कीलों की चुभन में

By: Mar 17th, 2019 12:04 am

पाठक की गवाही

ये कहानियां सामाजिक वजूद से लड़ रही हैं। उस खोखलेपन की दीवारों से झांक रही हैं, जो हमें दिखाई नहीं देता या हम देखना नहीं चाहते। अपने संबोधन की परख में एसआर हरनोट की कहानियों का एक अलग परिवेश ‘कीलें’ संग्रह के मार्फत जो बता रहा है, उसकी चुभन से आम पाठक भी गवाह बन जाता है। ‘भागा देवी का चाय घर’ में कहानी के बीच चिंतन केवल चरित्र को नहीं, बल्कि पर्यावरण को भी उकेर देता है।

कथानक के भूगोल, अर्थशास्त्र, सांस्कृतिक परिदृश्य और सामाजिक आवरण पर वक्त के छींटे दिखाई देते हैं, तो औरत के टीके से बहता मेहनत का पसीना स्पष्ट  हो जाता है। अनगढ़े पत्थरों पर जैसे करीने से कोई मूरत बनाकर हरनोट ने कहानी के बीच पर्यावरण को समेट लिया हो। यह लेखक की सदा खूबी रही है कि एक साथ सामाजिक दर्पण में भी प्रकृति के अनेक रिश्ते प्रतिबिंबित होते हैं।

‘कीलें’ महज एक प्रश्न नहीं, बल्कि हजारों प्रश्नों का घेरा है, जो अनंतकाल से हम सभी के आसपास रहा है। जिंदगी के ढकोसलों से बाहर जीवन की मर्यादा खोजती कहानी का संघर्ष नापाक रूढि़यों से है और अंत में सवाल उसी देवता से जिसने खुद को भी किसी न किसी कवच में रखा है। सामाजिक विराम से आगे चिंतन की ये ‘कीलें’ उद्वेलित करती हैं और कहीं विश्वास की छाती में घुसी कील से मुखातिब होने का दंड भी रेखांकित है।

‘फूलों वाली लड़की’ में हम कहानी से कहीं अधिक शारीरिक भाषा से जो सुनते हैं, उससे संवेदना के कान फट सकते हैं। कहानी की सादगी व सौम्यता में ही नारी सम्मान का संघर्ष जब भिखारियों के बीच समाज को पनाह देता है, तो ऊंचे ओहदे व उच्च पदस्थ प्रतिष्ठा भीगी बिल्ली बनकर आंख मूंद लेती है। जाहिर है एसआर हरनोट की कहानियां सामाजिक अवलोकन की तह पर जमी फंफूद को हटाने से वृतचित्र सी कलम बन जाती हैं और ‘भीख मांगते जीवन की कटोरी में’ अपना अक्स खोज लेती हैं।

‘लोहे का बैल’, तो हर पाठक के करीब खड़ा है, बस इसे छूने की देरी भर है। महत्त्वाकांक्षा की पतंग ऊपर चढ़ाते हुए हम यह भूल जाते हैं कि यह आकाश तक पहुंचने की हवा नहीं डोर पर चढ़े मांजे से घायल होने की कवायद है। जीवन की खाइयों के बीच का कंद्रन, रिश्तों के बदलते संबोधनों का घर्षण, पहचान का संघर्ष और गिड़गिड़ाते हैसियत के नकाब हमसे कुछ पूछ रहे हैं। यहां जातीय छलांग का कोहराम गूंजता है, तो पूरे युग के कान बंद हो जाते हैं। कमोबेश हरनोट की हर कहानी में अनेक बिंदुआें से विमर्श और वार्तालाप होता है।

‘पत्थर का खेल’ मानवीय प्रवृत्ति के परिवर्तन में अपने आसपास की दुर्गंध के प्रतीकों की पत्थरबाजी ही तो है, इसलिए जातियों की विभाजक रेखा पर कहानी का मोम पिघलता है, तो समाज के पांव दर्द से कराह उठते हैं। लेखक ‘सीतु’ के निर्लिप्त मन से लिखता हुआ उस चौराहे तक पहुंच जाता है, जहां ढोंग और फरेब  ही मानवता के गहने बन रहे हैं। मनुष्य जीवन के मिजाज पर जख्मों से लबरेज यह कहानी हमारे बीच के पत्थरबाजों को ढूंढ ही लेती है। यहां मानसिक चिंगारियां यूं यकायक ‘आग’ नहीं बनतीं, बल्कि उनके साथ माहौल का ईंधन अपना काम करता है।

‘आग’ के इर्द-गिर्द का ताप कई भट्टियों पर चढ़ा है, तो प्रसंगवश यह कहानी दाभोलकर, पंसारे और प्रो. कुलबुर्गी की हत्याओं के कारण ढूंढते हुए समाज के तमाम पर्दे हटा देती है। कहानी के भीतर भारत के कई युग और आंदोलन, धर्म के मुसाफिर और ठेकेदार, लेकिन लेखकीय सरोकारों पर देश की चश्मदीद गवाही अंत में फिदा हो जाती है।

‘फ्लाई किल्लर’ मात्र एक दृष्टांत नहीं, बल्कि मौत के घेरे में जिंदगी का पूरा वाकया है। कहानी की आंखों में हजारों क्रांतियां तैरती हैं, तो जाहिर तौर पर लेखक की भीतरी जद्दोजहद को रोक पाना मुश्किल है। न जाने कितने पोस्टर, सूचनाएं, नीतियां अपनी विफलताओं से उलझ रही हैं। कहानी में ‘पैसों के बोझ की थकान’ का जिक्र हर उस जिगर से पूछ रहा है जो देश के पैगंबर बनकर, समाज का अंतिम सौदा करने पर उतारू रहते हैं।

कुल सात कहानियों से सजे इस संग्रह में आसपास की कीलों पर चोट करते, सपनों की मशक्कत और यथार्थ की टूटन से गुजरते संवेग की नई परिभाषा हरनोट ने गढ़ी है, जो मौलिक तथा मर्मस्पर्शी है। इन कहानियों में आप खुद को टटोल सकते हैं या ऐसा बहुत कुछ चुन सकते हैं, जो भाषा की संवेदना को नए प्रयोगों की माटी प्रदान कर रहा है।

-निर्मल असो 

 


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