वनाधिकार पर बहानेबाजियां

By: Jan 23rd, 2019 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष

इस कानून को लागू करने में नेक नीयती का परिचय नहीं दिया गया। कोई न कोई बहाना घड़ कर इसे टालने या कानून को लागू करने के लिए जरूरी प्रशिक्षण की व्यवस्था न करके कानून को लटकाया ही जा रहा है। 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी जी ने आदिवासी पट्टी के वनग्रामों को राजस्व ग्रामों में परिवर्तित करने की बात की थी क्योंकि मध्य भारत की आदिवासी पट्टी में इस मुद्दे पर लंबे समय से मांग की जा रही थी। 1990 के दशक में नया  वन अधिनियम बनाने की प्रक्रिया कांग्रेस के शासन में आरंभ हुई थी, जिसमें सामाजिक संगठनों से भी चर्चा की गई। इंडियन सोशल इंस्टीच्यूट दिल्ली में इस चर्चा के आयोजन का लेखक भी भागीदार बना था…

एफआरए यानी वन अधिकार कानून 2006 को पास हुए 12 वर्ष हो गए और अधिसूचित हुए भी 10 वर्ष होंगे किंतु हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों की सरकारें आने के बावजूद इस कानून को लागू करने में नेक नीयती का परिचय नहीं दिया गया। कोई न कोई बहाना घड़ कर इसे टालने या कानून को लागू करने के लिए जरूरी प्रशिक्षण की व्यवस्था न करके कानून को लटकाया ही जा रहा है। 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेई जी ने आदिवासी पट्टी के वनग्रामों को राजस्व ग्रामों में परिवर्तित करने की बात की थी क्योंकि मध्य भारत की आदिवासी पट्टी में इस मुद्दे पर लंबे समय से मांग की जा रही थी। 1990 के दशक में नया  वन अधिनियम बनाने की प्रक्रिया कांग्रेस के शासन में आरंभ हुई थी, जिसमें सामाजिक संगठनों से भी चर्चा की गई। इंडियन सोशल इंस्टीच्यूट दिल्ली में इस चर्चा के आयोजन का लेखक भी भागीदार बना था। इसमें तत्कालीन वन मंत्री भारत सरकार श्री कमलनाथ मल नाथ ने भाग लिया था। उस समय वनवासी और वनों पर निर्भर समुदायों को अंग्रेजों के शासनकाल में बनाए गए वन अधिनियम के कारण हुई हानियों की बात जोर शोर से उठाई गई थी।  हालांकि उस समय नया वन अधिनियम लाने का कार्य आगे नहीं बढ़ सका, लेकिन इतना तय है कि इस पृष्ठभूमि में 1927 के वन अधिनियम को संशोधित करने के बजाय एक अलग कानून वन अधिकार अधिनियम 2006 के रूप में पारित करना ज्यादा सुगम और प्रासंगिक लगा होगा। अतः इसे पास करके 2008 में अधिसूचित किया गया।  हिमाचल जैसे राज्य में जहां अढ़ाई जिले वनवासी हैं और अन्य शेष जिले अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय श्रेणी से संबंध रखते हैं। वहां इतना लंबा इस कानून को लटकाया जाना हैरानी और चिंता का विषय है।

भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सरकारों ने इस कानून को समझने के बजाय बहानेबाजी से इसे टालने का काम किया। सबसे पहले यह बोला गया कि पहले चरण में आदिवासी क्षेत्रों किन्नौर, लाहुल-स्पीति और चंबा के भरमौर और पांगी क्षेत्रों में इसे लागू किया जाएगा और उस अनुभव के आधार पर अन्य इलाकों में लागू करने का काम होगा। इन आदिवासी क्षेत्रों में भी उचित प्रशिक्षण के अभाव में आधे-अधूरे मन से ही काम हुआ, केवल किन्नौर में वहां के स्थानीय संगठनों ने अपनी मेहनत से लोगों को कुछ जागरूक और प्रशिक्षित करने का काम करके वन अधिकारों के दावे भरवाने का काम विधिवत किया किंतु उसमें भी सरकारी अमले की भूमिका कामचलाऊ ही रही। अन्य परंपरागत वनवासी समुदायों से संबंधित अन्य जिलों में पहले तो यह बहाना बनाया गया कि इन जिलों में तो पहले ही अंग्रेजों के समय से ही और बाद में राजस्व और वन बंदोबस्तों के दौरान वनाधिकारों को दर्ज किया जा चुका है अतः यहां वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने की कोई जरूरत ही नहीं है। इस बात को जब केंद्र सरकार के वनवासी विकास मंत्रालय के ध्यान में लाया गया तब जाकर 2012 में केंद्र सरकार के दिशा-निर्देश आए जिसमें यह स्पष्ट हुआ कि यह जरूरी नहीं है कि अन्य परंपरागत वनवासी श्रेणी के लोग वनों में रहते हों वही इस कानून के दायरे में आएंगे बल्कि वे सभी लोग जो अपनी आजीविका के लिए पूर्णतः या आंशिक रूप से वनों पर निर्भर हों, वे सब भी इस कानून के दायरे में आएंगे और अपनी वनों पर निर्भरता के सबूत के तौर पर व अपने राजस्व और वन बंदोबस्तों में दर्ज अधिकारों के दस्तावेज प्रस्तुत करके वन अधिकार कानून 2006 के तहत अपने दावे वन अधकारों की मान्यता के लिए भर सकते हैं।

