हम सब राजा के वजीर!

By: Jun 20th, 2019 12:07 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

हम सब वजीर बन गए हैं। मंत्रीगण, सांसद, पार्टी के पदाधिकारी, मीडिया, जज, चुनाव आयोग,  जनता यानी हम सब, जी हां, हम सब राजा के वजीर हो गए हैं। सच से हमारा कोई लेना-देना नहीं, देशभक्ति का नाटक चल रहा है और हम सब उसमें अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं। राजा की हां में हां, राजा की मनोदशा भांप कर बात बनाना, झूठ-सच का घालमेल आदि हमारी दिनचर्या बन गया है। इससे आगे न हम देख पाते हैं, न सोच पाते हैं। पश्चिम बंगाल से शुरू हुई डाक्टरों की हड़ताल देशभर में फैल गई। खूब शोर मचा। हर किसी ने डाक्टरों का समर्थन किया। करना ही चाहिए था, लेकिन मुजफ्फरपुर में 146 बच्चों की मृत्यु पर कितने आंसू गिरे…

पुरानी बात है। एक राजा था। बहुत समझदार और प्रजापालक। अपने दरबारियों ही नहीं, बल्कि फरियादियों की बात भी ध्यान से सुनना, समझना और सही फैसला करना उसकी आदत में शामिल था। राजा में अच्छाइयां थीं, तो उसका आदर भी था और राजा होने के कारण रौब-दाब भी था। एक बार राजा शिकार के लिए जंगल गया, तो एक हिरन का पीछा करते-करते अपने अमले से अलग हो गया। सिर्फ उसका वजीर ही उसके साथ था, बाकी सारे लोग पीछे छूट गए। शाम ढली, तो अंधेरा होने लगा। राजा रास्ता भटक गया, वजीर भी साथ था। दोनों थक कर चूर हो रहे थे, भूखे-प्यासे भी थे। उनके घोड़े भी न केवल थके हुए थे, बल्कि उन्हीं की तरह ही भूखे भी थे। दोनों परेशान इधर-उधर घूम रहे थे कि दूर कहीं दीया टिमटिमाता दिखाई दिया। दोनों उसी ओर बढ़ चले। पास गए तो देखा कि एक छोटी सी कुटिया है और कुटिया की छत पर रखा बड़ा सा दीया जल रहा है। उन्होंने मन ही मन कुटिया के मालिक को धन्यवाद दिया, जिसने एक दीया कुटिया की छत पर भी रख छोड़ा था, ताकि राहगीरों को वहां तक पहुंचने का रास्ता मिल जाए। कुटिया छोटी थी, लेकिन उसके आसपास की जमीन समतल करके उसमें खेती की गई थी। उस समय खेत के एक तरफ के हिस्से में बैंगन लगे हुए थे और उन पर दीये की रोशनी पड़ रही थी, जिससे वे चमकते हुए से प्रतीत होते थे। राजा और वजीर कुटिया के द्वार पर पहुंचे, तो घोड़ों की टाप सुनकर एक संन्यासी बाहर निकले। उन्होंने दोनों का स्वागत किया, उन्हें घोड़े से उतरने में सहारा दिया, घोड़ों को खूंटे से बांधा, उनके सामने चारा डाला और दोनों मेहमानों को अंदर ले जाकर आसन पर बैठाया, उन्हें पानी पिलाया और उनके लिए भी भोजन परोस दिया। भोजन सादा था, लेकिन बैंगन की सब्जी बहुत स्वादिष्ट थी। दोनों ने पेट भरकर खाना खाया और फिर सो गए।

