यहां कोई देख न ले भीगी पलकें

By: Feb 17th, 2019 12:03 am

बजट मुशायरा नहीं है, लेकिन शायरी से लबरेज बजट की तासीर देखिए ‘छू न सकूं आसमां, तो न सही। आपके दिलों को छू जाऊं, बस इतनी सी तमन्ना है।’ सोचता हूं हिमाचल के बजट में शेर न होते तो आर्थिकी के आंकड़े कितने खामोश होते। ठीक इसी तरह कवि की पंक्तियां अब पुस्तकालय को कारागार समझकर समझौता कर लेती हैं, लेकिन मंच पर जहां शब्द की कारीगिरी दिखती है, तो समारोह का वित्तीय प्रबंधन भी कह उठता है, ‘चिरागों के अपने घर नहीं होते, जहां जलते हैं, वहीं रोशनी बिखेर देते हैं।’ जयराम के बजट से साहित्य को क्या मिलेगा और हिमाचल का लेखक समाज कितनी सीढि़यां चढ़ेगा, लेकिन मुख्यमंत्री की पेशकश में शायरी की लचक पर कौन मुकर्रर-मुकर्रर नहीं कह पाएगा। वैसे एक समीक्षा यह भी हो जाएगी कि राज्य के करीब साढ़े चौवालीस हजार करोड़ के बजट पर शायरी ही सोलह आने सही क्यों मापी गई।

पढ़े गए सोलह शेयर से बजट की हिस्सेदारी में अगर साहित्य की कीमत तय हो जाए, तो हर कवि सम्मेलन की औकात महंगी हो जाएगी। अब कविवर अगर बजट के दौरान पढ़े गए का अर्थ समझें तो मुख्यमंत्री कह गए, ‘कामयाबी के दरवाजे उन्हीं के खुलते हैं, जो उन्हें खटखटाने की ताकत रखते हैं।’ यानी जो सांकल भाषा विभाग या अकादमी के पर्दों पर लगी है, उसे खटखटाने की चुनौती भी तो साहित्यकारों को ही पूरी करनी है। अकसर पैंठ में बैठे हिमाचली साहित्यकार भी तो चाहता है कि सारी चटाइयां उसी के लिए बिछें और निदेशक से सचिव तक की भाषा में इत्र सी खुशबू हो। हिमाचल के बजट और सरकारी बजट से आयोजित कवि सम्मेलन की सद्भावना प्रायः एक जैसी रहती है, इसलिए दोनों परिस्थितियों में शब्द का शृंगार देखिए, ‘बाहर बस व्यर्थ प्रलोभन है, विश्वास करो खुद पर देखो।’ हिमाचल की वित्तीय व्यवस्था में शायरी का जुनून कितना सुकून देता

है, लेकिन ‘सुकून दे न सकीं राहतें जमाने की, जो नींद आई तिरे गम की छांव में आई।’ बजट में दिल जीतने की मशक्कत और आंकड़ों में उधार की जिरह जिस हिसाब से हिमाचल में जीत जाती है, उस पर ‘चांद की अपनी रोशनी नहीं होती, वो सूरज के तेज से जलता है-अंधेरी रातों में उजाला करके गुम हो जाया करता है।’ विडंबना यह है कि हिमाचल के बजट भाषण में न तो कला, संस्कृति व भाषा विभाग से ‘भाषा’ ली जाती है और न ही एक-दो पंक्तियां किसी कवि सम्मेलन से उधार ली जाती हैं।

बजट के सामने मासूम लेखक कहे भी तो क्या, ‘शायरों से लफ्ज ले के उधार, तुम भी हमारे लिए कुछ लिख दो ना यार।’ कुछ लेखक मित्र संबंधों में नजदीकी से बजट को हमेशा देखते हैं, मगर ‘यह कैसा ख्वाब है आंखों का हिस्सा क्यों नहीं होता-दीये हम भी जलाते हैं उजाला क्यों नहीं होता।’ बहरहाल एक और बजट सोलह शेर तो पी गया, लेकिन साहित्य और साहित्यकारों से दूर ही रहा। हम तो लेखकों को अंत में यही कहेंगे, ‘चलिए वहां जहां बादल बरसें, यहां कोई देख न ले भीगी पलकें।’

-निर्मल असो

 


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