सिर्फ वोट का ही बजट नहीं

By: Feb 4th, 2019 12:05 am

इससे पहले केंद्र सरकारों ने जो 14 अंतरिम बजट पेश किए थे, वे ऐसे नहीं थे। अकसर लोकलुभावन योजनाओं की घोषणाएं अंतरिम बजट में नहीं की जातीं, क्योंकि पूरा बजट तो मई में चुनाव होने और फिर नई सरकार बनने के बाद जुलाई में संसद में पेश किया जाना है। यदि केंद्र में मोदी सरकार बरकरार रहती है, तो बेशक घोषित योजनाएं जारी रहेंगी, लेकिन विपक्षी गठबंधन सत्ता में वापसी करता है, तो कई योजनाओं की समीक्षा की जा सकती है। योजनाओं में संशोधन किए जा सकते हैं या कुछ योजनाएं खत्म भी की जा सकती हैं। बहरहाल अंतरिम बजट के जरिए निगाहें तो वोटर पर ही रही हैं, जो राजनीतिक दल के लिए स्वाभाविक भी है, लेकिन सामाजिक सुरक्षा के मद्देनजर बजट में जो प्रावधान किए गए हैं, वे बेहतरीन हैं, मानवीय हैं, बेशक नाकाफी हैं। इसके मद्देनजर किसान और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को ही लेते हैं। किसान की एक निश्चित जमात (दो हेक्टेयर तक जमीन वाले) के खाते में 6000 रुपए सालाना की राशि सरकार डालना शुरू करेगी। यह शुरुआत एक दिसंबर से ही मान्य है। यानी मार्च 2019 में 2000 रुपए की पहली किस्त जमा करा दी जाएगी। ऐसे प्रयोग तेलंगाना और ओडिशा सरकारें भी करती रही हैं, लेकिन उनकी राशि 8-10 हजार रुपए तक है। बजट का दावा है कि इससे करीब 12 करोड़ किसान परिवारों को फायदा होगा। जो यह गणना कर रहे हैं कि औसत किसान को 17 रुपए प्रतिदिन ही मिलेंगे, वे इस योजना की आत्मा से वाकिफ नहीं हैं। दरअसल यह तो किसानों का ‘जेब खर्च’ है। इसके अलावा, नए एमएसपी पर 50 फीसदी अतिरिक्त के दाम, फसल बीमा, क्रेडिट कार्ड पर दो फीसदी की छूट आदि योजनाएं उक्त सालाना राशि के अतिरिक्त हैं। एक लंबे अंतराल से यह बहस भी जारी रही है कि योजनाओं का पैसा किसान के बैंक खाते में सीधा जाना चाहिए। अब उसकी शुरुआत का स्वागत किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से इस योजना में एक छिद्र है कि जो भूमिहीन और खेतिहर मजदूर किसान हैं, उन्हें 6000 रुपए का लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे किसान करीब 52 फीसदी हैं और वे गरीब भी हैं। उन्हें ऐसा आर्थिक संबल देना मोदी सरकार ने क्यों नहीं सोचा? बहरहाल दूसरा मुद्दा है-असंगठित क्षेत्र के कामगारों और मजदूरों आदि का। बजट में उनके लिए पेंशन की योजना घोषित की गई है। कर्मचारी 100 रुपए प्रतिमाह जमा कराएगा और उतने ही कंपनी जमा करेगी। इस तरह एक कोष बनेगा। जो कामगार आज 40 साल का है और 20 साल बाद 60 की उम्र में वह रिटायर होता है, तो उसके बाद 3000 रुपए प्रतिमाह की पेंशन का वह हकदार होगा। पहली बात तो यह है कि कंपनियों में नौकरी स्थायी नहीं होती या खुद कामगार अलग-अलग जगह काम करने का आदी होता है। इस योजना से नौकरी का स्थायित्व बढ़ेगा, क्योंकि मजदूर जानता है कि कंपनी प्रबंधन की ओर से भी 100 रुपए हर महीने जमा किए जाने हैं। पूर्वाग्रही अर्थशास्त्री सवाल कर रहे हैं कि 20 सालों के बाद 3000 रुपए की कीमत क्या होगी? अब  रिटायर्ड  कामगार के हाथों में क्या  होता है, नतीजतन उसे बुढ़ापे में भी रिक्शा या ऑटो चलाना पड़ता है अथवा कोई न कोई काम करने को वह बाध्य होता है। कमोबेश उससे तो राहत मिलेगी। बुढ़ापा पेंशन राज्य सरकारों की अपनी राजनीति और धांधली है। दरअसल सामाजिक सुरक्षा की सोच और योजना हमारी व्यवस्था में गायब रही है। असंगठित क्षेत्र में करीब 42 करोड़ कर्मचारी देश की अर्थव्यवस्था के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। बजट में माना गया है कि इस योजना से करीब 10 करोड़ कामगारों को फायदा होगा। सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से ‘आयुष्मान भारत’ भी विश्व की सबसे बड़ी परियोजना है। करीब 11 करोड़ गरीब भारतीयों को  मुफ्त इलाज तो मिलेगा ही, लेकिन योजना के साथ-साथ रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे। अस्पताल बनेंगे, नर्सिंग स्टाफ रखा जाएगा, दूसरा बुनियादी ढांचा तैयार होगा, दवा और उपकरण सप्लाई करने वालों का कारोबार चमकेगा। यानी सामाजिक सुरक्षा के साथ रोजगार भी उपलब्ध होगा। ऐसे पहलुओं पर सदाशयता से सोचना चाहिए। बजट में मध्यम वर्ग, महिलाओं, शिक्षा के साथ-साथ मनरेगा और रक्षा के बजट भी अभी तक के सर्वाधिक किए गए हैं। यदि इन योजनाओं के कारण भाजपा को ज्यादा वोट मिलते हैं, तो क्या किया जाए, अलबत्ता देश की सूरत बदलने की कोशिश की जा रही है।


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