अर्थ-अनर्थ का खतरनाक खेल

By: Jul 25th, 2019 12:07 am

पीके खुराना

वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार

हमारे स्कूलों और कालेजों में हमें ‘धन के लिए काम करने’ की शिक्षा दी जाती है, ‘धन से काम लेने’ की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसी से हम अपने आर्थिक साधनों का सही उपयोग नहीं कर पाते और नौकरी चले जाने के डर से तनाव भरा जीवन जीते रहते हैं, जिसमें अगर फिसलन आ जाए, तो अपराध की बुनियाद पड़ जाती है। अतः इस समस्या का पहला इलाज यह है कि हम धन के गुलाम बनने के बजाय धन को गुलाम बनाने की कला सीखें और दूसरा इलाज यह है कि परिवारों में संवाद के लिए समय हो, आपसी रिश्ते मजबूत हों, ताकि परिवार के विघटन अथवा अपराध की नौबत न आए…

आज हमारा समाज तीन प्रमुख वर्गों में बंट गया है। पहला वर्ग अमीरों का है, जो बेतहाशा खर्च कर सकते हैं, मध्य उच्च वर्ग के बहुत से लोग भी इसी वर्ग में आते हैं, जो कदरन अपनी इच्छाएं पूरी करने में समर्थ हैं। दूसरा वर्ग गरीबों और मध्य वर्ग के उन लोगों का है, जो अमीर नहीं हैं, पर अमीर दिखना चाहते हैं। तीसरा वर्ग उन लोगों का है, जो यह जानते हैं कि वे अमीर नहीं हैं और वे उस स्थिति को स्वीकार कर चुके हैं। इन वर्गों की खाई ने पूरा सामाजिक ताना-बाना हिला दिया है। सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था ने दिखावे की संस्कृति और उधार की आजादी देकर सीधे-सादे शरीफ लोगों को अपराधी बनने पर विवश कर दिया है। यदि इस भयावह स्थिति की ओर तुरंत ध्यान न दिया गया, तो यह समाज का कैंसर बन जाएगी। उदारीकरण के बाद कॉल सेंटर, बीपीओ और केपीओ बूम ने इतनी नौकरियों को जन्म दिया कि ग्रेजुएशन से भी पहले कालेज कैंपस में ही विद्यार्थियों को ऊंचे वेतन की नौकरियां दी जाने लगीं। मीडिया और आईटी के क्षेत्र में भी क्रांति सी ही आ गई। जिन बच्चों के पिता पच्चीस-तीस हजार की तनख्वाह पर रिटायर हो रहे थे, उन्हें पहली नौकरी ही तीस हजार या ज्यादा की मिलने लग गई। कर्मचारियों की महत्ता बढ़ी और कंपनियों के लिए टैलेंट रिटेंशन एक प्रोजेक्ट बन गया। नई-नई अमीरी और धन को ‘संभालने’ की शिक्षा के अभाव ने दिखावे की संस्कृति को जन्म दिया। जहां पहले पूरे परिवार का गुजारा तीस हजार के वेतन में होता था, वहां उम्मीद से ज्यादा पैसे आने लगे और ताजे-ताजे अमीर हुए युवाओं ने इंडियन कॉफी हाउस के बजाय बरिस्ता और कैफे कॉफी डे तथा डिस्क की संस्कृति को अपनाया।

