कैसे बढ़े रोजगार

By: Jul 11th, 2019 12:07 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

 

हमारे देश में अभी तक आम लोग यह नहीं समझ पाए हैं कि सरकार का काम रोजगार देना नहीं है, बल्कि उसका काम यह है कि वह ऐसी नीतियां बनाए, जिससे व्यापार और उद्यम फल-फूल सकें और रोजगार के नए-नए अवसर पैदा होते रहें। इस नासमझी का ही परिणाम है कि लोग आरक्षण चाहते हैं, ताकि उन्हें रोजगार मिल सके। हालांकि शिक्षण संस्थानों में कोटा और कम फीस या नाममात्र की फीस जैसे आरक्षण के और भी कई लाभ हैं, पर फिर भी मुख्य लाभ रोजगार ही माना जाता है…

भारत सरकार ने स्टार्टअप कंपनियों के लिए कई रियायतों की घोषणा की है। परिणामस्वरूप कई नवयुवक उद्यमी बन जाएंगे, खुद रोजगार में होंगे और इन कंपनियों में दर्जनों अन्य लोगों को रोजगार मिलेगा। यह सिर्फ एक नीति की बात है। सरकार ने एक नीति बनाई और उस नीति के कारण रोजगार के दरवाजे खुले। सरकार की असल भूमिका भी यही है कि वह ऐसी नीतियों का निर्माण करे, जिससे व्यापार बढ़ना, समृद्धि बढ़ना, रोजगार के अवसर बढ़ना आदि संभव हो सके। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बार ‘गरीबी हटाओ’ के लोक-लुभावन नारे के साथ जनता का मन जीता था, लेकिन उसके बाद कुछ ऐसा नहीं हुआ, जिससे गरीबी हट सकती। उनकी घोषणा के पीछे कोई ‘होमवर्क’ नहीं था। परिणाम यह रहा कि जनता उनसे निराश हुई, यही नहीं, उनके राज में भ्रष्टाचार इतना बढ़ा कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण को सरकार के विरुद्ध आंदोलन करना पड़ा। संयोग यह रहा कि उसी समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को एक तकनीकी मुद्दे पर अवैध घोषित कर दिया। इन सबसे घबराकर उन्होंने देश पर आपातकाल थोप दिया और गरीबी हटाओ का नारा कहीं पीछे छूट गया। आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने भी दस वर्षों में बेरोजगारी दूर करने का सपना दिखाया। यह सपना भी सपना ही रह गया, क्योंकि इस बार भी वादे को अमल में लाने के लिए कोई योजना नहीं बनाई गई थी और यह एक चुनावी नारा मात्र बन कर रह गया।

