अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति

By: May 7th, 2019 12:08 am

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

 

यह भी सही है कि कभी-कभी मरीज की बीमारी को दूर करने के लिए सर्जरी करनी पड़ती है और इस दौरान मरीज का कष्ट बढ़ता है, लेकिन इस आकलन में संकट यह है कि कष्ट सुधार की ओर ले जा रहा है या मृत्यु की ओर, यह समझना पड़ता है। इसके अलावा पांच वर्ष का समय कम नहीं होता है। याद रखना चाहिए कि लालू यादव ने ऐसा ही कह कर 15 वर्षों में बिहार को डुबो दिया था…

वर्तमान चुनाव हमें एनडीए सरकार के आर्थिक कार्यों की समीक्षा करने का अवसर प्रदान करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कथन में सत्यता है कि उनकी सरकार ने भ्रष्टाचार मुक्त शासन दिया है। नई आईआईटी और आईआईएम की स्थापना की है। ग्रामीण विद्युतिकरण में सुधार किया है कि हर घर को बिजली मिल सके, मंगल ग्रह पर भारत ने आपना यान भेजा है, किसानों को मासिक निश्चित रकम उपलब्ध कराई है और सोलर एनर्जी में तीव्र वृद्धि की है। प्रधानमंत्री द्वारा बताई गई ये उपलब्धियां सही दिखती हैं और इन्हें हासिल करने के लिए उन्हें बधाई, लेकिन अर्थव्यवस्था की मूल स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं दिखती है। प्रधानमंत्री ने बताया कि विश्व बैंक द्वारा बनाए गए व्यापार करने की सुगमता के सूचकांक में भारत का स्थान 142वें से उछल कर 77वें पर आ गया है। यह बात सही है, लेकिन इसमें भी रहस्य छिपा हुआ है। इस सूचकांक को बनाने में विश्व बैंक द्वारा लगभग 10 कारकों का अध्ययन किया गया, जैसे बिजली कनेक्शन लेने में कितना समय लगता है, अथवा प्रॉपर्टी के रजिस्ट्रेशन में कितना समय लगता है। मैंने भारत की रैंक में सुधार की पड़ताल की, तो पाया कि इस सुधार में विशेष योगदान सरकार द्वारा लागू किए गए दिवालिया कानून के कारण है। इस कानून में उद्यम को बंद करने एवं उसके द्वारा बैंक से ली गई रकम को वसूल करने की त्वरित व्यवस्था है। उद्योग को बंद करना निश्चित रूप से सुगम बनाया गया है, लेकिन यह सुगमता उद्योग को बंद करने की है, न कि उद्योग को चलाने की अथवा नए उद्योग खोलने की।

