नानक की यात्राओं में एकात्मता

By: May 4th, 2019 12:08 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

नानक की यात्राएं लोदी शासकों के राज्यकाल में हुई थीं। यह उस समय की तात्कालिक राजनीतिक स्थिति की ओर संकेत तो करती ही हैं, साथ ही यह सांस्कृतिक-सामाजिक स्थिति की ओर भी संकेत है। धर्म का स्थान रुढि़यों, गली-सड़ी परंपराओं ने ले लिया है। पाखंड का बोलबाला है। धर्म के तत्त्व के स्थान पर उसके फोकट पर ही मामला टिक गया है। राजनीतिक-सामाजिक स्थिति को बदलने के लिए उद्यम करने के स्थान पर समाज भ्रमों एवं थोथी रीतियों में उलझ गया है। यह हताशा का परिणाम भी हो सकता है, लेकिन पराजय का अर्थ दलदल में धंसना तो नहीं हो सकता। विदेशी राजाओं के अत्याचारों से त्रस्त समाज प्रतिकार का रास्ता खोजने के स्थान पर कुरीतियों एवं पाखंड के दलदल में कैसे धंसता गया? इसी को ‘भालने’ के लिए नानक निकल पड़े थे…

दशगुरु परंपरा की गणना मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में होती है। भारतीय साहित्य के जाने-माने विद्वान आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भक्ति आंदोलन के उदय को विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों भारत के पराजित हो जाने की प्रतिक्रिया भी मानते हैं या फिर पराजय से उभरने और अगले संघर्ष के लिए सामाजिक- सांस्कृतिक-राजनीतिक स्तर पर तैयारी का एक नया उद्यम। इसके संकेत प्रथम गुरु श्री नानकदेव जी की बाणियों में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। मध्यकालीन भारतीय दशगुरु परंपरा के प्रथम गुरु श्री नानक देव जी उन महापुरुषों में से थे, जिन्होंने शायद सर्वाधिक पद यात्राएं कीं। भारत का शायद ही कोई कोना हो, जो उन्होंने अपने पैरों से न नापा हो। यही कारण है कि देश के चप्पे-चप्पे पर उनके पद चिन्ह मिलते हैं। पंजाब के इतिहास में उनकी इन यात्राओं को उदासियां कहा जाता है। गुरुबाणी के प्रसिद्ध विद्वान मनमोहन सहगल इन यात्राओं को लोक चेतना यात्रा (गुरु नानक देव,  मनमोहन सहगल, पृष्ठ 27) कहते हैं। अपने सत्तर साल के जीवनकाल में पच्चीस साल तक नानक देव जी ने ये लंबी यात्राएं कीं। अधिकांश यात्राओं में बाला और मरदाना उनके स्थायी साथी थे।

गुरु नानक देव जी की इन यात्राओं या उदासियों ने देश में से इस निराशा के वातावरण को दूर करने में बहुत सहायता की। अपनी इन यात्राओं में वह भारत के जन-जन से संवाद स्थापित कर रहे थे। अपनी बाणी और काव्य रचना से उनके मन के भीतर का अंधकार हर रहे थे और भीतर छिपे हुए अवसाद को समाप्त कर रहे थे। गुरु नानक देव जी की ये यात्राएं महज यात्राएं नहीं थीं, बल्कि भारत का पुनर्जागरण काल था। ऐसा नहीं कि भारत में पद यात्रा की परंपरा गुरु नानक देव जी से पहले नहीं थी। आदिगुरु शंकराचार्य जी की पद यात्राएं तो प्रसिद्ध हैं हीं, लेकिन ऐसी यात्राएं करने वाले अधिकांश तपस्वी साधु-संन्यासी ही होते थे। गुरु नानक देव जी तो गृहस्थी थे। इस लिहाज से उनकी यात्राएं अनूठी ही कही जाएंगी। वह गृहस्थ जीवन में रहकर कड़ी साधना कर रहे थे, जो बाकी लोग संसार त्याग कर करते हैं, लेकिन पंद्रहवीं शताब्दी में की गई उनकी इन लंबी यात्राओं का उद्देश्य क्या था? वह जीवन और समाज की किन गुत्थियों को सुलझाने के लिए देश का चप्पा-चप्पा नाप रहे थे? इसका संकेत भाई गुरदास भल्ला ने अपने लेखन में दिया है। जब गुरु नानक देव की सिद्धों-नाथों से भेंट हुई, तो नाथों ने यही महत्त्वपूर्ण सवाल नानक देव से पूछा था। गुरु नानक ने अपनी यात्राओं का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए उत्तर दिया था – ‘बाबे कहिआ नाथ जी सच चंद्रमा कूड अंधारा। कूड अमावस बरतिआ, हउं भालण चढि़आ संसारा’। (भाई गुरदास 1-29) इस उत्तर का भाव और अर्थ दोनों स्पष्ट हैं। कूड अंधकार और अन्याय का द्योतक है। यह अमावस का अंधकार है और चंद्रमा प्रकाश का प्रतीक है। सत्य का प्रतीक है। सत्य का प्रकाश ही कूड की अमावस का नाश कर सकता है, लेकिन इस समय तो देश में झूठ, अन्याय, अधर्म और अत्याचार की अमावस चारों ओर छाई हुई है। मैं इस अंधकार में से प्रकाश की तलाश में निकला हूं। मैं इसमें संसार की वास्तविकता की तलाश में निकला हूं। नानक की यात्राएं लोदी शासकों के राज्यकाल में हुई थीं। यह उस समय की तात्कालिक राजनीतिक स्थिति की ओर संकेत तो करती ही हैं, साथ ही यह सांस्कृतिक-सामाजिक स्थिति की ओर भी संकेत है।

