लोकतंत्र और संस्थानों की रक्षा

By: Apr 5th, 2019 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

अगर कोई है जिसने संस्थानों की स्वतंत्रता को नष्ट किया है तथा उनकी कार्यशैली को कुप्रभावित किया है, तो यह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी हैं। उन्होंने विपक्ष को रैलियां करने की अनुमति नहीं दी तथा कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियों के कामकाज में अवरोध खड़े किए। लोकतंत्र पर सबसे बुरा हमला शारदा घोटाले में जांच शुरू करने के लिए सुविधाएं देने से सीधा इनकार करना है, जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी आदेश दिए थे। उन्होंने न केवल जांच के लिए आई केंद्रीय टीम को राज्य में प्रवेश करने से इनकार कर दिया, बल्कि सरकारी अधिकारियों को हिरासत में भी ले लिया। अंततः सीबीआई को जांच का काम राज्य से बाहर ले जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेश लेने पड़े…

इन दिनों विपक्ष और कुछ स्वतंत्र विश्लेषकों की ओर से आमतौर पर जो चिंता प्रकट की जा रही है, वह यह है कि एनडीए सरकार संवैधानिक संस्थानों को नुकसान पहुंचा रही है तथा विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी कमजोर किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर यह आरोप भी है कि वह तथा उनकी सरकार संस्थानों की प्रभावशीलता को फीका तथा कमजोर कर रही है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन तथा नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन अपनी आवाज उठाकर यह चिंता प्रकट कर रहे हैं कि संस्थानों को नुकसान पहुंच रहा है, क्योंकि मोदी इनकी स्वतंत्रता तथा गरिमा को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

बड़ी संख्या में पत्रकार तथा वे लोग जो टुकड़े-टुकड़े गैंग से संबंधित हैं, दिन-रात यह मसला उठा रहे हैं कि लोकतंत्र को खतरा पैदा हो गया है। इसके कारण तथा रक्षा व वैज्ञानिक क्षेत्र में देश की उपलब्धियों को लेकर गलत जानकारियों के प्रसार के कारण संदेह की छाया उभरी है। संस्थानों की आधारभूत स्वतंत्रता तथा प्रभावशीलता पर इस प्रकार के संदेह को बाहर के देशों तक प्रसारित किया जा रहा है जो देश के हितों को बुरे तरीके से प्रभावित कर रहा है। सबसे बुरी स्थिति यह है कि बाहर के देशों को यह गलत जानकारियां भारतीय ही पहुंचा रहे हैं। संवैधानिक संस्थानों को क्षति का गलत प्रचार बिना किसी सबूत के चरम सीमा तक किया जा रहा है। न्यायपालिका सबसे ऊंचा संवैधानिक संस्थान है जो न्याय उपलब्ध करवा रही है। कोर्ट के कुछ फैसलों से कोई भी असहमत हो सकता है, किंतु कोई भी यह नहीं कह सकता कि भारतीय न्यायपालिका असंवैधानिक नियंत्रण या प्रभाव के अधीन आ गई है। वास्तव में मेरे सहित कुछ लोग सोचते हैं कि यह स्वतंत्र तरीके से संचालित हो रही है तथा कुछ जवाबदेही की जरूरत है। न्यायिक जवाबदेही का मसला अभी तक लटका हुआ है क्योंकि इस संबंध में आए विधेयक को न्यायपालिका ने अभी अपनी स्वीकृति नहीं दी है, जबकि संसद के दोनों सदन तथा राष्ट्रपति इसे अपनी मंजूरी दे चुके हैं। विश्व में कहां लोकतांत्रिक संस्थानों को इस तरह की स्वतंत्रता, पाबंदियों की अपेक्षा, अस्तित्व में है? इजरायली मानवाधिकार विशेषज्ञ तथा अमरीका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर रिचर्ड ए फाल्क भी इस मसले पर एनडीए के आलोचक हैं, किंतु उनके पास उल्लेख करने के लिए मात्र दो उदाहरण हैं। एक, गुजरात दंगों से संबंधित जिन्हें वह हिंदू दंगे कहते हैं। दो, वह डिजीटल मैनेजमेंट पर डाटा के केंद्रीयकरण का उद्वरण देते हैं जिसे प्राइवेसी को प्रभावित करने के लिए प्रयोग किया जा रहा है। मेरा मानना है कि इन दोनों मसलों पर वह पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं क्योंकि आप ऐसे दंगे को हिंदू दंगा नहीं कह सकते जिसमें खुद हिंदू भी प्रभावित हुए हों। 1984 के सिख दंगों को भी कोई भुला नहीं सकता जिससे कांग्रेस संबद्ध रही है। दंगों का यह मामला कोर्ट में कानूनी जांच पर आश्रित है। जहां तक केंद्रीयकरण के मसले का सवाल है, सुरक्षा जरूरतों के कारण इस तरह का विधान अन्य देशों में भी हो रहा है तथा सरकारें अपराधियों को कानून व व्यवस्था अपनी मर्जी से चलाने की छूट देने के बजाय ‘प्रेवेंटिव सिक्योरिटी एरिया’ में कार्य करना चाहती हैं। इस बात में आश्चर्य नहीं है कि इस मानवाधिकार विशेषज्ञ ने इसी कारण ओबामा को भी आरोपित किया है। कथित रूप से संस्थानों को क्षति पहुंचाने वाले मोदी को तानाशाह कहना न केवल सत्य से दूर है, बल्कि दूसरी ओर वह बहुत ज्यादा आजादी देने के दोषी भी हैं। मैंने उद्वरण दिया है कि कानून के प्रति उनकी कटिबद्धता कितनी है और यह तब है जब वह अपने विरोधियों की स्वतंत्रता व अधिकारों को ‘अंडरमाइन’ करने के रास्ते निकाल सकते हैं। वह एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें निरंतर गालियां दी जाती रही हैं और यह झूठ की इस हद तक हुआ है कि उनकी पत्नी या माता या संबंधी, जो बहुत कम सुविधाओं के साथ अलग जीवन जी रहे हैं, उन तक को इस मामले में घसीटा गया है।

