मुस्कराने की प्रार्थना

By: Jul 4th, 2019 12:05 am

सुरेश सेठ

साहित्यकार

पूरे देश में भूख, बेकारी, कर्जदारी और बीमारी ने ऐसी हायतौबा मचा रखी है कि यहां लोग खुलकर हंसना पहले ही भूल चुके थे। पहली वजह इस मुस्कराने की यह कि उसे बिना किसी दिक्कत दलाल को पैसे खिलाए और टिकट चैकर की चिरौरी किए बिना वहां जाने के लिए रेल की कन्फर्मड सीट मिल गई। सीट भी अच्छी थी, निचली और दोनों खिड़कियों के पास। कोई धाकड़ उस पर पहले से कब्जा जमा कर नहीं बैठा था और सहयात्री भी झगड़ालू नहीं थे। पैंट्री से खाना मंगवाया, तो उसमें काक्रोच नहीं था। रेलवे वेटर ने बीस के पचास रुपए नहीं लगाए और बाद में बड़े नोट का छुट्टा भी बिना तकादा दे गया। डिब्बे के प्रसाधन अर्थात बाथरूम में गए, तो वहां उसका नल बिगड़ा हुआ नहीं था और उसका दरवाजा भी आसानी से लग गया। गाड़ी अपने गंतव्य तक पहुंची, तो कुली तहजीब से पेश आया और उसने पैसे भी नियमानुसार लिए। स्टेशन से बाहर आए, तो टैक्सी या आटोवाला भद्र पुरुष था। हमारा सामान उसने खुद टिकाया और होटल पहुंचाते हुए उसने न तो रास्ते का गच्च दिया  और न ही मीटर बिगड़ा हुआ कह कर ओवर चार्जिंग की। अब ऐसा इस शहर में सब असंभव संभव हो जाए, तो भला कौन न मुस्कराए। यह कहीं अपने शहर में संभव हो जाए, यहां बैठे ही बेसाख्ता लुप्त मुस्कराहटें हंसी में न बदल जाएं? लेकिन ऐसा नहीं होता, तभी तो विश्व में अभी हुए प्रसन्नता और खुशहाली के सूचकांक ने बताया है कि भारत इस मामले में पहले ही फिसड्डी था, अब और  भी फिसड्डी हो गया, क्योंकि यहां ऐसे ‘लखनऊ’ नहीं मिलते। मिलते नहीं, इसलिए लोगों की उदासी को मुस्कराहट में बदलने के लिए लाफिंग योगा करना पड़ता है, लेकिन शहरों का विशेष परिचय भी गायब होता जा रहा है। हर जगह वही भीड़भाड़, वही  यातायात अवरोध, वही घुटन और नोच-खसोट सब शहरों में एक से लगते हैं। शहरों के अंदर जाओ, तो जिंदा नेताओं की पत्थर की मूर्तियां आपका स्वागत करती हैं। उनके भाषण और जुमले उनके लिए वोट बटोर लाते हैं, लेकिन इनसानियत और हमदर्दी नाम की दुर्लभ वस्तु के दर्शन नहीं करवाते। इस शहर में भूतपूर्व हो गए पत्थर के हाथियों की मूर्तियां चाहे चिंघाड़ने लगें, लेकिन कोई भी विडंबना कहीं घटे, आम आदमी चूं तक नहीं करता। बाहुबली हर शहर में दनदनाते हैं, आपके यहां भी इनकी कमी नहीं। इसलिए मुस्कराने के काबिल न तो अपना शहर रहा और न ही देश का कोई अन्य शहर। आर्थिक विसंगतियों ने चेहरों पर उभरने वाली मुस्कराहटों की भ्रूण हत्या कर दी। अच्छे दिनों का अंतहीन इंतजार इन मुस्कराहटों को लौटाने का कोई वादा नहीं करता। अरबपति निवेशक तो अपना वादा भूल इस देश से ऐसे पलायन कर गए, जैसे गधे के सिर से सींग। जी सही फरमाया आपने। हम बाबा आदम के जमाने की इस उपमा के प्रति शर्मिंदा हो सकते हैं, लेकिन वे बड़े-बड़े बैंक क्यों शर्मिंदा होते नजर नहीं आते, जहां से उनके एक के बाद एक बैंक घोटालों के समाचार प्रकट हो रहे हैं। भला बैंक क्यों शर्मिंदा हों? वे तो इन घपलेबाज बड़े लोगों के खातों के नाम भी बताने के लिए तैयार नहीं, क्योंकि इससे उनकी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। सही भी है भद्र लोगों की आन, बान और शान पर आंच नहीं आनी चाहिए। देश का केवल एक प्रतिशत ही तो है, ये बड़े लोग, शेष तो हम जैसे करोड़ों छोटे लोगों से देश भरा है। वे तो पहले ही इस देश की मिट्टी में कूड़े की मिलावट हो गए। लेकिन एक जगह पर परवाह करते हैं। नेता जी मंच से अपने तेज-तर्रार भाषणों में उनकी ओर जुमले फेंकते हुए उनकी अवश्य परवाह करते हैं। वह इन भाषणों में फरमाते हैं कि महसूस कीजिए अब आप गरीबी, भूख, बेकारी से आजाद हैं। अब जब बात महसूस करने पर ही आ जाए, तो क्यों न हम महसूस कर लें कि हमारे अच्छे दिन आ गए। हमारे जनधन खातों में पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए जमा हो गए। महसूस ही करना है, तो यह क्यों न करें कि हर भूखे पेट को रोटी मिल गई और हर काम मांगते हाथ को रोजगार। बिलकुल उसी तरह जैसे उस दिन एक शहर में लगे बोर्डों ने कहा था कि ‘मुस्कराइए आप हमारे शहर में हैं।’ लेकिन उन बोर्डों को पढ़ कर उस दिन कोई नहीं मुस्कराया था। बहुत मुश्किल होता है पूरे सत्तर वर्ष की आजादी में एक नकली मुस्कराहट का निरंतर बोझ ढोना। आमीन। आइए उस दिन का इंतजार करें जब लोग अपने आप मुस्कराएंगे। उन्हें बोर्ड लिखकर मुस्कराने की नसीहत नहीं देनी पड़ेगी।


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