हिमाचल में कांग्रेस का असमंजस

By: Jan 25th, 2019 12:07 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

कांग्रेस जमीनी स्तर पर ऐसी गतिविधियों के बिना सुषुप्त अवस्था में पड़ी रही। खंड स्तर तथा विधानसभा क्षेत्र स्तर पर लड़ाइयां उभर आईं तथा न किसी ने सामंजस्य बनाने की कोशिश की, न कोई मध्यस्थता को आगे आया। उच्च स्तर पर नेताओं ने भी इस आग को भड़काने का ही काम किया तथा इस स्थिति का उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने के लिए प्रयोग किया।  पार्टी का कोई भी नेता संगठन के मुख्य आधार मतदान केंद्रों को ऊर्जा से संचारित करता नहीं दिखता है। इससे पार्टी में दुविधा की स्थिति पैदा हो गई तथा वह बिना नाविक के चलती प्रतीत होती है। इसके नेतृत्व का सवाल भी काफी समय तक लटका हुआ रहा…

मोदी की कांग्रेस मुक्त भारत की चुनौती के कारण कांग्रेस पूरे देश में अस्तित्व का संकट झेल रही है। मोदी अपने लक्ष्यों को पूरे करने में सफल या विफल हो सकते हैं, किंतु निश्चित रूप से उन्होंने देश में राजनीतिक शक्ति के खेल में बड़ी दखलअंदाजी की है। 20 से अधिक राज्यों में सत्ता हथिया कर वह निश्चित रूप से अपने लक्ष्य के निकट पहुंच रहे हैं। यह केवल हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं जिन्होंने भाजपा के सपने को झटका दिया है तथा अब यह अवधारणा भी टूट गई है कि भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह अपराजेय हैं। तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत के कारण उसे संजीवनी मिली है तथा अब उसने अपने खोए क्षेत्रों में आगे का अभियान शुरू किया है। हिमाचल कांग्रेस के लिए एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। ऐसा केवल इसलिए नहीं है कि प्रियंका गांधी ने यहां अपना घर बना लिया है, बल्कि लंबे समय तक प्रदेश में कांग्रेस की सरकारें रही हैं।

चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के हाथों वर्तमान की पार्टी की हार ने इस पार्टी के नेतृत्व को विचलित किया है तथा उसके किले में सेंध लगी है। उसके कवच में अब कई दरारें दिख रही हैं। दूसरी ओर भाजपा के उच्च नेतृत्व में किंचित ईर्ष्या व टूट-फूट के बावजूद वह ठीक ढंग से संगठित पार्टी लग रही है। उधर कांगे्रस को कर्नाटक जैसे राज्य में अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। हिमाचल में भी कांग्रेस के कवच में कई दरारें नजर आती हैं तथा पार्टी आपसी फूट की शिकार है। मेरे जैसे कई अन्वेषकों ने पार्टी को जमीनी स्तर पर संगठन की ओर ध्यान देने की सलाह दी थी, किंतु इस स्तर पर निराशा के प्रति पार्टी का उच्च नेतृत्व उदासीन ही रहा तथा उसने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इस मसले पर उच्च नेतृत्व बंटा हुआ लग रहा है। जब चुनाव नजदीक थे, तो भाजपा की मतदाताओं के साथ नियमित बैठकें हुईं तथा उनसे संपर्क भी किया गया, किंतु कांग्रेस जमीनी स्तर पर ऐसी गतिविधियों के बिना सुषुप्त अवस्था में पड़ी रही। खंड स्तर तथा विधानसभा क्षेत्र स्तर पर लड़ाइयां उभर आईं तथा न किसी ने सामंजस्य बनाने की कोशिश की, न कोई मध्यस्थता को आगे आया। उच्च स्तर पर नेताओं ने भी इस आग को भड़काने का ही काम किया तथा इस स्थिति का उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने के लिए प्रयोग किया।  पार्टी का कोई भी नेता संगठन के मुख्य आधार मतदान केंद्रों को ऊर्जा से संचारित करता नहीं दिखता है। इससे पार्टी में दुविधा की स्थिति पैदा हो गई तथा वह बिना नाविक के चलती प्रतीत होती है। इसके नेतृत्व का सवाल भी काफी समय तक लटका हुआ रहा। वर्तमान नेतृत्व में कुछ खामियां भी रहीं। विशेषकर वीरभद्र सिंह का उपेक्षापूर्ण नजरिया दिखता है जो पार्टी में बेहतरी के लिए बदलाव चाहते थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि वीरभद्र सिंह पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं, वह छह बार प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं तथा उनकी उपलब्धियों की फेहरिस्त भी काफी लंबी है। हालांकि जिस तरह का दावा किया जाता रहा है, उस नजरिए से वह अपराजेय नहीं रहे क्योंकि उनके नेतृत्व में पार्टी ने कई चुनाव हारे हैं। हालांकि यह भी सच है कि संगठन पर उनका व्यापक प्रभाव है। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए हाईकमान ने कौल सिंह व आशा कुमारी समेत कई नामों पर विचार किया, किंतु अंततः कुलदीप सिंह राठौर को यह कमान सौंपी गई। निश्चित रूप से यह स्वागत योग्य बदलाव है क्योंकि इससे पार्टी में गुटबाजी खत्म होने की संभावना है। राठौर पार्टी में सबसे ज्यादा स्वीकार्य नेता हैं। उनकी आनंद शर्मा से भी नजदीकियां हैं, साथ ही वीरभद्र सिंह व विद्या स्टोक्स से भी उनकी अच्छी पटती है। अब उनके सामने चुनौती यह है कि उन्हें पार्टी के विविध गुटों को एक करना है ताकि वे आपस में ही भिड़ते न रहें। यह कोई आसान काम नहीं है। मैंने जब उनसे बातचीत की तो उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उन पर एक दुरूह कार्य की जिम्मेवारी सौंपी गई है।