फिर एक और परिवर्तन आया, एक ही कार्यालय में काम करने वाले युवक-युवतियों के परिचय बढ़े, संबंध बने और शादी हो गई। तीस हजार में गुजारा चलाने वाले परिवार में दो नए कमाऊ सदस्य जुड़ गए और परिवार टाटा-बिरला की तरह सोचने लग गया। नए कपड़े, छुट्टियां, कार, फर्नीचर, बड़ा घर आदि के सपने पूरे होने लग गए। बैंकों ने कर्ज देने में उदारता दिखाई और क्रेडिट कार्ड डाक से आने लगे और इंप्लसिव शॉपिंग यानी आवश्यक-अनावश्यक कुछ भी पसंद आने पर खरीदारी होने लगी। तभी एक और खुशी मिली। घर में एक नन्हे मेहमान का पदार्पण हुआ। फिर मुन्ना साहिब को सबसे महंगे पब्लिक स्कूल में दाखिला मिल गया। पर तभी किस्मत ने मुंह मोड़ा और बाजार में मंदी आ गई। छंटनी होने लगी, जो रोजगार में रहे, उनकी तनख्वाह घट गई। बड़ी संख्या में लोग सड़क पर आ गए। क्रेडिट कार्ड की उधारी और परिवार का खर्च सिर पर था, सो जैसी भी नौकरी मिली, करनी पड़ी। मंदी के बादल छंटे भी तो पुराने दिन फिर कभी नहीं लौटे। कंपनियों ने टेलेंट रिटेंशन की ओर फिर से ध्यान देना शुरू किया, लेकिन इस बार यह चुनिंदा टॉप परफॉर्मरों तक सीमित हो गया। प्रेशर बढ़ गया, काम के घंटे बढ़ गए। अगला कहर ट्रैफिक ने ढाया और घर से आफिस आने-जाने में इतना समय खपता था कि मियां-बीवी के लिए एक-दूसरे की शक्ल देखना भी मुहाल हो गया। पता ही नहीं चला कि करियर के चक्कर में कब परिवार की दूरियां बढ़ीं और एक छत के नीचे रहते हुए भी मियां-बीवी के रास्ते अलग हो गए। फिर एक दिन पता चला कि दब्बू से दिखने वाले एक सीधे-सादे युवक ने अपनी पत्नी का कत्ल कर दिया है। यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है। आज सभी शहरों में ऐसी दर्दनाक घटनाएं देखने-सुनने को मिल रही हैं, जहां एक सुखी-संपन्न दिखाई देने वाला परिवार अचानक मीडिया की सुर्खियां बन जाता है। समाजशास्त्रियों, मनोचिकित्सकों और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि ऐसे अपराध उन परिवारों में ज्यादा हो रहे हैं, जहां पति-पत्नी नौकरी के कारण संयुक्त परिवार से दूर हैं और उनकी सामाजिक गतिविधियां कम हैं। काम के बोझ से दबे पति-पत्नी के बीच संवाद कमतर होता जाता है, कार्यालय का तनाव और पारिवारिक जिम्मेदारियां जीवन को बेहाल करने लगते हैं, ऐसे में पति-पत्नी के बीच कब कोई ‘वो’ आ जाता है, पता ही नहीं चलता। वह ‘वो’ पहले एक सुहानी बयार लगता है, साथी को शक हो जाने पर यही रिश्ता मृत्यु का कारण बन जाता है। हमारा समाज विवाहेतर संबंधों को मान्यता नहीं देता। पति-पत्नी के बीच दूरियां बढ़ी हैं, सहकर्मियों से मिलना-जुलना आम है, इंटरनेट ने सोशल नेटवर्किंग और डेटिंग साइट्स मुहैया करवाई हैं, परंतु वैवाहिक जीवन में ‘वो’ कभी सुखद नहीं रहा। इसकी परिणति या तलाक में होती है या किसी अपराध में। अच्छी नौकरियों में टिके रहना और आगे बढ़ना कठिन हो रहा है, लेकिन महंगाई और दिखावे ने बजट बिगाड़ दिया है।

समस्या यह है कि सही आर्थिक शिक्षा के अभाव में ज्यादा वेतन से भी समस्या का हल नहीं होता, क्योंकि वेतन बाद में बढ़ता है, अनुत्पादक खर्चे पहले बढ़ जाते हैं और परिवार कर्ज के बोझ तले दबा रह जाता है। कर्ज के बोझ तले दबा व्यक्ति अनैतिक साधनों, जुए या लाटरी आदि से पैसे बनाने की तिकड़में लड़ाने लगता है। अकसर लाटरी और जुए में हार होती है और तनाव और भी बढ़ जाता है। भयभीत मानसिकता वाला व्यक्ति पथभ्रष्ट हो जाता है और अपराध की राह पकड़ लेता है। पत्नी का कत्ल या पति द्वारा आत्महत्या आदि की घटनाएं एक ही कहानी कहती हैं। इन अपराधों की गहराई में एक कारण छिपा हुआ है, जिसकी लगातार अनदेखी की जा रही है। हमारे स्कूलों और कालेजों में हमें ‘धन के लिए काम करने’ की शिक्षा दी जाती है, ‘धन से काम लेने’ की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसी से हम अपने आर्थिक साधनों का सही उपयोग नहीं कर पाते और नौकरी चले जाने के डर से तनाव भरा जीवन जीते रहते हैं, जिसमें अगर फिसलन आ जाए, तो अपराध की बुनियाद पड़ जाती है। अतः इस समस्या का पहला इलाज यह है कि हम धन के गुलाम बनने के बजाय धन को गुलाम बनाने की कला सीखें और दूसरा इलाज यह है कि परिवारों में संवाद के लिए समय हो, आपसी रिश्ते मजबूत हों, ताकि परिवार के विघटन अथवा अपराध की नौबत न आए। यह समझना बहुत आवश्यक है कि ‘अर्थ’ यानी धन को संभालेंगे, तभी अपराध के अनर्थ से बचे रह सकेंगे।

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


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