हिमाचली परिदृश्य में सोशल मीडिया

By: Feb 3rd, 2019 12:04 am

अजय पाराशर

लेखक धर्मशाला से हैं

0 ज़िला की एक कहावत है-‘गिल्लड़े बाजी रही भी नी हुंदा, कनै गिल्लड़े कन्नै घड़ें-घड़ें भी’ अर्थात किसी व्यक्ति या वस्तु के बिना गुज़ारा भी नहीं और उसकी संगति में असहजता भी महसूस करना। ़करीब छह सौ साल पहले पत्रकारिता का चोला पहनकर जन्मे मीडिया बाबा की पोटली से, हाल ही में निकले सोशल मीडिया के जिन्न ने धीरे-धीरे सबके दिलो-दिमा़ग को अपने जादू की ज़द में ़कैद कर लिया है।

जब सूचना के मामले में पूरी दुनिया ही सिमटकर मुट्ठी में समा चुकी हो और प्रसिद्ध जन संचार विशेषज्ञ मार्शल मैक्ल्यूहन के शब्दों में ‘पूरा विश्व ही वैश्विक गांव बन चुका हो’, ऐसे में कोई संसारी जीव कैसे अछूता रह सकता है? अब इसे ईश्वर की माया कहें या मीडिया बाबा की करामात, कौन जाहिल अपने हाथ में स्मार्ट ़फोन या अन्य नवीनतम उपकरण धरना नहीं चाहेगा। लेकिन किसी भी स्तर पर नवीनतम प्रौद्योगिकी की दीवानगी, हमें चेतना के अभाव में अपना ़गुलाम बना लेती है; और भारत जैसे देश में जहां व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना तथा उत्तरदायित्व, दोनों का अभाव हो, ऐसे में सोशल मीडिया की भूमिका पर विचार करना ज़रूरी हो जाता है।

इसमें कोई दोराय नहीं कि सूचना क्रांति के इस दौर में तमाम सूचना या ़खबरों से निरंतर अपडेट रहना, जागरूकता का पैमाना बन चुका है। अब ़खबरों का माध्यम केवल प्रिंट मीडिया, रेडियो या टी.वी. ही नहीं है। इंटरनेट के आने के बाद तो पूरा परिदृश्य ही बदल चुका है। रही-सही कसर फेसबुक, व्हाट्सएप, वीचैट, क्यूज़ोन, ट्विटर, इंस्टाग्राम, गूगल जैसे सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है। लिहाज़ा समय के दबाव ने त्वरित कार्यवाही के फेर में उत्तरदायित्व को कहीं हाशिए से भी परे धकेल दिया है। रही-सही कमी हमारी लिजलिजी कानून-व्यवस्था ने पूरी कर दी है। इन सब बातों के चलते विभिन्न संचार माध्यमों से प्रकाशित-प्रसारित समाचारों (अब इन्हें सूचना कहा जाना ही बेहतर होगा) में तथ्यपरकता की कमी और दृष्टिकोणपरकता में बढ़ोतरी अनुभव की जा सकती है। इन सब बातों के चलते पत्रकारिता अब ़खबरों तक सिमटती जा रही है।

संवेदनशीलता, उत्तरदायित्व और गंभीरता के अभाव में लोगों तक सच्चाई के स्थान पर प्रायः सनसनी ही पहुंच रही है। जब पूरा देश ही सोशल मीडिया की गिरफ्त में है, तो हिमाचल कैसे इससे अछूता रह सकता है। मुझे लगता है कि हिमाचल ही नहीं, पूरे देश पर सोशल मीडिया के प्रभावों को देखने के लिए हमें गंभीर एवं सहानुभूतिपूर्ण विवेचन करना होगा। हर पल फूटते सूचना के नए स्रोतों के मध्य समय तथा ज़िम्मेवारी का अभाव और उस पर बाज़ारवाद का प्रेत, मीडिया विशेषकर प्रिंट मीडिया को सरापा निगलने को तैयार खड़े हैं। हिमाचल में पिछले साल कई वेब पोर्टल अस्तित्व में आए।

