चार प्रदेश, एक संदेश

By: Jun 6th, 2019 12:07 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

जिस प्रकार मोदी का जलवा आंध्र प्रदेश में नहीं चला, वैसे ही पंजाब में भी मोदी लहर का कोई असर नहीं था। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि भाजपा पंजाब में है ही नहीं और दूसरा यह कि शिरोमणि अकाली दल की कार्यशैली से नाराज लोगों को कैप्टन अमरिंदर सिंह में एक विश्वसनीय नेता की छवि देखने को मिली। नवजोत सिंह सिद्धू के साथ विवाद के बावजूद कांग्रेस ने अकेले मुख्यमंत्री के कारण पंजाब में अपना दबदबा कायम रखा, जबकि देशभर में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है, यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी से भी हार गए। कांग्रेस इस बार पंथक मानी जाने वाली दो अहम सीटों श्री खडूर साहिब व श्री फतेहगढ़ साहिब पर भी जीती। पूरे उत्तरी भारत में पंजाब ही मोदी लहर से अछूता रहा…

 जगन मोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश के नए मुख्यमंत्री बन गए हैं। विधानसभा चुनाव में उन्होंने तीन-चौथाई से भी ज्यादा सीटें जीत कर चंद्रबाबू नायडू को सत्ता से बाहर कर दिया है। नायडू दस साल के बाद दोबारा मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन सारे तामझाम के बावजूद वह अपने ही प्रदेश में बेगाने हो गए हैं। उनके तीन मंत्री चुनाव जीत पाए हैं, बाकी सब हार गए हैं, जिनमें उनका बेटा लोकेश और विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी शामिल हैं। जगन मोहन रेड्डी के दल वाईएसआर कांग्रेस को कुल 151 सीटें मिली हैं, जबकि नायडू की तेलुगू देशम पार्टी को केवल 23 सीटें ही मिल पाई हैं। लोकसभा चुनाव में भी वाईएसआर कांग्रेस का ही झंडा बुलंद रहा। आंध्र प्रदेश में लोकसभा की 25 सीटों में से 22 पर वाईएसआर कांग्रेस की जीत हुई, जबकि कांग्रेस ने तीन सीटें जीतीं। नायडू इस बार लोकसभा चुनाव में शून्य पर पहुंच गए। खास बात यह है कि राज्य में भाजपा भी कुछ नहीं कर पाई और उत्तर, मध्य और पूर्वी भारत में बड़ी लहर के बावजूद राज्य में मोदी का जलवा कहीं नहीं दिखा।

