निंदा का सूचक

By: Mar 30th, 2019 12:05 am

इस प्रकार कहना पड़ेगा कि धारणा ही हमारे जीवन को बनाती है और हमारी धारणाओं को हमारे आसपास के लोग ही बनाते हैं, अगर हम बुद्ध पुरुषों की संगत में रहते हैं तो इनके पास एक स्वर पाएंगे कि परमात्मा हमारे अंग-संग है, ये अंशी है और हम इसके अंश हैं…

बाबा हरदेव

मानो सबको छोटा करो सबको बुरा कहो तो हमें अच्छा लगता है और अगर अच्छे लोग हों चारों तरफ तो हमें बड़ी पीड़ा होती है। ऐसी मनोस्थिति ही ‘निंदा’ की सूचक है।  अब ऊपर जो कुछ वर्णन किया गया है, ये मनोस्थिति है, निदंक की, अज्ञानी की और इससे ठीक उल्ट हृदय की स्थिति होती है, ज्ञानी की। क्योंकि पुरुष निर्णय तभी देता है, जब ये निर्णय सत्य की तरफ ले जाने वाला हो, अन्यथा ये निर्णय को रोक लेता है, क्योंकि बुरे को बुरा कहना उसे और बुरा बनाने की व्यवस्था देना है। मानो भले ही भला कहना उसे भले की तरफ सहारा  देना है। महात्माओं का मत है कि अगर एक बुरे आदमी को भी सारा समाज भला कहने लगे, उसे बुरा होना मुश्किल हो जाएगा। मानो अगर एक बुरे आदमी को भला मानने को मिल जाता है, तो उसके भीतर नए बीज फूटने शुरू हो जाते हैं, फिर वो कोशिश करता है कि कम से कम एक आदमी की आंख में ये भला बना रहे।  इससे विपरीत जब हम सब मिलकर किसी आदमी को बुरा कहने लग जाते हैं, तो हम दरअसल इसे धक्के दे रहे होते हैं और धीरे-धीरे हम उसे विश्वास दिला रहे होते हैं कि वो बुरा है। चुनांचे इस सूरत में न केवल वो आदमी बुरा होगा, बल्कि जब कभी वो पाएगा कि वो बुरा नहीं तब उसको भी बेचैनी होगी,क्योंकि हमने जो उसकी प्रतिभा बनाई है उस प्रतिभा के साथ वो पक्का मेल कर लेता है।  मनस्विद ठीक ही कहते हैं कि जिन बच्चों को स्कूल के शिक्षक घर में मां-बाप और परिवार के लोग कहते हैं कि ये बच्चा नालायक है, वह बच्चा धीरे-धीरे मान ही लेता है कि ठीक है, जब सब उसे नालायक कहते हैं ठीक ही कहते होंगे।  मनो फिर नालायक होने को राजी हो जाता है और अगर फिर उसमें समझदारी की कोई किरण आए भी तो वह उसे दबाता है। क्योंकि ये इसकी प्रतिभा के बिलकुल विपरीत है। इस बात पर बहुत प्रयोग किए गए हैं।  मानो ‘निंदा’ सामाजिक बुराइयों की जनक है। इस प्रकार कहना पड़ेगा कि धारणा ही हमारे जीवन को बनाती है और हमारी धारणाओं को हमारे आसपास के लोग ही बनाते हैं, अगर हम बुद्ध पुरुषों की संगत में रहते हैं तो इनके पास एक स्वर पाएंगे कि परमात्मा हमारे अंग-संग है,ये अंशी है और हम इसके अंश हैं। इससे कम इनकी कोई उद्घोषणा नहीं होती। ये हमें यही याद दिलाते रहते हैं कि हम ब्रह्म स्वरूप है और ये स्मृति हमारे भीतर घनी होने लगती है ये बात हमारे भीतर गहरे में बैठनी शुरू हो जाती है।  चुनांचे हम पाते हैं कि जिसको हम बुरा कह रहे हैं वह भी हम खुद ही हैं और जिसको हम भला कह रहे हैं वह भी हम  हैं, क्योंकि हम एक इकाई है अद्वैत की, मगर हमें किसी ने स्मरण नहीं दिलाया।  इस बात का और जिसने भी हमें स्मरण दिलाया है, गलत स्मरण दिलाया है किसी ने कहा है ‘हम शरीर है हम मन है, हम बुद्धि है,’ किसी ने हमें पद, प्रतिष्ठा तो किसी ने हमें पदार्थ से जोड़ दिया है, इसी कारण हम दूसरों की निंदा करने लग गए हैं और ये सब हमारी मूर्खता और मनमुखता का परिणाम है। निंदा भली किसै की नाही मनमुख मुग्ध करंनि


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