चीन से क्यों पिछड़ गए हम
डा. भरत झुनझुनवाला
आर्थिक विश्लेषक
चीन द्वारा 80 के दशक में लागू की गई आर्थिक विकास नीति को आज हम लागू नहीं कर पाएंगे। यही कारण है कि पिछले पांच सालों में मेक इन इंडिया सफल नहीं हुआ है और वर्तमान बजट में भी वित्त मंत्री द्वारा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने का आह्वान करना भी सफल होता नहीं दिखता है। जिस प्रकार वर्षा के समय उपयुक्त नीति को सूखे के समय लागू नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार 80 की मैन्युफेक्चरिंग की रणनीति को आज लागू नहीं किया जा सकता है। इस परिस्थिति में हमें सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए। बताते चलें कि अर्थव्यवस्था के तीन मुख्य क्षेत्र होते है- कृषि, मैन्युफेक्चरिंग एवं सेवा। आज अमरीका जैसे विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में कृषि का हिस्सा मात्र एक प्रतिशत, मैन्युफेक्चरिंग का लगभग नौ प्रतिशत और सेवा क्षेत्र का 90 प्रतिशत हो गया है। इससे पता लगता है कि अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे बढ़ती है, उसमें सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जाता है…
वर्ष 1980 में चीन के नागरिक की औसत आय भारत के नागरिक की तुलना में 1.2 गुना थी। 2018 में यह 4.4 गुना हो गई है। जाहिर है कि हमारी तुलना में चीन बहुत आगे निकल गया है। चीन ने 80 के दशक में आर्थिक सुधार लागू किए थे। उन्होंने मैन्युफेक्चरिंग को बढ़ावा दिया था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्योता दिया था कि वे चीन में आकर फैक्टरियां लगाएं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को श्रम एवं पर्यावरण कानून में ढील दी, जिससे उन्हें निवेश करने में परेशानी न हो। चीन के सस्ते श्रम का लाभ उठाने के लिए भारी संख्या में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन में निवेश किया था। उन्होंने चीन में फैक्टरियां लगाईं, जिससे चीन में रोजगार बने और देश की आय भी बढ़ी, लेकिन वह 1980 का दशक था। आज 2020 आने को है। आज उस नीति को हम अपनाकर सफल नहीं हो सकते हैं, क्योंकि परिस्थितियां बदल गई हैं। 80 और 90 के दशक में विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं तीव्र गति से आगे बढ़ रही थीं।
इंटरनेट और पर्सनल कम्प्यूटर जैसे नए आविष्कार हो रहे थे और इन नए उत्पादों को विश्व में महंगा बेच कर ये देश भारी आय अर्जित कर रहे थे। इन्हीं हाईटेक उत्पादों के निर्यात में विकसित देशों में रोजगार भी उत्पन्न भी हो रहे थे। उस परिस्थिति में उनके लिए यह लाभप्रद था कि मैन्युफेक्चरिंग के ‘गंदे’ कार्य को वे चीन को निर्यात कर दें और स्वयं हाईटेक उत्पादों की मैन्युफेक्चरिंग एवं हाईटेक सेवाओं को प्रदान करने में अपने देश में रोजगार बनाएं। उस समय विकसित देशों और चीन दोनों के लिए यह लाभ का सौदा था। विकसित देशों में नई तकनीकों से आय और रोजगार बढ़ रहे थे और चीन से उन्हें सस्ते आयात भी मिल रहे थे। दूसरी तरफ चीन को विदेशी निवेश मिल रहा था, रोजगार बन रहे थे और आय भी बढ़ रही थी। वर्तमान समय में परिस्थिति में मौलिक अंतर आ गया है। अब विकसित देशों के पास पर्सनल कम्प्यूटर जैसे नए आविष्कार नहीं हो रहे हैं, जिन्हें बेच कर वे विश्व से भारी आय अर्जित कर लें, बल्कि विदेशी निवेश के माध्यम से विकसित देशों ने अपनी हाईटेक तकनीकों का निर्यात कर दिया है और आज चीन, दक्षिण कोरिया और वियतनाम में हाईटेक माल की मैन्युफेक्चरिंग हो रही है।
