कला-संस्कृति का अलग हो विभाग

By: Feb 5th, 2019 12:05 am

अपने औचित्य की जमीन पर कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग की धूप भले ही लेखकीय अभिव्यक्ति का माध्यम बने, लेकिन इसकी छांव से दूर हिमाचल का कला जगत आज भी भटक रहा है। ऐसे में विभागीय प्राथमिकताओं की सूची से महरूम कला के कदम पारखी जमीन चाहते हैं या इसे कारवां बनाने के लिए नई निगाह चाहिए। कला, संस्कृति का भाषा विभाग से नत्थी होने में खोट रहा या ज्ञान की परिपाटी में विभाग ने खुद को साहित्य का पैगाम बना लिया। आश्चर्य तो यह कि विभाग की साहित्यिक महफिलें बंद कमरों में आबाद होती हैं, मगर खुले आसमान के नीचे लोक कलाकार का अस्तित्व पकड़ में नहीं आता। आखिर कब तक हिमाचली लोक गायक को सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परेड में भर्ती होना पड़ेगा या किसी नेता की सिफारिशी रसीद पर मंच मिलेगा। कहने को हिमाचल में दर्जनों मेलों और सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन हर साल होता है, लेकिन मंच की बिसात पर बंटता धन कोई न कोई बाहरी कलाकार ले जाता है। आखिर हिमाचली लोक गीत-संगीत या कलाकार का प्रश्रयदाता है कौन। यह विडंबना है कि हिमाचल के सांस्कृतिक परिदृश्य की अधिकृत व्यवस्था या विभागीय कौशल दिखाई नहीं देते। अमूमन जिला प्रशासन की सियासी चाकरी में समारोहों का आयोजन केवल एक प्रदर्शन है, जबकि विभागीय तौर पर इस विषय को संबोधित करने की जरूरत है। हैरानी यह कि लोक कलाकार केवल अपनी बारी या दिहाड़ी के इंतजार में जुगत बैठाता है। न इनकी कभी रैंकिंग हुई और न ही स्थापित मान्यता का कोई पैमाना बना। लिहाजा हिमाचली संस्कृति के अविरल प्रवाह के दूत को हमारी व्यवस्था ने आज तक भिखारी बना कर रखा है। जो लोक गायक अपने स्वरचित गीतों से हिमाचली भाषा का उन्नयन कर रहा है, उसकी भूमिका को आज तक कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग न समझ पाया और न ही प्रदर्शित करने का जरिया बना। क्यों न हर सांस्कृतिक समारोह की सारी व्यवस्था इसी विभाग को सौंप कर यह देखा जाए कि कहां पहुंची है हिमाचली अभिव्यक्ति। बेहतर यह भी होगा कि बंद कमरों के कवि सम्मेलन सार्वजनिक तौर पर कराए जाएं, ताकि विभाग अपने भाषाई पक्ष का मुकाबला सांस्कृतिक पक्ष से कर सके, अन्यथा वक्त यह सोचने पर विवश करता है कि इस विभाग को दो हिस्सों में बांट कर भाषा के संदर्भ शिक्षा विभाग को दे दिए जाएं तथा कला- संस्कृति को लोक संपर्क एवं सूचना विभाग के साथ जोड़ दिया जाए। भाषाई दृष्टि से हिमाचल में लाइब्रेरी आंदोलन को बल देने की जरूरत है, अतः जो लिखा जा रहा है उसका पठन-पाठन अति सक्रियता से हो। दूसरी ओर कला-संस्कृति को पर्यटन के पैमानों पर खरा साबित करने के लिए नए सिरे से कार्यशीलता चाहिए, तो लोक संपर्क एवं सूचना विभाग की प्रासंगिकता में व्यावहारिकता दक्षता का मूल्यांकन तथा प्रदर्शन बेहतर ढंग से होगा। हिमाचल को गुजरात राज्य से सीखते हुए, अपने कलात्मक पक्ष को विस्तृत आयाम देने के लिए अलग से कला एवं सांस्कृतिक मेला प्राधिकरण का त्वरित गठन करना चाहिए। इसी प्राधिकरण के तहत तमाम मेले तथा सांस्कृतिक उत्सव अगर पर्यटक आकर्षण बनेंगे, तो हिमाचली कला और कलाकार को उसका सम्माननीय स्थान मिलेगा। जिस तरह गुजरात वडोदरा शहर को सांस्कृतिक राजधानी के रूप में अधिमान दे रहा है, उसी तरह हिमाचल भी मंडी को सांस्कृतिक तथा चंबा को कला एवं धरोहर राजधानी के रूप में संवार सकता है। प्रमुख मंदिर परिसरों तथा प्रमुख पर्यटक स्थलों में स्तरीय सभागारों का निर्माण करके एक साथ अनेक सांस्कृतिक केंद्र विकसित करने होंगे। केरल राज्य ने अपने युवाओं को लोकगीत, नृत्य व अन्य कलाओं के प्रशिक्षण के लिए 15 केंद्र खोले हैं, जहां उन्हें दस हजार की छात्रवृत्ति भी उपलब्ध है। हिमाचल ने भले ही कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग या अकादमी के जरिए कुछ कदम उठाए, लेकिन ये नाकाफी हैं। संस्कृति का अर्थ महज कविता पाठ, संगोष्ठियां या शिविरों का आयोजन नहीं, बल्कि परंपराओं के धागों को निरंतर जोड़े रखना है। हम बुजुर्गों के खान पान, भाषा, परंपराओं, गीत-संगीत, नृत्य तथा सामाजिक ताने-बाने को आज से कैसे जोड़े रखें, इस सवाल का जवाब फिलहाल प्रमाणित नहीं है। कम से कम मेलों और सांस्कृतिक समारोहों के वर्तमान स्वरूप में हम कहीं बहुत कुछ पीछे छोड़ रहे हैं। ऐसे में अब कला-संस्कृति के लिए अलग से विभाग या प्राधिकरण की रूपरेखा को कार्यान्वित करना होगा, ताकि सभी आयोजन तथा कलाकार एक मजबूत छत के नीचे आएं।


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