अगर कोई है जिसने संस्थानों की स्वतंत्रता को नष्ट किया है तथा उनकी कार्यशैली को कुप्रभावित किया है, तो यह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी हैं। उन्होंने विपक्ष को रैलियां करने की अनुमति नहीं दी तथा कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियों के कामकाज में अवरोध खड़े किए। लोकतंत्र पर सबसे बुरा हमला शारदा घोटाले में जांच शुरू करने के लिए सुविधाएं देने से सीधा इनकार करना है, जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी आदेश दिए थे। उन्होंने न केवल जांच के लिए आई केंद्रीय टीम को राज्य में प्रवेश करने से इनकार कर दिया, बल्कि सरकारी अधिकारियों को हिरासत में भी ले लिया। अंततः सीबीआई को जांच का काम राज्य से बाहर ले जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेश लेने पड़े। केंद्रीय एजेंसी को स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अनुमति देने से इनकार का यह एक स्पष्ट सबूत था। केंद्र-राज्य संबंधों में कड़वाहट फैलाने का इस तरह का काम अभी तक किसी ने नहीं किया था, जबकि ममता ने इसे बिना किसी पछतावे के साथ किया। राम मंदिर के मामले में मंदिर की नींव रखने के लिए भारी दबाव के बावजूद प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया तथा यह कहकर न्यायालय की सर्वोच्चता को स्थापित किया कि चूंकि यह मामला कोर्ट में है, इसलिए उसके आदेश के अनुरूप ही इस तरह का कोई फैसला लिया जाएगा।

कहने का अभिप्राय यह है कि सरकार राम मंदिर पर कोर्ट के निर्णय से पार नहीं जाएगी। उल्लेखनीय है कि यह मामला दशकों से कोर्ट में लंबित पड़ा है। कुछ प्रख्यात लोग प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ निरंतर झूठा प्रचार करते रहे हैं, लेकिन मुझे इस बात का एक भी सबूत नहीं मिला कि देश में संवैधानिक संस्थानों को कमजोर किया जा रहा है अथवा उन्हें क्षति पहुंचाई जा रही है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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