विकसित देशों में माल की मांग नहीं है, जिसकी पूर्ति के लिए वे आज भारत जैसे विकाशील देशों में निवेश करके मैन्युफेक्चरिंग करें। आज चीन की रणनीति लागू न हो पाने का दूसरा कारण रोबोट का आविष्कार है। वर्तमान समय में मैन्युफेक्चरिंग में रोबोट का भारी उपयोग होने लगा है। रोबोट के उपयोग से श्रम की मांग कम हो गई है और विकासशील देशों में उपलब्ध सस्ते श्रम का आकर्षण कम हो गया है। जैसे पहले कार बनाने की फैक्टरी में यदि पांच हजार श्रमिक लगते थे, तो आज उसमें चार हजार का कार्य रोबोट द्वारा हो रहा है और केवल एक हजार कर्मियों की जरूरत है। कर्मियों की संख्या कम हो जाने से चीन में उपलब्ध सस्ते श्रम का आकर्षण कम हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए आज चीन में उत्पादन करके उस माल का अमरीका को निर्यात करने की तुलना में रोबोट के माध्यम से अमरीका तथा यूरोप में ही उस माल की मैन्युफेक्चरिंग कर लेना ज्यादा लाभप्रद हो गया है। इन दोनों कारणों की वजह से चीन द्वारा 80 के दशक में लागू की गई आर्थिक विकास नीति को आज हम लागू नहीं कर पाएंगे। यही कारण है कि पिछले पांच सालों में मेक इन इंडिया सफल नहीं हुआ है और वर्तमान बजट में भी वित्त मंत्री द्वारा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने का आह्वान करना भी सफल होता नहीं दिखता है। जिस प्रकार वर्षा के समय उपयुक्त नीति को सूखे के समय लागू नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार 80 की मैन्युफेक्चरिंग की रणनीति को आज लागू नहीं किया जा सकता है। इस परिस्थिति में हमें सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए। बताते चलें कि अर्थव्यवस्था के तीन मुख्य क्षेत्र होते है- कृषि, मैन्युफेक्चरिंग एवं सेवा। आज अमरीका जैसे विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में कृषि का हिस्सा मात्र एक प्रतिशत, मैन्युफेक्चरिंग का लगभग नौ प्रतिशत और सेवा क्षेत्र का 90 प्रतिशत हो गया है। सेवा क्षेत्र में सॉफ्टवेयर, सिनेमा, संगीत, पर्यटन आदि सेवाएं आती हैं।
इससे पता लगता है कि अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे बढ़ती है, उसमें सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जाता है। अतः सिकुड़ते हुए मैन्युफेक्चरिंग को पकड़ने के स्थान पर सूर्योदय होते सेवाक्षेत्र को पकड़ना चाहिए। सेवाक्षेत्र हमारे लिए विशेषकर उपयुक्त इसलिए भी है कि सेवा क्षेत्र में बिजली की जरूरत कम होती है। मैन्युफेक्चरिंग में एक रुपया जीडीपी उत्पन्न करने में जितनी बिजली की जरूरत होती है, तुलना में सेवाक्षेत्र में वही एक रुपया जीडीपी उत्पन्न करने में उसकी मात्र दस प्रतिशत बिजली की जरूरत होती है। इसलिए पर्यावरण की दृष्टि से भी सेवा क्षेत्र हमारे लिए उपयुक्त है। अपने देश में अंग्रेजी भाषा बोलने वाले भी उपलब्ध हैं। इसलिए हमें सूर्योदय सेवाक्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए और पर्यटन, विदेशी भाषा, सिनेमा इत्यादि क्षेत्रों के आधार पर अर्थव्यवस्था को बढ़ाना चाहिए। इस सेवा क्षेत्र के विकास में मुख्य समस्या हमारी शिक्षा व्यवस्था है। विश्व के इनोवेशन अथवा सृजनकता सूचकांक में चीन की रैंक 25 है, जबकि भारत की 66 है।
नए माल अथवा सेवाओं का उत्पादन करने में हम बहुत पीछे हैं। इसका मुख्या कारण यह है कि अपने देश में विश्वविद्यालयों की परिस्थिति ठीक नहीं है। अधिकतर शिक्षक रिसर्च नहीं करते हैं। उन्हें रिसर्च करने का कोई आकर्षण नहीं है, क्योंकि उनके वेतन सुनिश्चित रहते हैं। ऊपर से राजनीतिक नियुक्तियां की जाती हैं, जो कि कुशल शिक्षकों को आगे नहीं आने देते हैं। इसलिए यदि हमारी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है, तो सरकारी विश्वविद्यालयों का बाहरी मूल्यांकन कराना चाहिए और उन्हें दिए जाने वाले अनुदान इस मूल्यांकन के आधार पर देना चाहिए। देश के सबसे कमजोर 25 प्रतिशत विश्वविद्यालयों को दिए जाने वाली रकम में हर वर्ष 10 से 20 प्रतिशत की कटौती करनी चाहिए और अच्छा काम करने वाले विश्वविद्यालयों में उतनी ही वृद्धि करनी चाहिए। ऐसा करने से हमारे विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की जवाबदेही बनेगी, वे बच्चों को पढ़ाएंगे और हमारा देश सेवाक्षेत्र में उपस्थित अवसरों को हासिल करने में सफल हो सकता है।
ई-मेल : bharatjj@gmail.com
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