गड़बड़ी तो सिस्टम में है
पीके खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
अगर सिस्टम ठीक हो, तो समाज के नब्बे प्रतिशत लोगों के ईमानदार बने रहने की संभावना होती है और यदि सिस्टम खराब हो, तो समाज के नब्बे प्रतिशत लोग भ्रष्ट और बेईमान हो जाते हैं। चुनाव आयोग तो बस एक उदाहरण है। देश की सभी संस्थाओं, यहां तक कि संवैधानिक संस्थाओं का हाल भी ऐसा ही है। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। चुनाव आयुक्त कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। मुख्य न्यायाधीश कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। उसकी पार्टी का अध्यक्ष कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। संसद में कौन सा बिल पेश हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। योजना आयोग को खत्म कर दिया जाए और नीति आयोग नाम की एक शिखंडी संस्था बन जाए, यह प्रधानमंत्री तय करता है…
देश के कई हिस्सों से ईवीएम मशीनें पकड़े जाने की खबरें चर्चा में हैं। ईवीएम मशीनें सप्लाई करने वाली एक कंपनी का रिश्ता एक मुख्य चुनाव आयुक्त से जुड़ा और यह भी खबर आई कि चुनाव आयोग को जितनी ईवीएम मशीनें चाहिएं, ईवीएम निर्माता कंपनी को उससे ज्यादा मशीनें बनाने का आर्डर दिया गया। यह एक खतरनाक परिपाटी है और अगर इन खबरों में जरा भी सच्चाई है, तो यह चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर तो सवाल है ही, लोकतंत्र के लिए भी हितकर नहीं है। हाल के एक-दो सालों में चुनाव आयोग की निष्पक्षता को लेकर बार-बार सवाल उठते रहे हैं। हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनावों के समय आयोग पर आक्षेप लगे और लोकसभा चुनाव के समय भी सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद ही आयोग हरकत में आया, लेकिन तब भी निष्पक्षता कहीं नहीं दिखी। अब तो एक चुनाव आयुक्त ने ही खुद चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
एक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि भारतवर्ष में चुनाव के समय हर चुनाव क्षेत्र में आमतौर पर तीन गंभीर उम्मीदवार होते हैं। लोकसभा चुनाव में ये तीनों उम्मीदवार कम से कम बीस-बीस करोड़ तो खर्च करते ही हैं, जबकि दक्षिणी प्रदेशों में यह खर्च अस्सी-पचासी करोड़ तक भी चला जाता है। चुनाव आयोग की तरफ से लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारों के लिए अधिकतम 70 लाख खर्च करने की सीमा है, लेकिन जब उम्मीदवार बीस करोड़ या उससे भी ज्यादा खर्च कर रहे हैं, तो क्या वह चुनाव आयोग को नजर नहीं आता? जो उम्मीदवार बीस करोड़ जैसी बड़ी रकम खर्च करके जीतेगा, वह कई पूंजीपतियों का अहसान लेगा और फिर जीतने के बाद न केवल उनका अहसान उतारने के लिए उल्टे-सीधे काम करेगा, बल्कि अपने अगले चुनाव के लिए भी धन इकट्ठा करने में जुट जाएगा। कुंआरा हो या शादीशुदा, भ्रष्टाचार और काले धन के बूते जीत हासिल करने वाला सांसद क्या खाक ईमानदार होगा? लेकिन देश की इन इलामतों के लिए किसी इंदिरा गांधी, किसी विश्वनाथ प्रताप सिंह, किसी नरेंद्र मोदी या किसी सुनील अरोड़ा की आलोचना करने से पहले हमें यह भी सोचना चाहिए कि यह गड़बड़ आखिर है क्यों? विश्वभर में किए गए एक अन्य अध्ययन के परिणाम बड़े चौंकाने वाले हैं। