सशक्त विपक्ष दे कांग्रेस
कुमार प्रशांत
स्वतंत्र लेखक
गांधी जी के लिए कांग्रेस के दो मायने थे- एक उसका संगठन और दूसरा उसका दर्शन। वह कांग्रेस का संगठन समाप्त करना चाहते थे, ताकि आजादी की लड़ाई की ऐतिहासिक विरासत का बेजा हक दिखा कर,कांग्रेसी दूसरे दलों से आगे न निकल जाएं…
एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस का यह अंत है और राहुल गांधी को इस अकल्पनीय हार की जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र दे देना चाहिए। यह सबसे स्वाभाविक व आसान प्रतिक्रिया है। इस तर्क को ही थोड़ा आगे बढ़ाएं, तो चुनाव आयोग को भी इस्तीफा दे देना चाहिए, क्योंकि सात चरणों में चला यह चुनाव उसकी अयोग्यता और अकर्मण्यता का नमूना था। अपने कैलेंडर के कारण यह देश का अब तक का सबसे लंबा, महंगा, हिंसक, अस्त-व्यस्त और दिशाहीन चुनाव आयोजन था। यह आयोग गूंगा भी था और बहरा भी, अनिर्णय से ग्रस्त भी था तथा एकदम बिखरा हुआ भी। इसके फैसले लगता था कि कहीं और ही लिए जा रहे हैं। आम चुनाव हमसे यह भी कहता है कि हमें इवीएम मशीनों के बारे में कोई अंतिम फैसला करना चाहिए या फिर इनका भी इस्तीफा ले लेना चाहिए। अब वीवीपैट पर्चियों के बारे में जैसी मांग विपक्ष ने उठा रखी है और उसे सर्वोच्च न्यायालय ने जैसी स्वीकृति दे दी है, उससे तो लगता है कि आगे हमें यह फैसला लेना ही होगा।
अगर हमारा इतना सारा कागज बर्बाद होना ही है, तो कम-से-कम मशीनों पर हो रहा अरबों का खर्च तो हम बचाएं। जाहिर है, इस्तीफे तो कई होने हैं, लेकिन फिलहाल बात तो राहुल गांधी की कांग्रेस की हो रही थी। कांग्रेस को खत्म करने की पहली गंभीर और अकाट्य पेशकश इसे संजीवनी पिलाने वाले महात्मा गांधी ने की थी। मोदी और अमित शाह ने इतिहास के प्रति अपनी गजब की प्रतिबद्धता दिखाते हुए गांधी जी के इस सपने को पूरा करने का बीड़ा ही उठा लिया और कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की दिशा में बढ़ चले। ऐसा करते हुए वे भूल गए कि महात्मा गांधी एक राजनीतिक दर्शन के रूप में भी और एक संगठन के रूप में भी उस सावरकर-दर्शन को खत्म करने की लड़ाई ही लड़ते रहे थे, जिसकी मोदी-शाह नई पौध हैं। यह लड़ाई ही गांधी जी की कायर हत्या की वजह भी थी। तीस जनवरी, 1948 की शाम 5 बजकर 17 मिनट पर जिन तीन गोलियों ने उनकी जान ली, वह हिंदुत्व के उसी दर्शन की तरफ से दागी गई थीं, जिसकी आज मोदी-शाह पैरवी करते हैं और संघ परिवार का हर ऐरा-गैरा जिसकी हुआं-हुआं करता रहता है। यह बिलकुल सच है कि महात्मा गांधी ने 29 जनवरी 1948 की देर रात देश के लिए जो अंतिम दस्तावेज लिख कर समाप्त किया था, उसमें एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को खत्म करने की सलाह दी गई थी। उन्होंने लिखा था कि कांग्रेस के मलबे में से वे ‘लोक सेवक संघ’ नाम का एक ऐसा नया संगठन खड़ा करेंगे, जो चुनावी राजनीति से अलग रह कर, चुनावी राजनीति पर अंकुश रखेगा। उन्होंने यह भी कहा था कि कांग्रेस के जो सदस्य चुनावी राजनीति में रहना चाहते हैं, उन्हें नया राजनीतिक दल बनाना चाहिए, ताकि स्वतंत्र भारत में संसदीय राजनीति के सारे खिलाड़ी एक ही ‘प्रारंभ रेखा’ से अपनी दौड़ शुरू कर सकें। गांधी जी के लिए कांग्रेस के दो मायने थे- एक उसका संगठन और दूसरा उसका दर्शन। वह कांग्रेस का संगठन समाप्त करना चाहते थे, ताकि आजादी की लड़ाई की ऐतिहासिक विरासत का बेजा हक दिखा कर, कांग्रेसी दूसरे दलों से आगे न निकल जाएं। यह उस नवजात संसदीय लोकतंत्र के प्रति उनका दायित्व-निर्वाह था, जिसे वह कभी पसंद नहीं करते थे और जिसके अमंगलकारी होने के बारे में उन्हें कोई भ्रम नहीं था। उन्होंने इस संसदीय लोकतंत्र को ‘बांझ व वैश्या’ जैसा कुरूप विशेषण दिया था, लेकिन वह जानते थे कि इस अमंगलकारी व्यवस्था से उनके देश को भी गुजरना तो होगा, सो उन्होंने उसका रास्ता इस तरह निकाला था। एक राजनीतिक दर्शन के रूप में वह कांग्रेस की