उन्होंने साफ कहा, ‘राहुल जी ने मुझ पर बड़ी जिम्मेवारी सौंपी है तथा अब मुझे काम करके अपने को साबित करना है।’ पार्टी में गुटबाजी तथा तोड़-फोड़ को लेकर भी उन्होंने अपने ठोस इरादे जाहिर किए तथा कहा कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में जिन लोगों ने विवाद पैदा किया, उनकी संख्या 10 अथवा 15 से ज्यादा नहीं ्है। उन्होंने कहा कि हमने इस मामले में जांच शुरू कर दी है तथा जरूरत पड़ने पर पार्टी की सर्जरी की जाएगी। उनके संकल्प के बावजूद रैली में कुछ लोगों ने जो असभ्यता दिखाई, उसे कम करके नहीं आंकना चाहिए। शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर हुई रैली में सुखविंद्र सिंह सुक्खू क्यों नहीं आ पाए, यह भी किसी पहेली से कम नहीं है। वीरभद्र सिंह ने साफ शब्दों में कहा है कि रैली में कार्यकर्ताओं पर कुर्सियां फेंकने वाले सुक्खू के ही लोग थे। इसमें एक बड़ा खेल नजर आ रहा है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर विराजमान हो रहे राठौर का असमंजस हर कोई समझ सकता है, वह किसी के गले काटते हुए अपने दायित्व की शुरुआत भी नहीं कर सकते हैं। दूसरी ओर इससे भी काम चलने वाला नहीं है कि वह रजनी पाटिल की तरह कह दें कि यह एक जीवित पार्टी का प्रतीक है अथवा ऐसा तो अन्य दलों में भी होता है। पार्टी में अनुशासन स्थापित करने के लिए राठौर को कुछ कठोर कदम भी उठाने होंगे। अवसर खोया हुआ लगता है, किंतु अब जांच के बाद राठौर को पार्टी कार्यकर्ताओं को यह स्पष्ट संदेश देना है कि भविष्य में इस तरह की अभद्रता किसी भी कीमत पर सहन नहीं की जाएगी। यही वह चीज है जिसकी राठौर से अपेक्षा की जा रही है क्योंकि उन्हें जल्द होने वाले आम लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी को चुनावी मोड में भी लाना है। हम उनकी बढि़या किस्मत की कामना कर सकते हैं। किंतु लोकतंत्र में प्रतिस्पर्धा की जरूरत होती है जो इस समय सामने दिख रही है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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