विश्व बैंक ने चार अन्य कारकों में भारत की परिस्थिति में गिरावट बताई है। एक, नए उद्योग को चालू करने में लगने वाला समय, विदेशी व्यापार, प्रॉपर्टी के रजिस्ट्रेशन में लगने वाला समय एवं  बिजली के नए कनेक्शन लेने में लगने वाला समय। समग्र रूप से देखा जाए, तो देश में व्यापार बंद करना आसान हुआ है, जबकि नया व्यापार चालू करना कठिन हुआ है। इसलिए व्यापार करने की सुगमता के सूचकांक में हमारी रैंक में सुधार से हमें प्रसन्न नहीं होना चाहिए। प्रमाण यह है कि व्यापार की सुगमता में इस सुधार के बावजूद बैंकों द्वारा उत्पादक क्षेत्रों को लोन देने की गति मंद पड़ी हुई है, जो कि अर्थव्यवस्था की मंदी को दर्शाती है। वर्ष 2016 से 2018 में बैंकों द्वारा दिए गए कुल लोन में नौ प्रतिशत प्रतिवर्ष की वृद्धि हुई है, जो कि सम्मानजनक दिखती है, लेकिन इसमें अधिकतर हिस्सा व्यापार यानी ट्रेड तथा पर्सनल व्यक्तिगत लोन, जैसे मकान खरीदने इत्यादि के कारण है। अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्र यानी उद्यम, पर्यटन तथा कम्प्यूटर में बैंक लोन की वृद्धि दर मात्र 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है। अर्थ हुआ कि अर्थव्यवस्था के उत्पादक हिस्से मंद पड़े हैं। लोगों द्वारा खपत के लिए लोन लिए जा रहे हैं, न कि उत्पादन के लिए। ऐसा भी संभव है कि लोगों की आय कम होने के कारण वे ऋण लेकर खपत कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए लोगों को फैक्टरी और कॉल सेंटर स्थापित करने के लिए लोन लेने थे। अतः व्यापार की सुगमता के सूचकांक में सुधार को अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता से जोड़ना अनुचित लगता है। प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया है कि उनकी सरकार विकासोन्मुख और गरीबोन्मुख दोनों है, जो कि पहले कभी नहीं हुआ है। पहले विकास पर विचार करें। ज्ञात हो कि देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर यानी सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर पर बीते समय विवाद रहा है। पूर्व में इसी सरकार द्वारा ही प्रकाशित आकड़ों के अनुसार यूपीए सरकार के दौरान विकास दर अधिक थी, जबकि इसी सरकार द्वारा ही प्रकाशित नए आंकड़ों के अनुसार एनडीए सरकार के दौरान विकास दर अधिक रही है। अतः विकास दर के आंकड़ों के आधार पर कुछ भी कहना उचित नहीं लगता, लेकिन हम दूसरे ठोस आंकड़ों को प्रॉक्सी के रूप में देखकर अर्थव्यवस्था की असल स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। संकट इस बात में दिख रहा है कि जीएसटी की वसूली में बीते दो वर्षों में मामूली वृद्धि ही हुई है। शून्य विकास दर पर ही महंगाई के अनुपात में जीएसटी में वृद्धि होनी चाहिए थी। यदि वास्तव में अर्थव्यवस्था की ग्रोथ रेट सात प्रतिशत होती, तो जीएसटी में वृद्धि (पांच प्रतिशत महंगाई एवं सात प्रतिशत ग्रोथ जोड़ कर) 12 प्रतिशत होनी चाहिए थी, परंतु जीएसटी की वसूली में वृद्धि लगभग सात प्रतिशत ही रही है, जो कि अर्थव्यवस्था की शिथिलता की ओर संकेत करता है। यदि जीएसटी के आंकड़ों को हम ठोस मानें, तो अर्थव्यवस्था की वृद्धि संदिग्ध हो जाती है। इसी क्रम में रोजगार की परिस्थिति भी विवादित है। सरकार ने बीते समय में रोजगार के आंकड़ों को जारी नहीं किया है, लेकिन सेंटर फार मोनिटरिंग इकोनॉमी की एक रपट के अनुसार जुलाई 2017 में देश में बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत थी, जो मार्च 2018 में बढ़कर 6.2 प्रतिशत हो गई है। उनका अनुमान है कि वर्तमान वर्ष में यह छह प्रतिशत से ऊपर ही रहेगी।

इसी क्रम में छोटे उद्योगों की परिस्थिति में भी सुधार नहीं दीखता है। छोटे उद्योगों के मंत्रालय की वार्षिक रपट के अनुसार वर्ष 2014 में छोटे उद्योगों का कुल उत्पादन में हिस्सा 29.8 प्रतिशत था, जो 2016 में घटकर 28.8 प्रतिशत रह गया था। इससे पता लगता है कि छोटे उद्योगों पर दबाव है और उनका संकुचन हो रहा है। रोजगार और छोटे उद्योगों दोनों की परिस्थिति कमजोर है। अतः प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य पर संदेह बना रहता है कि अर्थव्यवस्था गरीबोन्मुख है। हमें विचार करना चाहिए कि भ्रष्टाचार उन्मूलन, आईआईटी-आईआईएम स्थापित करना, ग्रामीण विद्युतिकरण, मंगल ग्रह तक पहुंचना, किसान को रकम देना एवं सौर ऊर्जा के विकास के बावजूद उत्पादक उद्यमों, पर्यटन एवं कम्प्यूटर जैसे क्षेत्रों को बैंकों द्वारा लोन कम क्यों दिए जा रहे हैं? जीएसटी की वसूली सपाट क्यों है और रोजगार तथा छोटे उद्योग दबाव में क्यों हैं?

यह भी सही है कि कभी-कभी मरीज की बीमारी को दूर करने के लिए सर्जरी करनी पड़ती है और इस दौरान मरीज का कष्ट बढ़ता है, लेकिन इस आकलन में संकट यह है कि कष्ट सुधार की ओर ले जा रहा है या मृत्यु की ओर, यह समझना पड़ता है। इसके अलावा पांच वर्ष का समय कम नहीं होता है। याद रखना चाहिए कि लालू यादव ने ऐसा ही कह कर 15 वर्षों में बिहार को डुबो दिया था। अतः मेरी समझ से आगे के सुधार को देखने के स्थान पर पिछले पांच वर्षों में एनडीए सरकार की उपलब्धियां और कमियां दोनों को देखकर वोट देने का निर्णय मतदाता को लेना चाहिए।

ई-मेल :  bharatjj@gmail.com


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