विपक्ष बचाओ गठबंधन की जरूरत

By: Jun 28th, 2019 12:07 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

 

दिन-प्रतिदिन विपक्ष की संख्या में कमी आ रही है। संख्या के साथ-साथ उनके प्रभाव और रौब में भी कमी आ रही है। सिर्फ संख्या में कमी ही नहीं आ रही है, बल्कि बड़े पैमाने पर सीटें व राज्य विपक्षी दल खो रहे हैं। इसके साथ ही उनकी आंतरिक लड़ाई असहमत सदस्यों को बाहर फेंक रही है और विरोधी उन्हें हाथोंहाथ ले रहा है। विपक्ष को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए तीन रास्ते हैं। पहला, संख्या जिसे मोदी ने व्यंग्यात्मक ढंग से अपने पहले दिन के भाषण में कहा कि इनका वास्तविकता से परिचय करवाया जाए। आम चुनावों में भाजपा की बड़ी सफलता को स्वीकृत किया जाना चाहिए और छोटी पार्टियों को ऐसे एक्ट नहीं करना चाहिए, जैसे वही सत्तारूढ़ पार्टी हैं। दूसरा बिंदू है पार्टी को ऐसे युवा नेताओं की आवश्यकता है, जो पार्टी की विश्वसनीयता को लोगों के सामने पेश कर सकें…

23 मई, 2018 को बंगलूरू में विपक्ष की सभी पार्टियों में बहुत उत्साह देखने को मिला, जब सोनिया गांधी और मायावती ने स्टेज पर एक-दूसरे को गले लगाया था। सभी नेताओं ने यह बहुत आनंद के साथ देखा। यह कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह था, जो कि राजनीति के दिग्गज नेता देवेगौड़ा के पुत्र हैं। तब देवेगौड़ा ने कहा था कि जो भी पार्टियां इस समारोह में उपस्थित हैं, वे सभी आने वाले चुनावों में एक साथ लड़ेंगी। महागठबंधन के प्रभाव में पूरा देश आने वाला था, जैसा कि शत्रुघ्न सिन्हा ने ऊंची आवाज में कहा था ‘ महागठबंधन एनडीए को बहा ले जाएगा’। वह उस क्षेत्र से तीन लाख वोट से हार गए, जिसे वह पिछले तीन चुनावों से जीतते आए थे, वहीं देवेगौड़ा भी भारी मतों के साथ हारे। ममता जो इसी बैठक का हिस्सा थीं और विपक्षी गठबंधन की एकता की शपथ ले रही थीं, कुल सीटों का सिर्फ 40 प्रतिशत जीत पाईं। बिहार में कांग्रेस के एक सीट जीतने के अलावा विपक्ष सभी सीटें हारने की वजह से इससे भी खस्ताहाल में रहा। विपक्ष के साथ एक ही समस्या रही कि प्रधानमंत्री पद के लिए बहुत उम्मीदवार आकांक्षा लिए थे और राहुल को सिर्फ एक मुखौटे के रूप में लिया गया था। ममता ने दिल्ली, लखनऊ और हैदराबाद की ओर भागना शुरू किया।

