छोटे उद्योगों को संरक्षण कैसे

By: Mar 5th, 2019 12:08 am

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

छोटे उद्योगों को संरक्षण देने का दूसरा आधार उद्यमिता के विकास का है। धीरूभाई अंबानी जैसे महान उद्योगपति किसी समय छोटे उद्योग चलाते थे। यदि छोटे उद्योगों को संरक्षण नहीं दिया जाता, तो धीरूभाई जैसे लोग कोई उद्यम शुरू कर ही नहीं पाते और उनकी उद्यमिता का विकास नहीं होता। जिस प्रकार छोटे बच्चे को संरक्षण देकर बड़ा किया जाता है, उसी प्रकार छोटे उद्योगों को संरक्षण देकर देश की उद्यमिता का विकास किया जाता है…

नोटबंदी और जीएसटी के लागू होने के बाद छोटे उद्योगों की परेशानियां बढ़ी हैं। इन कदमों से उनकी पूर्व से ही बढ़ती हुई परेशानियां और आगे बढ़ी हैं। छोटे उद्योगों के मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2014 में देश के कुल उत्पाद में छोटे उद्योगों का हिस्सा 29.8 प्रतिशत था, जो 2016 में घटकर 28.8 प्रतिशत हो गया था। जीएसटी तथा नोटबंदी के बाद यह गिरावट और तीव्र हुई है, ऐसा हम समझ सकते हैं। छोटे उद्योगों की इन बढ़ती समस्याओं का मुख्य कारण आधुनिक तकनीकें हैं। आटोमेटिक मशीनों से बने माल की उत्पादन लागत कम पड़ती है, जैसे आधुनिक कपड़ा मिल में बनाया गया कपड़ा सस्ता पड़ता है, जबकि हथकरघा द्वारा बनाया गया कपड़ा महंगा पड़ता है। इसलिए उपभोक्ता की दृष्टि से आटोमेटिक मशीनों को बढ़ावा देना उचित लगता है। यही कारण है कि छोटे उद्योगों की परिस्थिति बिगड़ रही है। फिर भी छोटे उद्योगों को संरक्षण देने का आर्थिक कारण बनता है। मान लीजिए एक लाख मीटर कपड़ा बुनने में कपड़ा मिल में 100 रोजगार बनते हैं, जबकि हथकरघे से उतने ही कपडे को बनाने में दस हजार रोजगार बनते हैं। ऐसे में यदि हथकरघों को समाप्त करके वह कपड़ा केवल कपड़ा मिल से बनाया जाए, तो 9900 बुनकर बेरोजगार हो जाएंगे। सरकार को इन बेरोजगारों पर कल्याणकारी खर्च बढ़ाने होंगे, जैसे मनरेगा अथवा इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत। अतः कपड़ा मिल से उपभोक्ता को सीधे सस्ता कपड़ा मिलेगा, लेकिन साथ ही कल्याणकारी खर्च बढ़ने से उसके ऊपर टैक्स का बोझ भी बढ़ेगा।