देश में समाजवादी नीतियों के चलते कड़े नियंत्रण की प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापार पर कई पाबंदियां थीं और खरीददारों के पास सीमित विकल्प थे, यहां तक कि एक स्कूटर खरीदने या फोन का कनेक्शन लेने के लिए भी आपको दस-दस साल का इंतजार करना पड़ता था। बाद में पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में डा. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने और देश में उदारवाद आया। उदारवाद के कारण देश में धड़ाधड़ बीपीओ और कॉल सेंटर खुलने शुरू हो गए, क्योंकि भारतीय युवा अंग्रेजी भी जानते थे और अपने विदेशी ग्राहकों से उनकी भाषा में उनके-से उच्चारण के साथ बातचीत कर सकते थे। उदारवाद के कारण नए कारखाने लगे, पुराने लगे कारखानों की क्षमता बढ़ी, उत्पादन बढ़ाए, सेवा क्षेत्र में नए आयाम देखने को मिले और इन सबके कारण रोजगार के अवसर एकाएक बढ़े। यह भी सरकार की एक नीति मात्र थी, जिसने रोजगार के अवसर पैदा किए। निजीकरण जैसे-जैसे बढ़ा, उसके कारण कई सरकारी उपक्रम या तो घाटे में चले गए या फिर बंद हो गए, क्योंकि निजी क्षेत्र चुस्त-दुरुस्त था, वहां निर्णय फटाफट होते थे, जबकि सरकारी दफ्तरों में छोटी-छोटी बातों के लिए फाइल एक मेज से दूसरी मेज तक घूमती रह जाती थी। सरकारी सीमाओं में बंधे उपक्रम बंद होने लगे, तो सरकारी कार्यालयों में रोजगार खत्म होने लगे। शेष बची जगहों को भी चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए स्थायी नौकरी की जगह ठेके पर काम करवाने की प्रथा ने जोर पकड़ा, इससे सरकारी दफ्तरों में रोजगार पर लगाम लगी या रोजगार की शर्तें बदल गईं। हमारे देश में अभी तक आम लोग यह नहीं समझ पाए हैं कि सरकार का काम रोजगार देना नहीं है, बल्कि उसका काम यह है कि वह ऐसी नीतियां बनाए, जिससे व्यापार और उद्यम फल-फूल सकें और रोजगार के नए-नए अवसर पैदा होते रहें। इस नासमझी का ही परिणाम है कि लोग आरक्षण चाहते हैं, ताकि उन्हें रोजगार मिल सके। हालांकि शिक्षण संस्थानों में कोटा और कम फीस या नाममात्र की फीस जैसे आरक्षण के और भी कई लाभ हैं, पर फिर भी मुख्य लाभ रोजगार ही माना जाता है। यही कारण है कि कई संपन्न वर्ग भी अब ‘पिछड़ा’ होने का ठप्पा लगवाने के लिए आंदोलन करते हैं। जब उदारवाद आया, तो सरकार ने कारखाने, कॉल सेंटर, बीपीओ, केपीओ आदि नहीं खोले, यह काम निजी क्षेत्र ने किया, लेकिन उनका खुलना इसलिए संभव हो सका, क्योंकि सरकार ने नियमों-कानूनों में परिवर्तन करके व्यापार को आगे बढ़ने का अवसर दिया, जिससे रोजगार बढ़े। अब भी स्टार्टअप कंपनियों के लिए सुविधाओं की घोषणा करके मोदी सरकार ने रोजगार के अवसर बढ़ाने का एक ऐसा उपाय किया है, जो बहुत कारगर हो सकता है। अमेजन, फ्लिपकार्ट, उबर, ओला, फूडपांडा, जमैटो, बिग बास्केट जैसी कंपनियों के कारण कई लोगों को रोजगार मिला है। ये रोजगार सरकारी दफ्तरों में नहीं है, पर सरकार की नीतियों के कारण ऐसा होना संभव हो पाया है। लब्बोलुआब यह कि आरक्षण लेकर भी वह वर्ग घाटे में रहेगा, जो सरकारी नौकरी की बाट जोहता रह जाएगा। सरकार के पास रोजगार नहीं हैं। आरक्षण एक ऐसा झुनझुना है, जिससे बच्चा बहल तो सकता है, पर उससे उसकी भूख नहीं मिट सकती।

निजी क्षेत्र द्वारा रोजगार बढ़ाने की बड़ी भूमिका के बावजूद सरकारी कानून और टैक्स के नियम ऐसे हैं कि वे व्यवसाय की प्रगति में बहुत बड़ा रोड़ा हैं। तुर्रा यह कि सरकारी कानून ऐसे हैं कि कोई भी सरकारी अधिकारी कानूनों का सहारा लेकर किसी भी व्यवसायी को मनमाने ढंग से परेशान कर सकता है। यहां तक कि उसकी सालों की मेहनत पर पानी फेर सकता है और उसके व्यवसाय को बंद करवा सकता है। रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए टैक्स का तर्कसंगत होना भी आवश्यक है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की मार से दबा व्यवसायी कड़ी मेहनत के बावजूद अकसर हाथ मलता रह जाता है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सरकारी कानून और टैक्स नियम व्यवसाय हितैषी नहीं हैं।

व्यवसाय के अतिरिक्त कृषि क्षेत्र में भी सरकारी परिपाटियां ऐसी हैं कि कृषि एक अलाभदायक व्यवसाय बन गया है और छोटे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, जबकि कारपोरेट क्षेत्र कृषि आय के नाम पर टैक्स में भारी छूट का लाभ उठा रहा है। किसानों को सीधे धन मुहैया करवाना एक अस्थायी उपाय है। विभिन्न जिन्सों के दाम तय करने की नीति और प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। अब समय आ गया है कि इन विसंगतियों को दूर किया जाए, ताकि व्यवसाय के साथ-साथ कृषि भी फल-फूल सके, तभी देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और हमारे युवाओं के लिए कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र में रोजगार के नए विकल्प बन पाएंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे राजनीतिज्ञ और बाबूशाही इस ओर तुरंत ध्यान देंगे।

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


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