अपने लिए राजनीतिक घर बनाने को ईंटों को इकट्ठा करने में चंद्रबाबू नायडू भी बहुत अधिक सक्रिय दिखे। वह आगामी परिणामों को अपने पक्ष में करने के लिए अंदर और बाहर की भागदौड़ करने लगे। उधर उत्तर प्रदेश से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए अखिलेश और मायावती को देखा जाने लगा। तब मायावती ने अखिलेश को मुख्यमंत्री का पद देकर स्वयं प्रधानमंत्री पद के लिए दिल्ली की ओर ध्यान केंद्रित किया। उत्तर प्रदेश के परिणामों ने इन आकांक्षाओं को झटका दे दिया, जहां अखिलेश को पांच और मायावती को 80 में से दस सीटें प्राप्त हुईं, अपना दल को दो तथा कांग्रेस को एक सीट मिली, शेष योगी के खाते में गईं। ऐसा ही अन्य राज्यों में हुआ। इसलिए विपक्ष के लिए यह भी निराशाजनक रहा कि नायडू को आंध्र प्रदेश में अपनी पार्टी का नेतृत्व खोना पड़ा, जो प्रधानमंत्री पद के लिए ताल ठोंक रहे थे। दूसरी ओर एनडीए ने अपनी गिरफ्त में अधिक से अधिक राज्यों को जोड़ा, नॉर्थ ईस्ट भी उनके कब्जे में आ गया, साथ ही हिमाचल, हरियाणा और उत्तराखंड में भी केसरिया लहराया। चुनावों के परिणाम इतने चौंकाने वाले रहे कि विपक्ष स्वयं भी इन अप्रत्याशित परिणामों पर कोई तर्कसंगत और युक्तिपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। इसका यह कारण रहा कि उन्होंने मीडिया सर्वे को प्रायोजित मान लिया था। 3 मई, 2019 को इसी कॉलम के लेख में मैंने एनडीए को 330 और कांग्रेस को 60 सीटें मिलने की बात लिखी थी। किसी ने भी मेरी सूचना को गंभीरता से नहीं लिया। अब भी वास्तविकता का सामना करने के बाद वे मृगतृष्णा का पीछा कर रहे हैं। महागठबंधन ने अपने ढोल बजाने जारी रखे और इनके अपने ही घरों और पार्टियों में दरार आने लग पड़ी। पंजाब और कर्नाटक की तरह कई राज्यों में आंतरिक लड़ाइयां चल रही हैं। मायावती ने अंततः अपने सहयोगियों को अलविदा कह दिया है और भविष्य में अकेले चलने का फैसला किया है। कांग्रेस सबसे बड़े संकट की स्थिति में है, जो नेता नहीं ढूंढ पा रही है। राहुल गांधी को अपनी ही पार्टी के लोग जता रहे हैं कि भविष्य में उनकी संभावनाएं व्यापक बनी हुई हैं। यह दावा किया जा रहा है कि यह खोज अंततः बहुमूल्य साबित होने वाली है, जो उसमें आत्मविश्वास जगा रहा है कि भविष्य में सिंहासन उसे मिलेगा। उसे लगे झटके को समझा जा सकता है और अपने पद से इस्तीफा देकर राहुल ने जिम्मेदारी का परिचय दिया है। किसी ने भी विपक्ष की उत्तरजीविता की चिंता नहीं की जब तक हम उस दिन तक नहीं पहुंचे, जब मोदी का ‘रोलर कोस्टर’ विपक्ष को दिन-प्रतिदिन महत्त्वहीन बना रहा था। वे चिल्ला सकते हैं, परंतु संख्या की वजह से वे उस आवाज को नहीं गिन पाएंगे, जो सुनने को मजबूर कर सके। वैसे भी संसद में चिल्लाना असामान्य नहीं है और कई राज्यों में उठापटक शुरू हो गई है, धुंधलका बढ़ रहा है क्योंकि विपक्ष की प्रभावशाली भूमिका क्षीण होती जा रही है।

दिन-प्रतिदिन विपक्ष की संख्या में कमी आ रही है। संख्या के साथ-साथ उनके प्रभाव और रौब में भी कमी आ रही है। सिर्फ संख्या में कमी ही नहीं आ रही है, बल्कि बड़े पैमाने पर सीटें व राज्य विपक्षी दल खो रहे हैं। इसके साथ ही उनकी आंतरिक लड़ाई असहमत सदस्यों को बाहर फेंक रही है और विरोधी उन्हें हाथोंहाथ ले रहा है। विपक्ष को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए तीन रास्ते हैं। पहला, संख्या जिसे मोदी ने व्यंग्यात्मक ढंग से अपने पहले दिन के भाषण में कहा कि इनका वास्तविकता से परिचय करवाया जाए। आम चुनावों में भाजपा की बड़ी सफलता को स्वीकृत किया जाना चाहिए और छोटी पार्टियों को ऐसे एक्ट नहीं करना चाहिए, जैसे वही सत्तारूढ़ पार्टी हैं।

दूसरा बिंदू है पार्टी को ऐसे युवा नेताओं की आवश्यकता है, जो पार्टी की विश्वसनीयता को लोगों के सामने पेश कर सकें। तीसरा तरीका महत्त्वपूर्ण विकासात्मक योजनाओं को चलाना है और स्वयं को देश की सेवा के लिए समर्पित करना है। सामान्य मुद्दा यह है कि यह नहीं सोचना है कि सत्ता पक्ष की भूमिका और जो कुछ भी सत्तारूढ़ पार्टी लागू करती है, उसका विरोध करना है। मानव से जुडे़ मसलों और राष्ट्रीय हित का समर्थन किया जाना चाहिए, जिनका राजनीति के लिए बलिदान नहीं दिया जा सकता। पार्टियों को सामान्य जन के विकास की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और अपने कार्यकर्ताओं को बड़े पैमाने पर लोगों से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए। इस सब से बढ़कर धैर्य और गंभीरता से संगठन निर्माण करने की जरूरत भी है।

ई-मेल: singhnk7@gmail.comss


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