इन दिशा निर्देशों के बाद हिमाचल के अन्य जिलों में भी वन अधिकार समितियों का गठन किया गया जिसका जिम्मा पंचायतों को सौंपा गया। यह सारी प्रक्रिया बिना सम्यक प्रशिक्षण के पत्राचार के माध्यम से ही चलती रही, जिसके कारण पहले तो वन अधिकार समितियों का गठन पंचायत स्तर पर हो गया। बाद में ये निर्देश आए कि यह समिति राजस्व गांव मुहाल के स्तर पर गठित होंगी, तब फिर समितियां तो मुहाल स्तर पर बन गईं किंतु उन्हें या सचिव पंचायतों को भी कुछ पता ही नहीं था कि आखिर हो क्या रहा है और इन समितियों को करना क्या है। आज तक भी क्षेत्रीय स्तर पर इन समितियों और पंचायत सचिवों को दावे भरने और दायर करने की पूरी प्रक्रिया की जानकारी नहीं है। इसलिए अधिकांश वन अधिकार समितियां सक्रिय ही नहीं हो पाई हैं। इस बीच पंचायत सचिवों को ये निर्देश दिए गए कि इतने दिन बीतने के बाद भी जब कोई दावे वन अधिकार समितियों के माध्यम से स्थानीय बरतनदारों ने भर कर दायर ही नहीं किए हैं तो आप लिख कर दे दो कि बरतनदारों ने कोई भी दावे पेश ही नहीं किए हैं। शायद यह सोचा गया होगा कि इससे सरकार कह  सकेगी कि लोगों के वन अधिकारों पर कोई दावे दायर करने में कोई रुचि ही नहीं है और क्रियान्वयन का एक चरण पूरा होने का नाटक हो जाएगा, किंतु इसी बीच कुछ सामाजिक संगठनों ने पहल करके कुछ मुहालों में लोगों को जागरूक करके दावे भरने का कार्य विधिवत पूरा करके दावे दायर करवा दिए। आदिवासी क्षेत्रों में तो यह प्रक्रिया 2008 से चल रही थी, वहां से भी कुछ दावे आ चुके  थे। आज स्थिति यह है कि 17503 वन अधिकार समितियां  2013-14 में  प्रदेश में गठित की जाने के बाद भी कुल 2071 दावे ही प्राप्त हुए और उनमें से केवल 129 ही मंजूर हुए हैं। वन अधिकार कानून 2006 की धरा 3ः1 के तहत ये दावे दायर होने थे, जिसमें निजी दावों के अतिरिक्त ज्यादा जरूरी सामुदायिक अधिकारों के दावे थे।

सामुदायिक अधिकारों के दावों पर तो जागरूकता  और प्रशिक्षण के अभाव में  कुछ भी काम नहीं हुआ है। लोगों को बताया नहीं गया और स्वयं सरकारी तंत्र इस मामले  में रुचि ही लेना नहीं चाहता।  यानी जो उनका घोषित मत था कि हिमाचल में अंग्रेजों के समय से ही अधिकार बरतनदारों  को मिले हैं, उस मत को अप्रत्यक्ष रूप से प्रशासन लागू करने की ठान कर बैठा है। हां जहां धारा 3 ः 2 के तहत इसी कानून में कुछ अधिसूचित 13 कामों के लिए भूमि उपयोग को बदलने के केस बनाने के मामले आते हैं तो प्रशासन वहां चुस्ती  दिखा कर उन मामलों को निपटा रहा है। इससे जाहिर है कि उनके मन में सोची समझी चाल है कि वन भूमि का उपयोग बदलने के लिए जो मामले 1980 वन संरक्षण कानून के तहत दिल्ली भेज कर वन और पर्यावरण मंत्रालय में स्वीकृति लेनी होती थी जिसमें सालों साल लग जाते थे, वहां तो वन अधिकार कानून की धारा 3ः2 का प्रयोग कर लिया जाए किंतु जहां लोगों को अधिकार देने की बात धारा 3ः1 में कही गई है उसकी अनदेखी कर दी जाए। यह कैसे हो सकता है कि वन भूमि का उपयोग बदलने के लिए तो ये समुदाय अन्य परंपरागत वनवासी की परिभाषा में आते हैं, किंतु उसी कानून की दूसरी धारा को लागू करने के लिए वे अन्य परंपरागत वन वासी की परिभाषा में नहीं आते हैं यानी चित भी मेरी और पट भी मेरी। अतः यह नीयत का खोट अब जनता के सामने आ चुका है।


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