस्थिति न हो, तो केवल तारों में क्या है? इस बांस की पोरी में क्या है? अतः मादकता की है और परमात्मा ही खुद मादक है और अगर किसी अलौकिक विभूति के पास बैठकर किसी को मादकता का कोई अनुभव होता है, इसकी आंखों में कभी कोई रस दिखाई पड़ता है, तो इसे परमात्मा की देन ही समझना चाहिए। एक सूफी संत ने इस अद्भुत और अपूर्व घटना को इस प्रकार बयान किया है।

अंबर बरसै धरती भीजै यह जाने सब कोई

धरती बरसै अंबर भीजै बूझे विरला कोई

आकाश बरसता है और धरती भीजती है ये तो हमने देखा लेकिन धरती भी बरसती है और आकाश भीजता है ये कोई विरला ही देख पाता है, क्योंकि इसे देखने के लिए बड़ी गहरी आंख चाहिए मानो ये तो देखने में आता है कि आम मनुष्य बोल रहा है, इसे देखने में कोई कोई अड़चन नहीं है, ये तो सीधी-सीधी बात है, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बोलने वाला चुप होता है और जो पारलौकिक होता है वही इससे बहता है। ऐसे ही तत्वज्ञानी महात्मा खुद तो चुप होते हैं। लोगों को ये बोलते हुए दिखाई देते हैं, मगर वास्तवकिता ये होती है कि ऐसे महात्माओं के भीतर से कुछ बोला जा रहा है, वो इन महात्माओं का अपना नहीं होता, यानी मुंह तो इनका बोलने का जरूर काम कर रहा होता है, मगर जो इनसे बुलवा रहा होता है, इसको आम आंख से नहीं देखा जा सकता, हाथों से नहीं छुआ जा सकता ये तो भीतर की आंख से नहीं देखा जा सकता है और भीतर के हाथों से ही छुआ जा सकता है।


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