अंततः उपभोक्ता को शायद लाभ न हो। इसलिए पहले बुनकरों को बेरोजगार बनाकर फिर उनके ऊपर कल्याणकारी खर्च करने से बेहतर हो सकता है कि हम उन्हें सीधे संरक्षण दें और कल्याणकारी खर्चे के टंटे में न पड़ें। छोटे उद्योगों को संरक्षण देने का दूसरा आधार उद्यमिता के विकास का है। धीरूभाई अंबानी जैसे महान उद्योगपति किसी समय छोटे उद्योग चलाते थे। यदि छोटे उद्योगों को संरक्षण नहीं दिया जाता, तो धीरूभाई जैसे लोग कोई उद्यम शुरू कर ही नहीं पाते और उनकी उद्यमिता का विकास नहीं होता। जिस प्रकार छोटे बच्चे को संरक्षण देकर बड़ा किया जाता है, उसी प्रकार छोटे उद्योगों को संरक्षण देकर देश की उद्यमिता का विकास किया जाता है। उद्यमिता के विकास से देश में उत्पादन बढ़ता है, माल की उत्पादन लागत कम होती है और उपभोक्ता को सस्ता माल मिलता है। इस प्रकार यदि छोटे उद्योगों को संरक्षण दिया जाए, तो उपभोक्ता का कांटा बराबर बैठ जाएगा। इन कारणों से छोटे उद्योगों को समर्थन देना चाहिए, इस बात के बावजूद कि उनकी उत्पादन लागत ज्यादा आती है। प्रश्न है कि अब छोटे उद्योगों को यह संरक्षण दिया कैसे जाए। पहला उपाय है कि पूंजी सघन और श्रम सघन उद्योगों पर अलग-अलग दर से जीएसटी तथा इनकम टैक्स आरोपित किया जाए। जैसे मान लीजिए आज कपड़े पर 12 प्रतिशत जीएसटी लगाई जाती है। यह दर छोटे और बड़े उत्पादकों पर एक समान रहती है। ऐसे में सरकार व्यवस्था कर सकती है कि श्रम सघन कपड़ा उत्पादकों पर जीएसटी की दर घटा कर पांच प्रतिशत कर दे और बड़े कपड़ा उत्पादकों पर जीएसटी की दर बढ़कर 18 प्रतिशत कर दे। ऐसा करने से समग्र कपड़ा उद्योग पर जीएसटी की दर पूर्ववतः लगभग 12 प्रतिशत रहेगी, लेकिन उत्पादकों में श्रम सघन छोटे उत्पादकों को राहत मिलेगी। उनका उत्पादन बढ़ेगा, क्योंकि वे बड़े उत्पादकों का सामना कर सकेंगे। छोटे उद्योगों का धंधा चल निकलेगा, जिससे ऊपर बताए गए लाभ अर्थव्यवस्था को हासिल होंगे। इस फार्मूले में समस्या यह है कि बड़े उत्पादकों द्वारा कपडे़ के निर्यात की लागत ज्यादा आएगी, क्योंकि उन पर 18 प्रतिशत जीएसटी आरोपित होगी। इसका उपाय यह है कि उन्हें कुछ रकम निर्यात सबसिडी के रूप में दे दी जाए, जिससे कि निर्यात प्रभावित न हों। छोटे उद्योगों को समर्थन देने का दूसरा उपाय जीएसटी के अंतर्गत कंपोजीशन स्कीम में परिवर्तन करने का है। वर्तमान में छोटे उद्योगों पर केवल एक प्रतिशत जीएसटी देय होती है, लेकिन इसमें समस्या है कि छोटे उद्योगों द्वारा कच्चे माल की खरीद पर जो जीएसटी अदा की जाती है, उसका रिफंड नहीं मिलता है। जैसे एक बड़े उद्यमी ने अस्सी रुपए का कच्चा माल खरीदा और उस पर 12 प्रतिशत की दर से जीएसटी अदा किया। 20 रुपए की उसने वैल्यू एड की और यह रकम जोड़ करके उसने 100 रुपए में उस माल को बेचा जिस पर 12 प्रतिशत यानी 12 रुपए उसने जीएसटी अदा की और खरीददार को कुल 112 रुपए में इस माल को बेचा। अब खरीददार ने इस 112 रुपए में 12 रुपए का जीएसटी का रिफंड प्राप्त कर लिया और उसकी शुद्ध लागत केवल 100 रुपए आई।

इसकी तुलना में अब छोटे उद्यम की स्थिति को समझें। छोटे उद्यमी ने भी 80 रुपए में कच्चे माल को खरीदा, उस पर 12 प्रतिशत की दर से 9.60 रुपए जीएसटी अदा की और 20 रुपए उत्पादन खर्च जोड़कर उसकी शुद्ध लागत 109.60 पड़ी। इसमें 1 प्रतिशत से उसने जीएसटी अदा की और कुल 110.60 रुपए में इस माल को बेचा, परंतु उसके द्वारा बनाए गए माल को खरीदने वाले को जो 10.60 (9.60 एवं 1 रुपए) की जीएसटी छोटे उद्यमी ने अपने कच्चे माल पर अदा किया था, वह रिफंड नहीं मिलता है। इसलिए छोटे उद्यमी से खरीदने पर खरीददार को कुल 110.60 रुपए अदा करने पड़ते हैं। इससे स्पष्ट होगा कि वर्तमान व्यवस्था में बड़े उद्यमी से माल खरीदने पर लागत 100 रुपए आती है, जबकि छोटे उद्यमी से उसी माल को खरीदने पर लागत 110.60 रुपए आती है। यही कारण है कि छोटे उद्यमी दबाव में आ रहे हैं। इसका उपाय यह है कि छोटे उद्यमियों को अपने कच्चे माल पर अदा किए गए जीएसटी का नगद रिफंड देने की व्यवस्था की जाए। तीसरा उपाय यह है कि छोटे उद्यमों को कर्ज देना बैंक मैनेजरों के लिए लाभप्रद बना दिया जाए। वर्तमान व्यवस्था यह है कि रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों को आदेश दिया जाता है कि कुछ रकम छोटे उद्यमियों को ऋण के रूप में दें, लेकिन बैंक मैनेजरों के लिए तमाम छोटे-छोटे उद्यमियों को छोटे-छोटे ऋण देने में झंझट और रिस्क अधिक होती है, इसलिए वे छोटे उद्यमियों को ऋण देने में रुचि नहीं रखते हैं।

वे पसंद करते हैं कि छोटे उद्यमियों को ऋण देने के स्थान पर उस रकम को नियमानुसार रिजर्व बैंक के पास जमा करा दें। इस समस्या का उपाय यह है कि सरकार जो छोटे उद्यमियों को ऋण में सबसिडी देती है, उसका कुछ हिस्सा बैंकों को इनसेंटिव के रूप में दे, तब बैंक मैनेजर, जो छोटे उद्योगों को ऋण अधिक संख्या में देंगे, उनकी शाखा का लाभ बढ़ेगा और वे छोटे उद्योगों को ऋण देने में रुचि लेंगे। ऐसा करने से हम छोटे उद्योगों को बढ़ावा दे सकते हैं और रोजगार और उद्यमिता का विकास कर सकते हैं।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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