मोदी बनाम ‘ममता मेल’

By: Jan 21st, 2019 12:05 am

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी को शाबाश देनी पड़ेगी कि उन्होंने देश के ज्यादातर विपक्षी दलों के नेताओं को एक साझा मंच पर इकट्ठा कर दिखाया और लोकसभा चुनाव का आगाज किया। कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में 1977 में वामपंथी नेता ज्योति बसु ने विपक्ष को लामबंद किया था, नतीजतन इंदिरा गांधी सरीखी ताकतवर नेता को पराजित कर विपक्षी एकता की प्रतीक जनता पार्टी का प्रधानमंत्री देश ने चुना था। अब चार दशकों के बाद उसी मैदान में ममता बनर्जी ने राजनीतिक प्रयोग किया है। 22 दलों के 25 राजनेताओं ने शिरकत की, जिनमें 11 राज्यों के क्षेत्रीय दल और उनके नेता भी थे। इन राज्यों में ये दल या तो सरकार बना चुके हैं अथवा अभी सरकार में हैं। अलबत्ता समूचा विपक्ष अभी लामबंद होना है। इस बार भी सामने एक ताकतवर प्रधानमंत्री है। ‘ब्रिगेड समावेश’ में जमा अधिकतर नेताओं के चेहरे और साझा फोटो बंगलुरू और दिल्ली में भी देश देख चुका है। उनके एजेंडे और मकसद से रू-ब-रू है, लेकिन उनके राष्ट्रीय, नीतिगत कार्यक्रम अभी स्पष्ट होने हैं। जद-एस के अध्यक्ष देवेगौड़ा 1996-97 के दौरान 324 दिनों के लिए देश के प्रधानमंत्री रहे हैं। एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार विभिन्न केंद्र सरकारों में रक्षा और कृषि मंत्री रह चुके हैं। पाकिस्तान के छाया-युद्ध और किसानों की आत्महत्या सरीखे मुद्दे उनसे बेहतर कौन जानता है? भाजपा के बागी नेता होने से पहले यशवंत सिन्हा केंद्र की वाजपेयी सरकार के दौरान 5-6 राष्ट्रीय बजट पेश कर चुके हैं। विदेश मंत्री भी रहे हैं। वह उससे पहले चंद्रशेखर सरकार में भी मंत्री थे। अरुण शौरी पहली और आखिरी बार वाजपेयी सरकार में ही मंत्री और सांसद बने। उन्हें वरिष्ठ नेता किस आधार पर आंका जा रहा है। वह बुनियादी तौर पर पत्रकार एवं लेखक रहे हैं। डा. फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री हैं। फिलहाल लोकसभा सांसद हैं। वह और उनका बेटा उमर अब्दुल्ला भाजपा-एनडीए में भी रहे, कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए के दौरान भी ‘मलाई’ चाटते रहे और अब मोदी-विरोध के मोर्चे में जुड़ गए हैं। देश अच्छी तरह से जानता है कि वह कितने ‘हिंदोस्तानी’ हैं और पाकिस्तान-पत्थरबाजों की कितनी पैरोकारी करते रहे हैं? आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू भी अपेक्षाकृत पुराने और घुटे हुए राजनेता हैं। वह वाजपेयी सरकार के साथ भी थे और मोदी सरकार के साथ भी चार साल से ज्यादा वक्त तक ‘सत्ता की फसल’ बटोरते रहे। अब कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़ने के बाद ‘ममता मेल’ में सवार हुए हैं। एक और महत्त्वपूर्ण चेहरा है-शरद यादव। वह 1974 में जयप्रकाश नारायण आंदोलन और विपक्षी एकता के सर्वप्रथम चेहरों में रहे हैं और उपचुनाव जीत कर लोकसभा में आए थे। उनका भी साथ भाजपा से रहा है और वह एनडीए के संयोजक भी थे। अब एकमात्र चुनावी मकसद है कि प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता से बाहर करना। विपक्ष की मौजूदा भीड़ में अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, स्टालिन, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन आदि तो बिलकुल नए चेहरे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सियासी हैसियत अभी साबित होनी है। इतिहास के वे उदाहरण भी आपको बता दें कि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, अटलबिहारी वाजपेयी और वीपी सिंह ने भी ‘ब्रिगेड परेड मैदान’ में रैलियां की थीं, लेकिन विपक्षी क्रांति ज्योति बाबू के नाम ही दर्ज है, जिन्हें  सीपीएम ने 1996 में प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। दरअसल ये पुराने और ऐतिहासिक ब्यौरे इसलिए देने पड़े हैं, क्योंकि देश उनकी सियासत और सत्ता देख-परख चुका है, लेकिन हमारा विश्लेषण यह नहीं है कि विपक्ष का यह जमावड़ा प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की भाजपा को पराजित नहीं कर सकता। वे हालात और ठोस समीकरण अभी बनने हैं। जनता का मूड अभी सामने आना है। अलबत्ता हम इतना दावा जरूर कर सकते हैं कि कथित महागठबंधन का एक साझा उम्मीदवार ही भाजपा-एनडीए के प्रत्याशी के मुकाबले नहीं हो सकता। उन विरोधाभासों की व्याख्या बाद में करेंगे, लिहाजा जो फोटो अखबारों में छपी है, वह चुनाव-पूर्व की नहीं, बल्कि चुनाव के बाद बनने वाले गठबंधन की हो सकती है। हम एक बात स्पष्ट करना चाहते हैं कि 2019 में जनादेश किसी को भी मिले, हमारा लोकतंत्र, संविधान और देश बिलकुल सुरक्षित हैं और रहेंगे। उनकी बर्बादी का दुष्प्रचार करना देश के लिए ही भ्रामक है।


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