धर्म का स्थान रुढि़यों, गली-सड़ी परंपराओं ने ले लिया है। पाखंड का बोलबाला है। धर्म के तत्त्व के स्थान पर उसके फोकट पर ही मामला टिक गया है। राजनीतिक-सामाजिक स्थिति को बदलने के लिए उद्यम करने के स्थान पर समाज भ्रमों एवं थोथी रीतियों में उलझ गया है। यह हताशा का परिणाम भी हो सकता है, लेकिन पराजय का अर्थ दलदल में धंसना तो नहीं हो सकता। विदेशी राजाओं के अत्याचारों से त्रस्त समाज प्रतिकार का रास्ता खोजने के स्थान पर कुरीतियों एवं पाखंड के दलदल में कैसे धंसता गया? इसी को ‘भालने’ के लिए नानक निकल पड़े थे। यह ठीक है कि जन्मसाखियों में नानक देव की इन यात्राओं में चमत्कारों की हजारों कहानियां दर्ज हैं, परंतु संत-महात्माओं की असली शक्ति उनके चमत्कारों में नहीं होती, बल्कि उनके आचरण, साधना और जन-जन से जुड़ने में होती है। कृ.गो. वानखडे़ गुरुजी ने संत की व्याख्या करते हुए लिखा है, ‘संत, भक्त, महात्मा किसी भी धर्म में पैदा हुए हों, वे कभी भी देशकाल, जाति और संप्रदाय की सीमा में सीमित नहीं होते।

उनकी बाणी सार्वजनिक और सार्वकालिक है। संत भक्तों के जीवन में चमत्कार हो सकते हैं, परंतु चमत्कार या अलौकिक घटनाओं में संत भक्तों के पवित्र जीवन की पूर्णता नहीं है। चमत्कारों के बल पर संत भक्त कहलाना या अपने आप को वैसा कहना, सही रूप में सच्चे भक्त का तिरस्कार करना है। संत भक्तों का जीवन सर्वथा कल्याणकारी, वैराग्यमय, ज्ञानमय और प्रेममय होता है। ऐसा जीवन स्वयं आदरणीय, स्पृहणीय और अभिनंदनीय होता है’। (कृ.गो. वानखडे़ गुरुजी, हमारे मुस्लिम संत कवि, दिल्ली, प्रकाशन विभाग भारत सरकार, 1984) नानक देव की जन्मसाखियों में उनकी उदासियों में चित्रित चमत्कारों को इसी पृष्ठभूमि में देखना होगा। नानक देव की तीनों यात्राओं की संक्षिप्त रूपरेखा निम्न है – उन्होंने अपनी पहली यात्रा में भारत के दक्षिण और पूर्व दिशा का भ्रमण किया। दूसरी यात्रा में उत्तरी क्षेत्रों का भ्रमण किया और तीसरी यात्रा में पश्चिमी क्षेत्रों का भ्रमण किया। 

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