बहुआयामी है परमानंद शर्मा का जीवन

By: May 20th, 2019 12:03 am

        कुल पुस्तकें : 35

        शोध ग्रंथ : एक, नामत :- बौधिचर्या

         साहित्य सेवा : 50 वर्ष

       कुल पुरस्कार : 12

प्रो. परमानंद शर्मा का जन्म पंजाब के जिला जालंधर के अंतर्गत घोड़याल गांव में 17 नवंबर 1923 को एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ। अपने गांव के ही प्राइमरी स्कूल से उन्होंने चौथी क्लास पास की। उनके पिता जी ने जिला स्कूल से इस्तीफा देकर जालंधर शहर के दोआबा स्कूल में नौकरी कर ली, अतः परमानंद को भी वहीं प्रवेश दिला दिया पांचवीं कक्षा में। इसी स्कूल से उन्होंने 1939 में मैट्रिक पास किया। इंटर डीएवी कालेज जालंधर से 1941 में करने के पश्चात वह नए खुले दोआबा कालेज के प्रथम बैच की बीए श्रेणी के छात्र बने और वहां से 1943 में बीए आनर्ज पास की प्रथम स्थान के साथ। 1945 में गवर्नमेंट कालेज लाहौर से एमए इंगलिश पास की। उनका परीक्षा परिणाम आने से पहले ही दोआबा कालेज जालंधर के प्राचार्य महोदय ने मई 1945 में अपने कालेज में लेक्चरर की नियुक्ति दे दी जहां वह 17 मई 1945 से 15 दिसंबर 1949 तक कार्यरत रहे। 19 दिसंबर 1949 को वह धर्मशाला के गवर्नमेंट कालेज में नौकरी पर लगे और 1982 में वहां से ही प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त भी हुए। इस लंबी अवधि में कई बार स्थानांतरण के चलते वह पंजाब, हरियाणा व हिमाचल के कई कालेजों में सेवारत रहे। अंततः 1970 में उन्होंने धर्मशाला में अपना एक छोटा आशियाना बना लिया और उसका नाम रखा ‘हिम-किरीट’। इस तरह वह पूरी तरह धर्मशाला के हो गए। वह एनसीसी के सर्वप्रथम बैच (1949) के कमीशंड अफसरों में से हैं। अतः 1962 के चीन के साथ युद्ध के पश्चात पूर्णकालिक एनसीसी के अफसर के रूप में 1963 – 65 तक वर्धमान, पश्चिम बंगाल में वह बटालियन कमांडर भी रहे। 1947 में उन्होंने सर्वप्रथम आयोजित हुई आईएएस परीक्षा पास की। 1949 में पंजाब सिविल सर्विस परीक्षा पास की।

1957 में स्पीति घाटी में हुए पहले चुनावों के सरकारी पोलिंग अभियान दल के वह उप-नेता थे, परंतु अग्रिम दल के नेता जिसमें दायित्व भार अत्यधिक था। एक दिन के चुनाव के लिए 56 दिन की दुर्गम पद्यात्रा एक अनूठा अनुभव रहा-रामपुर बुशहर से मनाली तक बरास्ता किन्नौर, स्पीति, लाहुल, कुंजम दर्रा और रोहतांग आदि-आदि। भारत के चुनाव आयोग ने इस अद्वितीय कर्त्तव्यपरायणता के लिए उन्हें रजत पदक से सम्मानित किया। एक प्रकार से उनका जीवन बहुआयामी रहा है : पढ़ना, पढ़ाना, खेलकूद प्रतियोगिताएं, यायावरी, पर्वतारोहण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन, उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी व पहाड़ी में काव्य साधना, संस्कृत से इंगलिश में कई ग्रंथों का अनुवाद, इंगलिश से हिंदी में, उर्दू से इंगलिश में, इंगलिश से हिंदी में ढेरों ग्रंथों के अनुवाद, जिनमें परम पावन दलाईलामा जी के प्रवचन आदि भी शामिल हैं। वह दलाईलामा द्वारा नामित होकर 30 वर्षों तक तिब्बती गं्रथ एवं आलेख पुस्तकालय की गवर्निंग बॉडी के सदस्य भी रहे।

अपने छात्र जीवन में ही उन्होंने उर्दू में नज्म और गजल लिखना शुरू कर दिया था जो कि प्रायः राष्ट्र प्रेम से प्रेरित और विदेशी हुकूमत के विरोध में होती थीं। हिंदी की ओर वह 1946-47 में मुड़े और 1948 में उनका पहला वीर रस प्रधान महाकाव्य ‘छत्रपति’ प्रकाशित हुआ जिसकी तत्कालीन हिंदी के दिग्गजों ने प्रशंसा भी की तथा यूपी सरकार ने इसे पुरस्कृत भी किया। तत्पश्चात अन्य काव्यों, खंड काव्यों और कविता, गीतों आदि का क्रम आयु भर चलता रहा। वर्ष 1964 में पंजाब सरकार ने उन्हें हिंदी राजकवि की उपाधि से अलंकृत किया। इसके अलावा आथर्ज गिल्ड हिमाचल प्रदेश, हिमोत्कर्ष, लोक साहित्य परिषद, ठाकुर वेद राम साहित्य सम्मान, स्पंदन, तिब्बतेन ग्रंथ एवं अभिलेख पुस्तकालय तथा कई अन्य संस्थाएं भी उन्हें सम्मानित कर चुकी हैं। अन्य साहित्यिक तथा सामाजिक गतिविधियों में भी वह सक्रिय रहते हैं।


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