सवेरे नाश्ते में एक बार फिर उन्हें बैंगन की सब्जी मिली। अलग-अलग व्यंजनों के आदी राजा ने जब बैंगन की सब्जी देखी, तो बड़े बेमन से पहला कौर खाया, लेकिन बैंगन की सब्जी के अनूठे स्वाद ने अपना रंग दिखाया और राजा ने चटखारे ले-लेकर नाश्ता खत्म किया। नाश्ता करने के बाद दोनों ने संन्यासी बाबा का धन्यवाद किया और उनसे विदा लेकर वापस चल पड़े। वापस जाते हुए रास्ते में राजा ने बैंगन की सब्जी की तारीफ की, तो वजीर ने कहा कि बैंगन तो महाराजाओं का खाना है, उसके सिर पर मुकुट जैसा बना होता है, बैंगन की तो शान ही निराली है। राजा को वजीर की बात में तर्क नजर आया। दोनों बैंगन की सब्जी के स्वाद और संन्यासी बाबा की मेहमाननवाजी की तारीफ करते-करते राजधानी आ गए। बात आई-गई, हो गई। लंबे समय के बाद एक फिर ऐसा ही संयोग हुआ कि शिकार के समय राजा और वज़ीर बाकी अमले से अलग होकर रास्ता भटक गए। इस बार वे जंगल के एक दूसरे कोने में थे, लेकिन दूर उन्हें वैसा ही एक दीया जलता नजर आया। इस बार भी यह एक अन्य संन्यासी की कुटिया थी। संन्यासी ने आदर और प्रेम से उनका स्वागत किया, उनके घोड़ों को चारा डाला, उन्हें आसन और भोजन दिया। इस बार भी भोजन में उन्हें बैंगन की सब्जी मिली, लेकिन इस बार के बैंगन बहुत बेस्वाद थे। सवेरे नाश्ते में एक बार फिर बेस्वाद बैंगन मिले, लेकिन भोजन का अनादर करना ठीक न जान दोनों ने चुपचाप नाश्ता किया, मेहमाननवाजी के लिए संन्यासी बाबा का धन्यवाद किया और उनसे विदा लेकर राजधानी की ओर चल पड़े।

इस बार फिर राह काटने के लिए जब राजा ने बातचीत शुरू की, तो बेस्वाद बैंगन का जिक्र भी आ ही गया। इस पर वजीर ने कहा कि बैंगन तो अपशगुन की सब्जी है, तभी तो भगवान ने इसे बीच में लटका रखा है। वजीर की इस बात पर राजा बहुत हैरान हुआ। पिछली बार इसी वजीर ने बैंगन को महाराजाओं की सब्जी बताया था और अब वही वजीर इसे अपशगुनी सब्जी बता रहा था। राजा ने वजीर से इसका कारण पूछा, तो वजीर ने विनयशील स्वर में कहा ‘महाराज, यह सही है कि मैं वजीर हूं, पर मैं आपका वजीर हूं, बैंगन का नहीं’।

हम सब वजीर बन गए हैं। मंत्रीगण, सांसद, पार्टी के पदाधिकारी, मीडिया, जज, चुनाव आयोग,  जनता यानी हम सब, जी हां, हम सब राजा के वजीर हो गए हैं। सच से हमारा कोई लेना-देना नहीं, देशभक्ति का नाटक चल रहा है और हम सब उसमें अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं। राजा की हां में हां, राजा की मनोदशा भांप कर बात बनाना, झूठ-सच का घालमेल आदि हमारी दिनचर्या बन गया है। इससे आगे न हम देख पाते हैं, न सोच पाते हैं। बिहार में लू के कहर के चलते 184 लोगों की जान गई है, तमिलनाडु में पानी को लेकर हुए झगड़े के कारण एक आदमी मार डाला गया, चेन्नई की आईटी कंपनियों ने पानी की कमी के कारण अपने कर्मचारियों को घर से काम करने को कहा है। मध्य प्रदेश की पुलिस पानी के टैंकरों की सुरक्षा कर रही है। गर्मी का प्रकोप ऐसा है कि घर से बाहर निकलना जानलेवा साबित हो रहा है। हर साल ऐसा ही होता है, लेकिन क्या सरकार की ओर से कोई रणनीति बनाई जाती है कि कुदरत के इस प्रकोप से बचने का कोई तरीका निकाला जाए? क्या कोई बुद्धिजीवी इस पर चिल्लाता है? क्या मीडिया इस पर जनता का ध्यान फोकस करता है? क्या स्वयंसेवी संस्थाएं इसके इलाज के लिए कोई कदम उठाती हैं? पश्चिम बंगाल से शुरू हुई डाक्टरों की हड़ताल देशभर में फैल गई। खूब शोर मचा। हर किसी ने डाक्टरों का समर्थन किया। करना ही चाहिए था, लेकिन मुजफ्फरपुर में 146 बच्चों की मृत्यु पर कितने आंसू गिरे?

बिहार के स्वास्थ्य मंत्री के अलावा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और रक्षा मंत्री आए और चले गए। परसों नीतीश कुमार के दौरे के समय ही एक बच्चा काल कवलित हो गया। उसी दिन सात बच्चे मरे। डाक्टरों, दवाइयों और उपकरणों की कमी के कारण एक ही अस्पताल में रोज आठ-दस बच्चों का मर जाना, जैसे कोई घटना थी ही नहीं। हां, हम सब राजा के वजीर हैं।

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


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