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि हम कैसा ही कानून बना लें, कोई भी व्यवस्था लागू कर लें, तो भी समाज के दस प्रतिशत लोग भ्रष्ट और बेईमान रहेंगे ही। उन्हें कैसा भी दंड दें या दंड का डर दिखा लें, वे नहीं बदलेंगे। यही हाल उन दस प्रतिशत लोगों का है, जो हर हालत में ईमानदार बने रहना पसंद करते हैं, लेकिन समाज के शेष अस्सी प्रतिशत लोग हवा के रुख के साथ चलते हैं। यानी, अगर वे यह देखते हैं कि बेईमान व्यक्ति पुरस्कृत हो रहा है और ईमानदार व्यक्ति अपनी ईमानदारी के कारण पिछड़ रहा है या सजा पा रहा है, तो वे बेईमानी को बेहतर मानकर अपना व्यवहार वैसा ही बना लेते हैं। इसके विपरीत यदि ईमानदारी को पुरस्कार मिले तथा बेईमान व्यक्ति को सजा मिले, तो समाज के ये अस्सी प्रतिशत लोग ईमानदारी का व्यवहार करते हैं। यानी, अगर सिस्टम ठीक हो, तो समाज के नब्बे प्रतिशत लोगों के ईमानदार बने रहने की संभावना होती है और यदि सिस्टम खराब हो, तो समाज के नब्बे प्रतिशत लोग भ्रष्ट और बेईमान हो जाते हैं। चुनाव आयोग तो बस एक उदाहरण है। देश की सभी संस्थाओं, यहां तक कि संवैधानिक संस्थाओं का हाल भी ऐसा ही है। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। चुनाव आयुक्त कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। मुख्य न्यायाधीश कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। उसकी पार्टी का अध्यक्ष कौन हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। संसद में कौन सा बिल पेश हो, यह प्रधानमंत्री तय करता है। योजना आयोग को खत्म कर दिया जाए, यह प्रधानमंत्री तय करता है। नीति आयोग नाम की एक शिखंडी संस्था बन जाए, यह प्रधानमंत्री तय करता है। एक दिन अचानक नोटबंदी लागू हो जाए, यह प्रधानमंत्री तय करता है। सालों से ठंडे बस्ते में पड़ी मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके समाज को बांट दिया जाए, यह प्रधानमंत्री तय करता है।
देश में आपातकाल लागू हो जाए, यह प्रधानमंत्री तय करता है। बहुमत के घोड़े पर सवार हमारे देश का प्रधानमंत्री दरअसल असीम शक्तियों का स्वामी है। उसे न संसद की परवाह है, न न्यायालय का डर है, न पार्टी की फिक्र है और न ही अपने मंत्रिमंडल से कोई लेना-देना है। प्रधानमंत्री अकेला ही सर्वशक्तिमान है। वस्तुतः हमारे देश में प्रधानमंत्री लोकतांत्रिक ढंग से चुना गया तानाशाह होता है। क्या आप जानते हैं कि प्रधानमंत्री के इस तरह से तानाशाह हो जाने का क्या कारण है? दरअसल, हमारे देश में कहने को तो सरकार के तीन अंग हैं। इनमें पहला अंग है – विधायिका, जिसका काम है नए कानून बनाना, आवश्यक होने पर पुराने कानूनों में संशोधन करना या उन्हें निरस्त करना। सरकार का दूसरा अंग है – कार्यपालिका, जो विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करती है और उन कानूनों के अनुसार शासन चलाती है। सरकार का तीसरा अंग न्यायपालिका है, जो कानूनों की व्याख्या करती है। उनकी समीक्षा करके यह तय करती है कि वे देश के संविधान के मूल स्वरूप के अनुरूप हों और दो या इससे अधिक पक्षों में विवाद होने की स्थिति में विवाद का निपटारा करती है।
यूं तो इन तीनों अंगों के काम का बंटवारा किया गया है, लेकिन वस्तुस्थिति इससे अलग है, क्योंकि हमारी सरकार चुने हुए सांसदों में से ही बनती है। वे सांसद कानून बनाते भी हैं और इनमें से जो सांसद सरकार का हिस्सा हैं, वे कानून लागू भी करते हैं। इस प्रकार कार्यपालिका के पास दोहरी शक्ति है, जिसके कारण सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है। शक्तियों के उचित बंटवारे के बिना कार्यपालिका तानाशाह है और एक मजबूत प्रधानमंत्री अकेला ही कार्यपालिका की सारी शक्तियां हड़प लेता है। यही कारण है कि हमारे देश में प्रधानमंत्री निरंकुश हो जाते हैं। अतः अगर हम चाहते हैं कि देश की समस्याओं का हल हो, तो पहले हमें सिस्टम बदलने की ओर ध्यान देना होगा। शुरुआत यहीं से होगी।
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