चंद्रबाबू नायडू बहुत अनुशासित और मेहनती राजनीतिज्ञ हैं, लेकिन इस बार वह नौकरशाही पर बहुत निर्भर हो गए और जनता से उनका सीधा संपर्क लगभग खत्म हो गया। पार्टी में उनका कद इतना बड़ा था कि पार्टी का कोई नेता उनके सामने मुंह नहीं खोल सकता था। वह सिर्फ तकनीक के सहारे लोगों के संपर्क में चल रहे थे, जबकि जगन मोहन पदयात्रा के माध्यम से लोगों से सीधे जुड़े, उनकी समस्याएं सुनीं, उन्हें दूर करने का भरोसा दिलाया। इस तरह लोगों के दिल में उनके लिए जगह बनी और चंद्रबाबू नायडू का दोबारा सत्ता में आने का सपना टूट गया। जिस प्रकार मोदी का जलवा आंध्र प्रदेश में नहीं चला, वैसे ही पंजाब में भी मोदी लहर का कोई असर नहीं था। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि भाजपा पंजाब में है ही नहीं और दूसरा यह कि शिरोमणि अकाली दल की कार्यशैली से नाराज लोगों को कैप्टन अमरिंदर सिंह में एक विश्वसनीय नेता की छवि देखने को मिली। नवजोत सिंह सिद्धू के साथ विवाद के बावजूद कांग्रेस ने अकेले मुख्यमंत्री के कारण पंजाब में अपना दबदबा कायम रखा, जबकि देशभर में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है, यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी से भी हार गए। कांग्रेस इस बार पंथक मानी जाने वाली दो अहम सीटों श्री खडूर साहिब व श्री फतेहगढ़ साहिब पर भी जीती। पूरे उत्तरी भारत में पंजाब ही मोदी लहर से अछूता रहा। पंजाब में कांग्रेस ने 8 सीटें जीती हैं और आम आदमी पार्टी को केवल संगरूर की इकलौती सीट से संतोष करना पड़ा है, जहां से उसके सांसद भगवंत मान ने दोबारा जीत हासिल की है। अमेठी में स्मृति ईरानी से हारने के बाद लोकसभा चुनावों में जितनी फजीहत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की हुई है, उतनी ही फजीहत चुनाव नतीजे आने के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी की भी हुई है। सन् 2015 में राज्य विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था। अरविंद केजरीवाल अपनी इस शानदार वापसी पर बहुत इतराए, लेकिन वह इतने अहंकारी हो गए कि उन्होंने अपने आलोचकों की बात सुनना ही बंद कर दिया। पार्टी में टूट हुई, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण अलग हो गए। पंजाब विधानसभा चुनाव में राज्य में सत्ता में आने का सपना तो टूटा ही, गोवा में भी आम आदमी पार्टी को बुरी मार पड़ी। महानगरपालिका चुनाव में करारी हार के बावजूद अरविंद केजरीवाल ज्यादा नहीं सुधरे और उसका परिणाम यह है कि आज वह अपनी पार्टी के अस्तित्व के लिए ही लड़ते नजर आ रहे हैं। उनके चार प्रत्याशियों की तो जमानतें ही जब्त हो गईं। इस लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ भगवंत मान ही करेंगे, जो पंजाब की संगरूर सीट से जीते हैं। आसन्न विधानसभा चुनाव में हार से बचने के लिए अब वह हताश नजर आते हैं तथा ऐसे काम कर रहे हैं, जिनसे उनकी छवि और खराब हो रही है। हाल ही में दिल्ली में मेट्रो और बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा की घोषणा करके उन्होंने अपनी हताशा का ही इजहार किया है।

यह स्पष्ट नहीं है कि इसे एलजी की मंजूरी मिलेगी या नहीं, इसके लिए धन का जुगाड़ कैसे होगा, क्या इससे बसों और मैट्रो में पहले से ही ज्यादा भीड़ और नहीं बढ़ जाएगी, इसका महिलाओं की सुरक्षा से क्या लेना-देना है और यह घोषणा अब ही क्यों? ये ऐसे सवाल हैं, जो केजरीवाल का पीछा नहीं छोड़ेंगे। उधर बिहार में भाजपा के बढ़ते कदमों से घबराए तथा केंद्रीय मंत्रिमंडल में सिर्फ एक पद के प्रस्ताव से नाराज नीतीश कुमार ने फिर से मोदी के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया है और यह घोषणा कर दी है कि उनका दल भविष्य में भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होगा। नीतीश कुमार ने इन कुछ ही सालों में दो बार पलटी मारी है। पिछले लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के खिलाफ होने के कारण उन्होंने एनडीए को छोड़कर लालू यादव से हाथ मिला लिया था और बिहार विधानसभा चुनाव के समय वह एक बड़ा ब्रांड बनकर उभरे थे।

तब तक अरविंद केजरीवाल की कलई एक बार उतर चुकी थी और नीतीश कुमार को विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के भावी उम्मीदवार के रूप में देखा जा रहा था, लेकिन इसी बीच वह लालू यादव का साथ छोड़ कर फिर से एनडीए में शामिल हो गए। उनका मुख्यमंत्री पद तो बच गया, पर प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की उनकी छवि खत्म हो गई। अब वह फिर एनडीए में होते हुए भी मोदी से नाराज हो गए हैं और खुद को एक नए ब्रांड के रूप में स्थापित करने की चुनौती से दो-चार हैं। इन चारों प्रदेशों के फेरबदल में एक ही बात सामान्य है कि जनता से सीधा संवाद ही किसी नेता को नेता बनाए रख सकता है। भीड़ उसी के साथ चलती है, जो भीड़ के साथ चलता है। बंद कमरों में बैठकर योजना बनाने वाले नेता अंततः मुंह की खाते हैं। आने वाला समय ही बताएगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा, कौन ब्रांड बनेगा या बना रहेगा और कौन धूल फांकेगा।

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


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