विवेक चूड़ामणि

By: Jun 29th, 2019 12:01 am

गतांक से आगे…

शांता महांतो निवसंति संतो

वसंतवल्लोकहितं चरंतः।

तीर्णांः स्वयं  भीमभवार्णवं जना-

नहेतुनान्यानपि तारयंतः।।

तेज लहरों की मार और तेज भंवरों भरे संसार सागर से स्वयं पार पा चुके तथा अन्य लोगों को भी बिना किसी कारण ही तारने वाले तथा लोकहित का आचरण करते हुए भी अति शांत महापुरुष ऋतुराज वसंत के समान इस संसार में निवास करते हैं।

अयं स्वभावः स्वत एव यत्पर

श्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम्।

सुधांशुरेष स्वयमर्ककर्कश प्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल।।

महात्माजन अपने  सहज स्वभाव के कारण ही दूसरों की थकान को दूर करने में लगे रहते हैं। सूर्य के प्रचंड तेज से तप रहे पृथ्वीतल को चंद्रदेव स्वयं ही शांत कर देते हैं, यह तो उनका सहज स्वभाव है। ऐसा निरपेक्ष भाव से होता है।

ब्रह्मनंदरसानुभूतिकलितैंः पूतेः सुशीतैः सितैंर्युष्प्रद्वाक्कलशोज्झितैः श्रुतिसुखैर्वाक्यामृतैः सेच्य।

संतप्तं भवतापदावहनज्वालाभिरेनं प्रभो। धन्यास्ते भवदीक्षणक्षणगते ः पात्रीकृताः स्वीकृताः।।

हे प्रभु! प्रचंड संसाररूपी दावानल की ज्वाला से तपते हुए इस दीन और आपकी शरण में आए हुए मुझे आप अपने ब्रह्मनंदस्य के अनुभव से युक्त परम पुनीत, सुशील, निर्मल और वाक् रूपी स्वर्णकलश से निकले हुए श्रवणसुखद वचनामृतों से सींचिए (अर्थात मेरे ताप को शांत कीजिए) वे धन्य हैं, जो आपकी एक क्षण की करुणामयी दृष्टि के पात्र होकर आपके द्वारा अपना लिए गए हैं।

कथं तरेयं भवसिंधुमेतं का वा गतिर्मे कतमोऽस्त्युपायः।

जाने न किंचित्कृपयाव मां भो संसारदुःखक्षतिमातनुष्व।।

मैं इस संसार समुद्र से कैसे तरूंगा? मेरी क्या गति होगी? उसका क्या उपाय है? इन प्रश्नों का क्या उत्तर होगा, मैं कुछ नहीं जानता। प्रभो! कृपा करके मेरी रक्षा कीजिए और मेरे संसाररूपी दुख के नष्ट करने का उपाय सुझाइए।

तथा वदंतं शरणागतं स्वं संसारदावानलतापतप्तम्। 

निरीक्ष्य कारुण्यरसार्द्रदृष्ट्या दद्यादभीतिं सहसा महात्मा।।

इस प्रकार कहते हुए अपनी शरण में आए हुए संसाररूपी अग्नि से जल रहे शिष्य को महात्मा गुरु करुणामयी दृष्टि से देखकर एकदम अभय प्रदान करें।

विद्वासं तस्मा उपसत्तिमीयुषे मुमुक्षवे साधु यथोक्तकारिणे।

प्रशांतचित्ताय शमान्विताय।

तत्त्वोपदेशं कृपयैव कुर्यात।।

शरणागत की इच्छा करने वाले उस मुमुक्षु, आज्ञाकारी, शांतचित्त, शम-दमादि संपत्ति से युक्त साधु शिष्य को गुरु कृपया तत्त्वोपदेश करें।

मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः।

संसारसिंधोस्तरणेऽस्त्युपायः।

येनैव याता यतयोऽस्य पारं

तमेव मार्ग तव निर्दिशामि।।

श्रीगुरु कहें-हे विद्वान! तू डर मत, तेरा नाश नहीं होगा। संसार सागर को पार करने का उपाय है जिस मार्ग से यतिजन इसके पार गए हैं, वही मार्ग मैं तुझे दिखाता हूं।

अस्त्युपायो महांकश्चित्संसारभयनाशनः।

येन तीर्त्वा भवांभोधिं परामानंदमाप्स्यसि।।

संसार रूपी भय का नाश करने वाला कोई एक महान उपाय है, जिसके द्वारा तू भव सागर को पार करके परमानंद को प्राप्त करेगा।

                            – क्रमशः


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