आजकल हर पंद्रह दिन या महीने में कोई न कोई, पत्रकारिता का दीवाना या अपने ़गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार के चलते किसी अ़खबार से लतियाया गया या बाज़ार के दबावों के चलते निकाला गया शख्स अपना वेब पोर्टल खोलकर बैठ जाता है। न किसी अनुमति या कहीं जाने की ज़रूरत और न ही कोई ज़िम्मेवारी। तमाम झंझटों से मुक्ति पाते हुए, आपको किसी भी सोशल मीडिया जैसे क्लाउड पर अपना पंजीकरण करवाने के बाद पोर्टल सैटिंग कऩिफगर करनी होगी या इंटरनेट पर सर्वर आरंभ करने के बाद, आपको नई पोर्टल साइट बनानी होगी, पोर्टलैट बनाने के बाद इसे पोर्टल को दर्शाना होगा और अंतिम चरण में लुक को अपटेड करना होगा। इस तरह आप 24 घंटे उपलब्ध ऑन-लाइन सहायता से कभी भी अपना पोर्टल आरंभ कर सकते हैं।

लिहाज़ा पत्रकारिता की बात छोड़ें, अब मानव या नैत्तिक मूल्य भी गुज़रे ज़माने की बातें बनते जा रहे हैं। पल-पल छीजती भाषा के साए तले खोज और विश्लेषण के अभाव में, हर बात और तथ्य  के अपने अर्थ निकाले जा रहे हैं। विगत में तमाम बातों के दबाव के बावजूद उत्तरदायित्व, संवेदना और खोज का अभाव नहीं था। अतः जीवन के हर क्षेत्र में सामान्य समझ थी; विवेचन एवं विश्लेषण तथ्यपरक था, दृष्टिकोणपरक नहीं। अब मानदंड बदल रहे हैं। अगर सही बात पता न भी हो, तो उसे मनमरज़ी से सोशल मीडिया पर आगे धकेला जा सकता है। उदाहरण के लिए सोशल मीडिया पर ़करीब तीन साल पहले धर्मशाला में एक ऐसी लड़की के बलात्कार की ़खबर (अ़फवाह) फैली, जो पूरी तरह काल्पनिक थी। इस अ़फवाह ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया।

बिना किसी तसदी़क के लोग अ़फवाह के यज्ञ में ऐसे शामिल हुए कि मानो बिना आहुति के उनका जीवन निष्फल हो जाएगा। अ़फवाहों की ऐसी हाट सजी कि भांड भी शरमा जाएं। प्रेस, पुलिस और ज़िला प्रशासन अपना दायित्व निभाने में असफल रहे। ़करीब महीने भर चले इस नाटक का पटाक्षेप अभी भी नहीं हुआ है। लोग अब भी मानते हैं कि लड़की से रेप हुआ था और पुलिस ने प्रभावशाली लोगों को बचाया है। अ़फवाहों के इस बाज़ार में हिमाचल भर के लोग शरीक हुए और आरोपियों के नाम भी बदलते रहे। कई लोगों ने आरोपियों के रूप में अपने मु़खालि़फों के नाम सोशल मीडिया पर डालकर, अपनी भड़ास भी निकाली। इसी तरह कोटखाई में नाबालिग लड़की से हुए बलात्कार और उसकी मौत की ़खबर में भी सोशल मीडिया पर अ़फवाहों का ऐसा मिश्रण हुआ कि पुलिस ने दबाव में बे़कसूर लोग उठा लिए और उनसे ज़ुर्म ़कुबूल करवाने के चक्कर में हुई एक आरोपी की मौत के बाद गिरफ्तार नौ पुलिस वाले, आज तक जेल में बंद हैं।

