किशोरों का गिरता स्वास्थ्य स्तर

By: Apr 12th, 2019 12:05 am

भूपिंदर सिंह

राष्ट्रीय एथलेटिक प्रशिक्षक

गेहूं, मक्का आदि अनाज हमारे अपने खेत में आज भी हो जाता है, मगर उसे न खाकर हम सस्ते डिपो से मिलने वाले बिना प्रोटीन के आटे की रोटी खा रहे हैं। हमारे खाने से हमें मिलने वाला परंपरागत प्रोटीन, जो हमें दूध, गेहूं व दालों से मिलता था, आज नहीं मिल पा रहा है। यह भी एक बड़ा कारण है कि हमारे विद्यार्थी सामान्य फिटनेस टैस्ट को भी पास नहीं कर पा रहे हैं। फौज व पुलिस में भर्ती होने के लिए भी आज का युवा दो-तीन वर्षों तक ट्रेनिंग ले रहा है, तब कहीं शारीरिक फिटनेस टैस्ट पास कर पा रहा है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी आने वाली पीढ़ी चालीस वर्ष में ही साठ की नजर आने लगे…

हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी प्रदेश है, मगर आज हर गांव तक सड़क होने के कारण मानव का पैदल चलना बहुत कम हो गया है। किसानी-बागबानी में भी जब भर पेट गुजारा नहीं हो पा रहा है, तो हर परिवार अपने बच्चों को पढ़ाई की तरफ इतना मोड़ चुका है कि वह अपने बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में भी भूल चुका है। खेल छात्रावासों के लिए हुए ट्रायलों में सैकड़ों किशोर-किशारियों में से शायद ही अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रतिभावान खिलाड़ी मिलते हों। हमारे प्रदेश में ही नहीं, अपितु पूरे देश में बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में अभिभावक अभी तक अंधेरे से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। 20वीं सदी में विज्ञान व प्रौद्योगिकी ने इतनी उन्नति की कि आज हर व्यक्ति आधुनिक सुविधाओं का उपयोग कर रहा है, मगर स्वास्थ्य के साथ बहुत खिलवाड़ भी हुआ है।

यही कारण है कि आधुनिकता की इसी अंधी दौड़ में अंतरराष्ट्रीय भाईचारा व मैत्री तो बहुत दूर की बात है, मनुष्य अपने परिवार को ही कलह से नहीं बचा पा रहा है। खेल जहां मनुष्य के स्वास्थ्य को सुधारते हैं, वहीं पर सबके साथ मिलकर चलना भी सिखाते हैं। संसार में हर चार वर्ष बाद होने वाले ओलंपिक खेलों से जहां हमें पूरे संसार को मैत्री व भाईचारे का संदेश मिलता है, वहीं पर इस खेल की पदक तालिका यह भी बताती है कि कौन सा देश कितना खुशहाल है और किस देश ने कितनी प्रगति की है और उस देश का चिकित्सा व प्रौद्योगिकी में कौन सा मुकाम है। विश्व के सभी विकसित देश क्रम में पदक तालिका के ऊपर चमकते हर ओलंपिक में देखे जा सकते हैं। जैसे विश्व स्तर पर हमारे देश का खेलों में पिछड़ापन सबके सामने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आता है, ठीक उसी प्रकार अधिकतर खेलों में हिमाचल अभी बहुत पीछे चल रहा है। हिमाचल प्रदेश में अधिकतर खड़ी ढलानें होने के कारण खेल मैदानों का बिलकुल अभाव है।

सैकड़ों वर्ष पूर्व राजाओं ने मेलों व उत्सवों के लिए अपनी-अपनी रियासतों में एक-दो मैदान तो जरूर बनाए थे। आजादी के बाद इन सत्तर वर्षों में प्रदेश के हजारों शिक्षा संस्थान खुले, जहां पहली कक्षा से लेकर आगे की हर प्रकार की पढ़ाई आज हो रही है, मगर इन हजारों संस्थानों में से कुछ शिक्षा संस्थानों के पास भी पर्याप्त खेल मैदान नहीं हैं। जब शिक्षा संस्थान के पास खेल मैदान नहीं है, विद्यार्थी संस्थान से लेकर घर तक वाहन में आ-जा रहा है, घर पर कोई काम नहीं है, ऐसे में आज के किशोर विद्यार्थी से लेकर युवा तक के लिए कोई भी फिटनेस प्रोग्राम नहीं है, जबकि दो-तीन दशक पूर्व तक विद्यार्थी कई किलोमीटर पैदल अपने शिक्षा संस्थान तक आता और जाता था। हिमाचल में अधिकतर लोगों का पेशा किसानी व बागबानी होने के कारण घर पर भी काम अभिभावकों की सहायता के लिए विद्यार्थी करते थे। आज यह सब बंद पड़ा है। विद्यार्थी संस्थान व घर के कमरों में बंद होकर ही रह गया है। विद्यार्थियों के स्वास्थ्य के बारे में आज हमें एक अच्छे फिटनेस कार्यक्रम की जरूरत है। उसके लिए अभिभावकों व शिक्षा संस्थानों दोनों को अब जल्द ही सोचना पड़ेगा। पहले पंजाब में नशे के सौदागरों ने पूरी जवानी को तबाह किया। अब स्मैक जैसा घातक नशा हिमाचल के स्कूली लड़के-लड़कियों तक पहुंच चुका है।

इसके बारे में भी सरकार-अभिभावकों दोनों को सचेत रहने की बहुत जरूरत है। इस सबके लिए हमें अपने बच्चों को बचपन से ही खेल मैदान तक पहुंचाना होगा। तभी हम विभिन्न प्रकार के नशों से अपने बच्चों को दूर रख सकते हैं। हमारे रहन-सहन का तरीका जो आज हमने अपना रखा है, वह हमारे स्वास्थ्य का सबसे बड़ा शत्रु है। शारीरिक श्रम से दूर बैठा किशोर व युवा गैर पौष्टिक खाने से मोटापे या कमजोरी से जूझ रहा है।

हिमाचल में अधिकतर लोग मांस नहीं खाते हैं। हमारा खाना शाकाहारी अधिक रहा है। अधिकतर ग्रामीण परिवेश होने के कारण हर घर में गाय या भैंस जरूर होती थी, मगर पिछले एक दशक से तो इसमें इतनी कमी आई है कि पूरे गांव में अब केवल दो-चार घरों में ही दूध देने वाली गाय-भैंस मिलती हैं, शेष का क्या होता है, इसका उत्तर कहां है। गेहूं, मक्का आदि अनाज हमारे अपने खेत में आज भी हो जाता है, मगर उसे न खाकर हम सस्ते डिपो से मिलने वाले बिना प्रोटीन के आटे की रोटी खा रहे हैं। हमारे खाने से हमें मिलने वाला परंपरागत प्रोटीन, जो हमें दूध, गेहूं व दालों से मिलता था, आज नहीं मिल पा रहा है। यह भी एक बड़ा कारण है कि हमारे विद्यार्थी सामान्य फिटनेस टैस्ट को भी पास नहीं कर पा रहे हैं। फौज व पुलिस में भर्ती होने के लिए भी आज का युवा दो-तीन वर्षों तक ट्रेनिंग ले रहा है, तब कहीं शारीरिक फिटनेस टैस्ट पास कर पा रहा है। अभिभावकों, शिक्षा संस्थानों व सरकार को इस विषय पर गहन चिंतन करने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी आने वाली पीढ़ी चालीस वर्ष में ही साठ की नजर आने लगे।

ई-मेल-bhupindersinghhmr@gmail.com


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