समाप्ति कभी भी नहीं चाहते थे और इसलिए चाहते थे कि वैसे लोग अपना नया राजनीतिक दल बना लें। गांधी के साथ जब तक कांग्रेस थी, वह एक आंदोलन थी- आजादी की लड़ाई का आंदोलन, भारतीय मन व समाज को नया बनाने का आंदोलन। जवाहरलाल नेहरू के हाथ में आकर कांग्रेस सत्ता की ताकत से देश के निर्माण का संगठन बन गई। वह बौनी भी हो गई और सीमित भी, और फिर चुनावी मशीन में बदल कर रह गई। अब तक दूसरी कंपनियों की चुनावी मशीनें भी राजनीति के बाजार में आ गई थीं, सो सभी अपनी-अपनी लड़ाई में लग गईं। कांग्रेस की मशीन सबसे पुरानी थी, इसलिए यह सबसे पहले टूटी, सबसे अधिक परेशानी पैदा करने लगी। अपनी मां की कांग्रेस को बेटे राजीव गांधी ने ‘सत्ता के दलालों’ के बीच फंसा पाया था, तो उनके बेटे राहुल गांधी ने इसे हताश, हतप्रभ और जर्जर अवस्था में पाया। कांग्रेस नेहरू-परिवार से बाहर निकल पाती, तो इसे नए ‘डाक्टर’ मिल सकते थे, लेकिन पुराने ‘डाक्टरों’ को इसमें खतरा लगा और इसकी किस्मत नेहरू-परिवार से जोड़ कर ही रखी गई। राज-परिवारों में ऐसा संकट होता ही है, कांग्रेस में भी हुआ। अब ‘डाक्टर’ राहुल गांधी कांग्रेस के इलाज में लगे हैं। यह नौजवान पढ़ाई के बाद ‘डाक्टर’ नहीं बना है, ‘डाक्टर’ बन कर पढ़ाई कर रहा है। इसकी विशेषता इसकी मेहनत और इसका आत्मविश्वास है। मरीज अगर संभलेगा, तो इसी डाक्टर से संभलेगा।
ताजा चुनाव में कांग्रेस दो कारणों से विफल रही- एक, वह विपक्ष की नहीं, पार्टी की आवाज बन कर रह गई। दूसरा, वह कांग्रेस नहीं, नकली भाजपा बनने में लग गई। जब असली मौजूद है, तब लोग नकली माल क्यों लें? कांग्रेस का संगठन तो पहले ही बिखरा हुआ था, नकल से उसका आत्मविश्वास भी जाता रहा। मोदी-विरोधी विपक्ष को कांग्रेस में अपनी प्रतिध्वनि नहीं मिली, देश को उसमें नई दिशा का आत्मविश्वास नहीं मिला। राहुल गांधी ने छलांग तो बहुत लंबी लगाई, लेकिन वह कहां पहुंचना चाहते थे, यह उन्हें ही पता नहीं चला। नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस विरोधी व्यक्तियों व संगठनों को अपनी छतरी के नीचे जमा कर लिया और पांच साल में सत्ता का लाभ देकर उन्हें खोखला भी बना दिया। आज ‘राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन’ (एनडीए) के खेमे की सारी पार्टियां ‘भारतीय जनता पार्टी’ के मेमने भर रह गए हैं। वे मोदी से भी अधिक मोदीमय हैं। इसकी जवाबी रणनीति यह थी कि भाजपा विरोधी ताकतें भी एक हों। यह कांग्रेस के लिए भी जरूरी था और विपक्ष के लिए भी, लेकिन इसके लिए जरूरी था कि राहुल गांधी खुद को घोषणापूर्वक पीछे कर लेते और विपक्ष के सारे क्षत्रपों को आपसी मार-काट के बाद इस नतीजे पर पहुंचने देते कि कांग्रेस ही विपक्षी एका की धुरी बन सकती है। ऐसा अहसास होने तक 2019 का चुनाव निकल जाता, लेकिन कांग्रेस के पीछे खड़े होने का विपक्ष का वह एजेंडा पूरा नहीं हुआ। इसलिए बिखरा विपक्ष और बिखरता गया, कांग्रेस का आत्मविश्वास टूटता गया। अब राहुल-प्रियंका की कांग्रेस को ऐसी रणनीति बनानी होगी कि 2024 तक विपक्ष के भीतर यह प्रक्रिया पूरी हो जाए और कांग्रेस सशक्त राजनीतिक विपक्ष की तरह लोगों को दिखाई देने लगे। ऐसा नया राजनीतिक विमर्श वर्तमान की जरूरत है।
राहुल-प्रियंका की कांग्रेस यदि इस चुनौती को स्वीकार करती है, तो उसे खुद को भी और अपनी राज्य सरकारों को भी इस काम में पूरी तरह झोंक देना होगा। यदि वे इस चुनौती को स्वीकार नहीं करते हैं, तो कांग्रेस को विसर्जित कर देना होगा। इसके अलावा तीसरा कोई रास्ता नहीं है। वर्ष 2019 से देश में दो स्तरों पर राजनीतिक प्रयोग शुरू होगा- एक तरफ सरकारी स्तर पर ‘एनडीए’ का नया सबल स्वरूप खड़ा होगा, तो दूसरी तरफ ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ (यूपीए) का नया जमावड़ा खड़ा होगा। इसमें से वह राजनीतिक विमर्श खड़ा होगा, जो भारतीय लोकतंत्र को आगे ले जाएगा।
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