सीबीआई की जांच के बावजूद असली ़कातिल को लेकर आज तक संशय बऱकरार है। इसी साल (2018) के आरंभ में नूरपुर में हुए स्कूल बस हादसे में भी कुछ वेब पोर्टल ने ऊल-जलूल ़खबरें चलाकर सनसनी फैलाने की कोशिश की। इस मुहिम में दो अ़खबार भी निजी कारणों से शामिल हो गए थे। ऐसे ही कुछ अन्य बस दुर्घटनाओं में लोगों ने पुराने फोटो डालकर सनसनी फैलाने की कोशिश की। अब इसे विकृत भावनाओं का तुष्टिकरण कहिए या कोई अन्य नाम दें, समाज और मानवता को नु़कसान पहुंचाने वाले तो अपना काम कर जाते हैं। इसी तरह पिछले माह तीन-चार वेब पोर्टल ने धर्मशाला में कुछ संदिग्ध देखे जाने की ऐसी मुहिम चलाई (अ़फवाह फैलाई) कि पुलिस विभाग के उत्तरी क्षेत्र के आईजी को बा़कायदा प्रेस वक्तव्य जारी कर, उसका खंडन करना पड़ा। सोशल मीडिया का हाल ही कुछ ऐसा है कि आप जब चाहें, कुछ भी लिखकर अपने दिल की भड़ास निकाल लें।

कोई ज़िम्मेवारी नहीं, न कोई पूछने वाला और न कोई सजा। कुछ लोग तो अपनी ़फेसबुक पर ही ऐसी ़खबरें चिपकाने से बाज़ नहीं आते। एक-दूसरे को ़गालियां देने और चुभते बयान जारी करने का इससे बेहतर ज़रिया और क्या हो सकता है? लेकिन ऐसी हठधर्मिता और ़गैर-ज़िम्मेवाराना निजी या सामाजिक व्यवहार से किसको ़फायदा होता है? शायद किसी को भी नहीं। अपनी शख्सियत के निचले तल में विचरते हुए किया गया व्यवहार व्यक्ति को ़खुद ही परेशान करता है। लेकिन लोगों का ़खुमार धीरे-धीरे उतरने लगा है और अब कई लोग सोशल मीडिया पर कमेंट या पोस्ट करने से गुरेज़ करने लगे हैं।

केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बाद व्हाट्सएप पर एक समय में पांच से ज़्यादा लोगों को पोस्ट किए जाने पर लगाई गई पाबंदी और भड़काऊ या ़गैर-ज़िम्मेदाराना पोस्ट डालने पर व्यक्ति की पहचान उजागर होने तथा  संभावित परिणामों से लोग अब डरने लगे हैं। इसका अर्थ है शिक्षा या मूल्य नहीं, ़कानून का डर ही व्यक्ति को ज़िम्मेदारी का एहसास दिलाता है। उम्मीद है कि सरकार

जल्द ही वेब पोर्टल के संबंध में भी कुछ ऐसा ़फैसला लेगी। ़

गौरतलब है कि जब सामुदायिक या मनोरंजक रेडियो तथा चैनल को ़खबरों के प्रसारण भी मनाही है, अ़खबारों को भी निर्दिष्ट अधिकारी से अनुमति लेनी होती है, तो फिर यह अपवाद क्यों? सोशल मीडिया की आमद ने तमाम तरह के दबावों के मध्य काम कर रहे प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को बुरी तरह प्रभावित किया है। भले ही कई अ़खबार या ़खबरिया चैनल अपनी भूमिका और गुणवत्ता से समझौता नहीं कर रहे हैं; लेकिन तमाम कारणों से उन पर भी प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक हैं। वापिसी अब भी संभव है, बशर्ते बाज़ार का दबाव कम हो, सामाजिक दबाव बढ़े तथा मीडिया आवश्यक संवेदनशीलता, ज़िम्मेवारी तथा गांभीर्य का परिचय दें।


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